गीत -
अब कलाई पर घड़ी बंधती नहीं है,
वक़्त के पाबन्द इतने हो गए हैं।
पल किसे कहते हैं, क्या बतला सकेंगे,
गिनतियों से दिन, महीने खो गए हैं।
सो रही है सृष्टि पर हम जागते हैं।
बिस्तरों पर हैं मगर हम भागते हैं।
किस सफलता का चषक कर ले लिया है ?
पा लिया कुछ याकि सब कुछ खो दिया है ?
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सत्य कहने की ललक हमको बहुत थी,
सत्य का घुटता गला पर, नित्य देखा।
रात को भी रात कहने में लगा भय,
दिन दहाड़े नित्य ऐसा कृत्य देखा।
युद्ध अपने सामने उत्थान पर था,
थरथराता हाथ खाली म्यान पर था,
फिर अचानक ही समर्पण कर दिया है।
पा लिया कुछ याकि सब कुछ खो दिया है ?
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कोसते आये थे अब तक कुरु सभा को,
लुट गयी द्रौपदि जहाँ, वे कौन थे तब।
पर लुटी जब लाज अपने सामने तो,
सिर झुके थे शस्त्र फिर से मौन थे सब।
आन पर मिटने की अपनी एक ज़िद पर,
सौ विवशताएँ रहीं हावी निरन्तर,
और इच्छा-मृत्यु का विष पी लिया है।
पा लिया कुछ याकि सब कुछ खो दिया है ?
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आदित्य तोमर,
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