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बुधवार, 29 जनवरी 2020

कृष्ण_बिहारी_नूर साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली कुछ ग़ज़लें ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। इसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर किये जा रहे हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। उम्मीद है यह कोशिश आपको पसन्द आ रही होगी।
आज लेकर आये हैं #कृष्ण_बिहारी_नूर साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली कुछ ग़ज़लें ...

#ग़ज़लें ...

/ 1 /

ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं,
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं

ज़िन्दगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं

सच घटे या बढ़े तो सच न रहे,
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं

ज़िन्दगी अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं

जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता-पता ही नहीं

धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं

चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आईना झूठ बोलता ही नहीं

अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
‘नूर’ संसार से गया ही नहीं

/ 2 /

नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद

मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता ख़ुद को
किसी की चाह न थी दिल में, तिरी चाह के बाद

ज़मीर काँप तो जाता है, आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले, कि हो गुनाह के बाद

गवाह चाह रहे थे, वो मिरी बेगुनाही का
जुबाँ से कह न सका कुछ, ख़ुदा-गवाह के बाद

/ 3 /

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझमें
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझमें

मेरा ये हाल उभरती हुई तमन्ना जैसे,
वो बड़ी देर से कुछ ढूंढ रहा है मुझमें

जितने मौसम हैं सब जैसे कहीं मिल जायें,
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझमें

आईना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन,
आईना इस पे है ख़मोश के क्या है मुझमें

अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ 'नूर'
मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझमें

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

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