की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। उम्मीद है यह कोशिश आपको पसन्द आ रही होगी।
आज पेश कर रहे हैं #वसीम_बरेलवी साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
वसीम बरेलवी साहब का वास्तविक नाम ज़ाहिद हसन है, वे बरेली में फूटे दरवाज़े के पास रहते है।
उ0 प्र0 विधान परिषद के वे आजकल सदस्य भी हैं।
आप बरेली कालेज, बरेली के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर रहे हैं मगर उनकी शायरी हिंदुस्तानी ज़बान का प्रतिनिधित्व करती है। यही कारण है कि दुनिया में उन्हें और उनकी ग़ज़लों को बहुत प्यार मिलता है।
#ग़ज़लें
/ 01 /
आते आते मिरा नाम सा रह गया
उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया
वो मिरे सामने ही गया और मैं
रास्ते की तरह देखता रह गया
झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए
और मैं था कि सच बोलता रह गया
आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया
उस को काँधों पे ले जा रहे हैं 'वसीम'
और वो जीने का हक़ माँगता रह गया
/ 02 /
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटें
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है
/ 03 /
क्या ग़म है, समंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है, तो ख़ता इसमें तेरी क्या
हर शख़्स मेरा साथ, निभा भी नहीं सकता
प्यासे रहे जाते हैं जमाने के सवालात
किसके लिए ज़िन्दा हूँ, बता भी नहीं सकता
घर ढूँढ रहे हैं मेरा , रातों के पुजारी
मैं हूँ कि चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता
वैसे तो एक आँसू ही बहा के मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता
#चन्द_शेर_और_समात_फ़रमाइये
◆
अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा
◆
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता
◆
आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है
भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है
◆
ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं
तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी
◆
ग़म और होता सुन के गर आते न वो 'वसीम'
अच्छा है मेरे हाल की उन को ख़बर नहीं
◆
जो मुझ में तुझ में चला आ रहा है बरसों से
कहीं हयात इसी फ़ासले का नाम न हो
◆
किसी ने रख दिए ममता भरे दो हाथ क्या सर पर
मेरे अंदर कोई बच्चा बिलक कर रोने लगता है
◆
किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़ कर देखो
तो ये रिश्ता निभाना किस क़दर आसान हो जाए
◆
कुछ है कि जो घर दे नहीं पाता है किसी को
वर्ना कोई ऐसे तो सफ़र में नहीं रहता
◆
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए
◆
बहुत से ख़्वाब देखोगे तो आँखें
तुम्हारा साथ देना छोड़ देंगी
◆
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता
तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता
◆
न पाने से किसी के है न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है
◆
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं
कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा
◆
हर शख़्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ़
फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले
◆
रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जायेगी
देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है
◆
शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है
◆
अपने अंदाज़ का अकेला था
इसलिए मैं बड़ा अकेला था
◆
हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें
ज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें
◆
कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम
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