#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर प्रस्तुत है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। उम्मीद है यह कोशिश आपको पसन्द आएगी।
आगाज़ कर रहे हैं #निश्तर_ख़ानक़ाही साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी के साथ ...
#ग़ज़लें ...
/01/
बच्चे डरे-डरे से ये क्या पूछते हैं आज
अख़बार के हिसाब से कितने मरे हैं आज
हँस हँस के यूँ तो सबसे मिला हूँ मगर ये क्या
झूठी हँसी से होंठ बहुत दुख रहे हैं आज
चमका न अब भी मास के अन्तिम दिनों का चाँद
या हम समय से पहले ही सोने लगे हैं आज
टायर कहीं फ़टे तो ये लगता है कुछ हुआ
आहट भी हो ज़रा सी तो हम काँपते हैं आज
/02/
अपने ही खेत की मिट्टी से जुदा हूँ मैं तो ।
इक शरारा हूँ कि पत्थर से उगा हूँ मैं तो ।
मेरा क्या है कोई देखे या न देखे, मुझको
सुब्ह के डूबते तारों की ज़िया हूँ मैं तो ।
अब ये सूरज मुझे सोने नहीं देगा शायद
सिर्फ़ इक रात की लज़्ज़त का सिला हूँ मैं तो ।
कौन रोकगा तुझे दिन की दहकती हुई धूप
बर्फ़ के ढेर पे चुपचाप खड़ा हूँ मैं तो ।
/03/
रात एक पिक्चर में, शाम एक होटल में, बस यही बसीले थे
मेज़ के किनारे पर, चाय की पियाली में, उसकें होंठ रक्खे थे
दस्तख़त नहीं बाक़ी, बस हरुफ़ टाइप के क़ाग़ज़ों में ज़िंदा हैं
याद भी नहीं आता, प्यार के ये ख़त जाने, किसने किसको लिक्खे थे
दर्द-खानादारी का, हमको क्या पता क्या है, हम जवान शहरों के
होटलों में रहते थे, हॉट-डाग खाते थे, काकटेल पीते थे
आज का भी दिन गुज़रा, डाकतार वालों की कल से कामबंदी है
जाने किन उमीदों पर हमने रात काटी थी, गिन के पल गुजारे थे।
#चन्द_शेर ...
◆
रूह के ज़ख़्मों से छनती रोशनी अच्छी लगी
थी बहुत बेदर्द लेकिन ज़िन्दगी अच्छी लगी
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दिल किसी के दर्द में रोता नहीं पत्थर हुआ
आदमी अब आदमी के वास्ते बंजर हुआ
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मीर कोई था मीरा कोई लेकिन उनकी बात अलग
इश्क न करना इश्क में प्यारे पागल बनना पड़ता है
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घट के इतनी रह गयी है ज़िन्दगी
घर बसाया, घूस दी, नौकर हुए
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कहता है आज दिन में उजाला बहुत है यार
शायद ये शख़्स रात में जागा बहुत है यार
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दस्तक पे दोस्तों की भी खुलते नहीं हैं दर
हर वक़्त एक अजीब सी वहशत घरों में है
◆
हाल शासन का लिखा जनता की लाचारी लिखी
अंत में बारूद पर माचिस की निगरानी लिखी
◆
कुछ न पूछो क्या हुआ क्यों इतने दिन ग़ायब रहे
बात बस इतनी थी हम मर गये थे बीच में
प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम
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