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बुधवार, 29 जनवरी 2020

जॉन_एलिया साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर किये जा रहे हैं।
ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। उम्मीद है यह कोशिश आपको पसन्द आएगी।
आज पेश हैं #जॉन_एलिया साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
जॉन एलिया का जन्म 1931 को अमरोहा में हुआ था और  2002 में वे दुनिया से रुखसत हो गये।
उनकी ज़िंदगी जज़्बाती संघर्ष और निराशा में डूबी रही, जो उनकी शायरी में बखूबी नज़र भी आता है। वे उर्दू अदब के बड़े और बेहतरीन शायर थे। शायरी में आसान लफ़्ज़ों के इस्तेमाल की वजह से वे सीधे दिल में उतर जाते हैं, इसीलिये वे आज भी लोगों के दिलों पर राज करते हैं।
...तो समाअत फ़रमाइये उनकी कुछ ग़ज़लें और कुछ शे'र ...

#ग़ज़लें

/ 01/

उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या
दाग़ ही देंगे मुझको दान में क्या

मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या

मुझको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या

ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या

/ 02 /

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं

क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं

अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं

तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
इस तरह खुद से डर गया हूँ मैं

#चन्द_शेर


बिन तुम्हारे कभी नहीं आयी
क्या मेरी नींद भी तुम्हारी है

मैं ख़ुद नहीं हूं और कोई है मेरे अंदर
जो तुम को तरसता है, अब भी आ जाओ

कोई नहीं यहां खामोश, कोई पुकारता नहीं
शहर में एक शोर है और कोई सदा नहीं

अब हमारा मकान किस का है
हम तो अपने मकां के थे ही नहीं

जा रहे हो तो जाओ लेकिन अब
याद अपनी मुझे दिलाइयो मत

हम आंधियों के बन में किसी कारवां के थे
जाने कहां से आए थे, जाने कहां के थे

और तो हमने क्या किया अब तक
ये किया है कि दिन गुज़ारे हैं

मेरी जां अब ये सूरत है कि मुझ से
तेरी आदत छुड़ाई जा रही है

कभी-कभी तो बहुत याद आने लगते हो
कि रूठते हो कभी और मनाने लगते हो

मैं अब हर शख़्स से उकता चुका हूं
फ़क़त कुछ दोस्त हैं, और दोस्त भी क्या

आप बस मुझ में ही तो हैं, सो आप
मेरा बेहद ख़याल कीजिएगा

बहुत नज़दीक आती जा रही हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या

मुझ से बिछड़ कर भी वो लड़की कितनी ख़ुश ख़ुश रहती है
जिस लड़की ने मुझ से बिछड़ कर मर जाने की ठानी थी

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई क्या तू सचमुच आई है

बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मेरी नींद भी तुम्हारी है

सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर
अब किसे रात भर जगाती है

कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई
तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया

ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

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