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शनिवार, 4 जनवरी 2020

दुख की बदली

छंद मुक्त कविता

मैं अक्सर भीग जाता हूँ ,
दुखों की बदली में,
उसके प्रवाह का आतप,
जब आफ़त बन जाता ,
मुश्किल हालात भी,
जब मुश्किल हो जाते ,
सिहर जाता तन-मन,
समस्या से भय खाता हूँ,
भूल जाता सुकूँ के पल,
बस सोचता ये ही,
हाय!जीवन, कैसा जीवन? 
मैं तुझसे हार गया ,
ये कहकर जीवन,
धिक्कार दिया, 
क्षुब्ध,लुब्ध, कुंठित हो,
स्वयं को कोसता हूँ ,
भूल जाता पतझड़ के बाद,
सावन तो आएगा,
बाद कोहरे के फिर ,
लालिमा भी आएगी,
अमावस-अंधेरे जीवन में,
पूर्णिमा का चंद्र भी होगा,
ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है,
दुख में धैर्य की परीक्षा होती,
सुख-दुख आना-जाना है,
ये बातें जब-जब सुनता हूँ,
पढ़ता हूँ, लिखता हूँ ।
तब सुख झरोखे से झाँकता,
कुछ इशारा करता हुआ,
मंद- मंद हँसी से खिलखिलाता,
और फिर कहता भी है,
तेरे संग रहकर दुख को,
कितना सुख मिला रे ।
धैर्य तेरा देखकर,
धैर्य और धीर बना,
ये देखकर मुग्ध हूँ मैं,
अब मैं भी आना चाहता,
दुख जैसा गले मिलकर तुझसे,
मैं भी मुस्काना चाहता,
पावन होना चाहता हूँ ,
आह! मुझे भी तो,
कितना प्यार मिलेगा? 
कितना सुख मिलेगा? 
कितना सम्मान मिलेगा? 

कवि - सुनील नागर " सरगम "

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