हिंदी साहित्य वैभव

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बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

10:05 am

उम्र आधी बित गई तो क्या, मोहब्बत उम्र की मोहताज़ नही ! - डिम्पल शर्मा


उम्र आधी बित गई तो क्या ?
मोहब्बत उम्र की मोहताज़ नही !
मुझे तो करनी है मोहब्बत फिर से,
वही लड़कपन वाली !
वही आधी रात को उठना,
तुम्हारे ख्यालों का ज़हन में आना,
पूरे चाँद को ताकना,
सितारों के टूटने का इंतज़ार ,
दुवा कुबूल हो, आमीन कहे कोई,
और मिल जाये बंद किताबों में,
तुम्हारा दिया, खोया सूखा गुलाब ,
महकता...!
इत्र की खुसबू जो डाली थी तुमने,
महकता आज भी वैसा ही है,
वो लड़कपन वाला
पहला प्यार !
उम्र के दायरे, चेहरे की झुर्रियों तक सिमित हैं,
प्यार का पंछी, कहाँ कैद रहता है दायरों में !
चलो ना, रात उठ कर तकते हैं चाँद को,
और करते हैं वही,
लड़कपन वाला पहला प्यार !
मैं, तुम और आधी रात !
तारों के टूटने का इंतज़ार...
उम्र आधी बीत गयी तो क्या ?
चलो ना, करते हैं...
वहि पुराना, पहला प्यार ...।

डिम्पल शर्मा

10:02 am

उर्मिलेश जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...प्रस्तुति #डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। खुशी है यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज लेकर आये हैं #उर्मिलेश जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
डॉ उर्मिलेश ( 1951-2005 ) का ताल्लुक बदायूँ से था। वे मूलतः गीतकार थे लेकिन उनकी ग़ज़लें भी काफ़ी लोकप्रिय हुईं। उनकी ग़ज़लों में सामाजिक सम्बन्धों की न सिर्फ़ तस्वीर नज़र आती है बल्कि इन्सानी जज़्बात भी उभरते हैं।
उनकी चन्द ग़ज़लें और शे'र समआत फ़रमाये ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

रिश्तों की भीड़ में भी वो तन्हा खड़ा रहा
नदियाँ थी उसके पास वो प्यासा खड़ा रहा

सब उसको देख देख के बाहर चले गए
वो आईना था घर में अकेला खड़ा रहा

इस दौर में उस शख्स की हिम्मत तो देखिये
अपनों के बीच रहके भी ज़िन्दा खड़ा रहा

मेरे पिता की उम्र से कम थी न उसकी उम्र
वो गिर रहा था और मैं हँसता खड़ा रहा

बारिश हुई तो लोग सभी घर में छुप गए
वो घर की छत था इसलिए भीगा खड़ा रहा

/ 02 /

अब बुज़ुर्गों के फ़साने नहीं अच्छे लगते
मेरे बच्चों को ये ताने नहीं अच्छे लगते

बेटियाँ जब से बड़ी होने लगी हैं मेरी,
मुझको इस दौर के गाने नहीं अच्छे लगते

उम्र कम दिखने के नुस्खे तो कई हैं लेकिन,
आइनों को ये बहाने नहीं अच्छे लगते

अब वो मँहगाई को फैशन की तरह लेता है,
अब उसे सस्ते ज़माने नहीं अच्छे लगते

अपने ही शोर में डूबा हुआ हूँ मैं इतना
अब मुझे मीठे तराने नहीं अच्छे लगते

/ 03 /

पूरी हिम्मत के साथ बोलेंगे
जो सही है वो बात बोलेंगे

साहिबों,हम क़लम के बेटे हैं
कैसे हम दिन को रात बोलेंगे

पेड़ के पास आँधियाँ रख दो
पेड़ के पात पात बोलेंगे

'ताज' को मेरी नज़र से देखो
जो कटे थे वो हाथ बोलेंगे

उनको कुर्सी पे बैठने तो दो
वो भी फिर वाहियात बोलेंगे

#चन्द_शेर_और_देखिए

बेवजह दिल पे कोई बोझ न भारी रखिये
ज़िन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिये

वो जिसका तीर चुपके से जिगर के पास होता है
वो कोई ग़ैर क्या अपना ही रिश्तेदार होता है

तू इन बूढ़े दरख्तों की हवाएँ साथ रख लेना
सफ़र में काम आयेंगी दुआएँ साथ रख लेना

चोट मौसम ने दी कुछ इस तरह गहरी हमको।
अब तो हर सुबह भी लगती है दुपहरी हमको।।

परिन्दों के यहाँ फ़िरकापरस्ती क्यों नहीं होती
कभी मन्दिर पे जा बैठे कभी मस्जिद पे जा बैठे

किसी से अपने दिल की बात कहना तुम न भूले से
यहाँ ख़त भी ज़रा सी देर में अखबार होता है

कितने दिन ज़िन्दा रहे इसको न गिनिये साहिब
किस तरह ज़िन्दा रहे इसकी शुमारी रखिये

देख कर बच्चों का फैशन वो भी नंगा हो गया
ये इज़ाफ़ा भी हुआ इस दौर की रफ़्तार में

मेरी टाँगे मांग कर मेरे बराबर हो गये,
यानी मेरे शेर पढ कर वो भी शायर हो गये

अपनी शादी पे छपाए उसने अंग्रेज़ी में कार्ड
वो जो हिन्दी बोलता था रोज़ के व्यवहार में

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम
1:20 am

fresh ideas. ..DILLI FUNKTI....

मान्यवर  मित्रों ,

दिल से  निकले  भाव .....

दिल्ली  फुंकती .....

दिल्ली फुंकती देख तमाशा निहार रहे लोकतन्त्र धारी 
एक दूजे पर डाल समस्या निभा रहे ज़िम्मेवारी 
कब तक ऐसा  चलता  रहेगा खेल ये धुआंधारी 
कुछ  तो  हल  ढूंढो  रे  अब  तुम  कानूनधारी 
दिल्ली  फुंकती ......

कई जले और फुंकें न दिखता समाधान  ज़ारी 
अपनी ढ़फली अपना राग गा  रहे सब दरबारी 
किसी को कोई फिक्र नहीं ढूंढ़े कोई  चमत्कारी 
कानून व्यवस्था दिखा रही अपनी  ही  लाचारी 
दिल्ली  फुंकती ......

ज़िन्दगी पर ज़िन्दगी ही पड़ रही अब भारी 
अतिकुशल भी बन बैठे अब तो बिलकुल अनाड़ी 
ऐसा होता प्रतीत दर्शक  ही है असली खिलाड़ी 
अपने अपने फायदे ख़ातिर हर कोई बना व्यापारी 
दिल्ली  फुंकती .......

व्यवस्था मौन प्रक्रिया गौन शायद भारी दमनकारी 
अच्छा साबित करने  हेतू सभी बने हैं  व्यवहारी 
कठिन फैसले सर्वहिताय समाधान आमजन हो परोपकारी 
असली रंग हुये  बदरंग सबकी मतलब की य़ारी 
दिल्ली  फुंकती ......

आपका अपना ,
वीरेन्द्र  कौशल

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

10:42 am

धर्म के नाम पे दंगे फ़सादात हुए और निर्दोष निहत्थों पे जो आघात हुए - डॉ उर्मिलेश

धर्म के नाम पे दंगे फ़सादात हुए
और निर्दोष निहत्थों पे जो आघात हुए
उनमें हिन्दू न मुसलमान मरा है यारों
मेरा कहना है कि इंसान मरा है यारों !

आज बिस्मिल औ’अशफाक़ की जोड़ी है कहाँ
उन शहीदों की देश भक्ति निगोड़ी है कहाँ
जो हुमायूँ ने बंधाई थी वो राखी है कहाँ
पद्मावत जायसी की ,कबिरा की साखी है कहाँ

कृष्ण का भक्त वो रसखान मरा है यारों
मेरा .............................................!

आज क्यों लाज से बेताज हुआ ताज महल
रो उठीं तुलसी की चौपाइयाँ, ग़ालिब की ग़ज़ल
होली में,ईद में मिलते हुए गले रोये
आज अकबर औ बीरबल के चुटकुले रोये

दीन ए इलाही का वो ईमान मरा है यारों
मेरा..............................................!

राम में और मुहम्मद में अदावत कब थी
फ़ातिमा बीबी की दुर्गा से ख़िलाफ़त कब थी
मूसा साहब को धन्वन्तरि से शिकायत कब थी
आयतों मन्त्रों ने की ऐसी शरारत कब थी

गीता कुरआन का सम्मान मरा है यारों
मेरा .............................................!

फूल तो हैं कई पर देखो चमन एक ही है
हैं सितारे कई पर देखो गगन एक ही है
तन तो सबके हैं अलग किंतु ये मन एक ही है
लाशें सबकी हैं अलग किंतु कफ़न एक ही है

आज गाँधी का ये अरमान मरा है यारों
मेरा...........................................!

गर ये दंगे यूँ सताते रहे भारत भर को
कौन पूजेगा लता और रफ़ी के स्वर को
इन फ़सादों से झुका भाल है भारत माँ का
जो भी दंगों में मरा ,लाल है भारत माँ का

राम के साथ ही रहमान मरा है यारों
मेरा............................................!
#डॉउर्मिलेश

१९८० में लिखी डॉ उर्मिलेश की ये कविता आज फ़िर प्रासंगिक है !एक बार फिर हम बेरहम वक़्त के साक्षी बने हैं !

#Delhi_Roits

सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

10:52 am

धरती माँ

पूज्य हमारी धरती माता,
हम सब उसके बालक है।
कद है हमारे छोटे बड़े,
धरती माँ हमारी सहायक है।।
धन्य- धन्यहै तेरी मिट्टी,
वह मिट्टी महक रही है।
जिस पर होते है हवन यज्ञ,
वह धरती धधक रही है।।
पेड़ उगे है धरती पर, 
शोभा इसकीबढ़ाते हैं।
ड़ाली पर बैठी पंक्षी,
मीठे गीत सुनाते है।।
धरती पर कोई कुछ भी करे,
पर धरती माँ कुछ न कहती है।
उनकी यह महीमा अपार है,
सब कुछ सदा सहती है।।
धरती पर आती है ऋतुएं प्यारी,
कितनी शोभा लगती है न्यारी।
फल और फूलो से लदी हुई है,
कैसी सुन्दर धरती प्यारी।।
धरती पर है मोक्ष मार्ग,
और यहीं पर है भक्ती की धारा।
मधुर जन्म के गीत है,
और यही है संस्कार हमारा।।
सुनदर महलो से सजी हुई है,
यह है उनकी माया।
कितनी अद्भुत लगती है,
और कितनी सुन्दर है काया।।
राम ने अपने बाणो से ,
रावण को है मारा।
कृष्ण ने जन्म लिया है,
और खेल-खेल में है कंस मरा।।

नाम -अशोक कुमार (पत्रकार)
पिता का नाम -राजा राम 
जन्म तिथि -27/05/1984
योग्यता-स्नातक 
पता -
ग्राम-कोटखेरवा 
पोस्ट-कोटवारा 
जिला -लखीमपुर (खीरी )
पिन कोड-262802
मोबाइल न०-9634819813
3:09 am

मेरे दिल से निकले ताज़ समान बेटी के लिए


लो क्ल लो बात ....

मेरे  दिल से  निकले  ताज़ समान  बेटी  के लिए ...

अज़ब  इत्तफाक ......

हमनें  अपनी 
इस  छोटी सी   
हसींन   ज़िन्दगी  में 
अज़ब इत्तफाक  देखा है    
उन  भावनायों   को भी   
ज़ांचा   परखा  और  देखा   है 
जो  ताउम्र  करते   रहे 
घर में  बेटों  के 
ज़रूरी   होने   की 
पैरवी   और  वकालत 
बेटी  की  विदाई  के  समय 
अकेले में   उन्हें भी 
सुबकियां  लेते  नहीं 
दहाड़ें  मार कर  
रोते  देखा है   
अज़ब  इत्तफाक. ...

आपका अपना ,
वीरेन्द्र  कौशल
9896022248

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

4:13 pm

राहत_इन्दौरी साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...प्रस्तुति #डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। हमें खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज हाज़िर है #राहत_इन्दौरी साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
डॉ राहत इंदौरी साहब का उर्दू-अदब में खास मक़ाम है। उनकी ज़्यादातर शायरी आसान हिंदुस्तानी-ज़बान में है।
उनका शे'र कहने का अपना एक अलग अंदाज़ है जिसे दुनिया भर में पसन्द किया जाता है। उनकी शायरी में दौरे-हाज़िर की तस्वीर भी है और मुहब्बत की रवायत भी।
यही कारण है कि उनके शे'र हर प्रोफेशन का व्यक्ति कोड करता है।
तो आइये समाआत फ़रमाते हैं डॉ राहत इन्दौरी साहब की हिंदुस्तानी  ग़ज़लें ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए

मौत का ज़हर है फ़ज़ाओं में
अब कहाँ जा के साँस ली जाए

बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ
ये नदी कैसे पार की जाए

अगले वक़्तों के ज़ख़्म भरने लगे
आज फिर कोई भूल की जाए

लफ़्ज़ धरती पे सर पटकते हैं
गुम्बदों में सदा न दी जाए

/ 02 /

हौसले ज़िंदगी के देखते हैं
चलिए कुछ रोज़ जी के देखते हैं

नींद पिछली सदी की ज़ख़्मी है
ख़्वाब अगली सदी के देखते हैं

रोज़ हम इक अँधेरी धुँद के पार
क़ाफ़िले रौशनी के देखते हैं

धूप इतनी कराहती क्यूँ है
छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं

टुकटुकी बाँध ली है आँखों ने
रास्ते वापसी के देखते हैं

/ 03 /

पुराने शहरों के मंज़र निकलने लगते हैं
ज़मीं जहाँ भी खुले घर निकलने लगते हैं

मैं खोलता हूँ सदफ़ मोतियों के चक्कर में
मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते हैं

हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मंज़र
सितारे धूप पहनकर निकलने लगते हैं

बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला
क़रीबी दोस्त भी बचकर निकलने लगते हैं

बुलन्दियों का तसव्वुर भी ख़ूब होता है
कभी कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं

#चन्द_शेर_समआत_फ़रमाइये


न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा

तूफ़ानों से आँख मिलाओ सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो तैर के दरिया पार करो

जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो दे

ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था

मेरा नसीब, मेरे हाथ कट गए वरना
मैं तेरी माँग में सिन्दूर भरने वाला था

दो गज सही ये मेरी मिलकियत तो हैं
ऐ मौत तूने मुझे ज़मीदार कर दिया

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

नींद से मेरा ताल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूं हैं

एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे
वो अलग हट गया आँधी को इशारा कर के

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो

अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

2:00 am

मेरी जान कितना सताने लगी है.....


मेरी  जान  कितना  सताने  लगी  है..... 
वो सपनों में फिर से हां आने लगी है.....

निगाहों  में मेरी थी तस्वीर जिसकी...
वहीं आंख फिर क्यों सजाने लगी है.....

खयालों  की  दुनिया  में  डूबे हैं ऐसे...
वहीं  रात  दिन  फिर  चुराने लगी है.....

ये  बातें  वही हैं रुकी जो अधर पर..
सभी  सामने  आज  आने  लगी  है.....

मुलाकात होती कभी जो सड़क पर...
हमें  देख  कर  मुस्कुराने   लगी  है.....

जरा  यार  देखो हुआ क्या जुबां को... 
मोहब्बत  के गीतों को गाने लगी है.....

कहीं मैं चुरा लूँ न उसके ये दिल को...
यही  सोचकर  दिल  छुपाने लगी है..... 

कभी  हमने  पूछा  मुहब्बत है हमसे...
दबे  पांव  शरमा  के  जाने  लगी  है.....

उन्हें  प्यार  हमसे  तो  होने लगा है...
सहेली  से  अपनी  जताने  लगी है.....

वो आए हैं छत पे तो मिलने को हमसे...
मगर   क्यूं   दुपट्टा   सुखाने  लगी  है.....

ये  डर  है  कोई  देख  लेगा  हमें  तो...
वो छुप छुप के नजरें मिलाने लगी है.....

कहा  उसने  हमसे मुहब्बत है तुमसे...
वो  चाहते  को अपनी बताने लगी है.... 

अभी तक तो किस्सा था सपनों का लेकिन... 
हकीकत  में  पारस  को पाने लगी है......


रचनाकार - पारस गुप्ता
                   (शायर दिलसे)
1:59 am

गुल में पुष्प खिलाकर देखो.....

गुल  में  पुष्प  खिलाकर देखो.....
बुझता  द्वीप   बचाकर   देखो.....

कब   से   अंधेरा   कायम   है...
तुम  एक  द्वीप जलाकर देखो.....

कितना  अच्छा जीवन लगता...
तम को मन से मिटाकर देखो.....

तुम डूब न जाओ कहना फिर...
हमसे  आंख  मिलाकर  देखो.....

प्यार  मोहब्बत  की दुनिया हैं...
नफ़रत  दिल से हटाकर देखो.....

प्यार  भरा  हैं  हममें  कितना... 
हमसे  दिल को लगाकर देखो.....

दिल में जो , रहता है हर पल...
घर पर उसको बुलाकर देखो.....

महफ़िल  में  शायर  आते  हैैं...
महफ़िल इश्क़ सजाकर देखो.....


#पारस_शायर
1:57 am

ज़िन्दगी का मजा नहीं खोना है....

मुक्तक

ज़िन्दगी का मजा नहीं खोना है....
दिल्लगी इक सजा नहीं रोना है....

कैसा  है  ये  नशा मोहब्बत का...
आपसे  अब जुदा नहीं होना है....


#पारस_शायर
1:53 am

नारी-पुरूष मैत्री संदेह के घेरे में है

_*नारी-पुरूष मैत्री संदेह के घेरे में है*_

एक बार की बात है एक शहर में नवविवाहित जोड़ा(दीपक और रेनू) रहने आया । 
उन्होंने प्रेम विवाह किया था परिवार की सहमति से ।
नया शहर, नए लोग, नया परिवेश तो दीपक की दोस्ती उसके हम उम्र व्यक्ति(मनोज) से हुई जो उसके पड़ोस में रहता था जिसकी पत्नी का नाम शालिनी था। शालिनी बहुत ही साधारण महिला थी..

कुछ सालों तक सब कुछ ठीक रहा मनोज का दीपक के घर और दीपक का मनोज के घर आना जाना होता था । 
मनोज थोड़ा अंदर से मनचले स्वभाव का था ये बात शालिनी को पता नहीं थी.... तो वो रेनू के करीब आने की हर तरह की कोशिश करता था ।
मनोज का करीब आना रेनू को अच्छा लगने लगा क्योंकि मनोज काफी चुपड़ी चुपड़ी बातें करता था। रेनू की खूबसूरती को शायरियों, कविता में ढालता था ।
मनोज का विपरीत था दीपक, उसे शायरियों का शौक नहीं था।

मनोज का दीपक के घर आना जाना बहुत हो गया था क्योंकि रेनू मनोज की दोस्ती बहुत गहरी हो चुकी थी। 

मनोज भलीभांती जानता था कि वो जो कर रहा है सब कुछ अनुचित है मगर उसने ठान लिया था कि अब रेनू के साथ अपने अनुचित सम्बन्ध बनाएगा।

उसने रेनू के सामने अपने झूठे प्यार का इकरार किया और बहलाने की कोशिश की तो रेनू सहम गई क्योंकि उसने दीपक के सिवा कभी किसी को दिल में जगह नहीं दी रेनू मनोज के साथ बस मैत्री सम्बन्ध तक रहना चाहती थी जिससे उसके और दीपक के रिश्तें पर कोई आँच न आए.....

अब तक इस बात का दीपक को कुछ भी पता नहीं था। मनोज के बार बार दबाव बनाने पर रेनू ने डरते डरते सारी बात दीपक को बताई।

और दीपक ने योजना के तहत पुलिस की सहायता लेकर मनोज को पुलिस पकड़वा दिया और इस प्रकार रेनू ने खुदको और अपने रिश्ते को बचा लिया।

अक्सर बहुत बार बहुत सी महिलाएं ऐसी मैत्री सम्बन्ध बनाकर रेनू जैसा फैसला न लेकर उनसे गलत सम्बन्ध बना लेती है और अपनी जिंदगी बर्बाद कर लेती है। *कुछ इस वजह से भी नारी-पुरूष मैत्री संदेह के घेरे में है......*


#पारस_शायर

रविवार, 16 फ़रवरी 2020

4:01 pm

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शनिवार, 15 फ़रवरी 2020

6:54 pm

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गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

5:31 pm

जीवन की बहती नदिया के

जीवन की बहती नदिया के
पाट दिखाई दिए अलग से.
बचपन और जवानी के दो
घाट दिखाई दिए अलग से.
कैसी आँखें चकाचौंध थीं
हाथों में थर-थर कम्पन था.
धड़कन धाड़-धाड़ चलती थी,
घबराया सा अल्हड़पन था.
भरे जेठ की दोपहरी में,
लू भी शीतलहर बन गुज़री.
बेचैनी की हर कर्कश ध्वनि,
सन्नाटा बनकर आ पसरी.
एक छुअन से मौन हो गए मन के सभी मुखर सम्वाद.
वो जो इक अहसास रहा था, हुआ न उसके बाद.

अब भी सिहरन भर देती है पहले चुम्बन वाली याद.

कवि आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ.

4:52 am

मैं अपने देश से अथाह प्यार करती हूँ। मेरा प्रेम पत्र मेरे देश तुम्हे पता है , - इन्दु शर्मा

मैं अपने देश से अथाह प्यार करती हूँ। मेरा प्रेम पत्र मेरे देश
तुम्हे पता है ,
        मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूँ।
सायद ही कोई करता हो।   सच कहूँ
आज मुझे तुम्हारी बहुत याद आ रही
है।जानते होजब तुम्हे छूकर कोई *गद्दार* 
गैर मुल्क  के नारे लगाता है, तो  मुझे
बहुत तकलीफ होती है, मेरी आत्मा
तड़प उठती है मन करता है उसका
मुँह नोच डालू।  मैने सुना आजकल
तुम्हे मिटाने की साजिश चल रही है।
देश द्रोहियों से जरा सम्भल के रहना।
मैने अपने कानो से सुना था,
गद्दार तुम्हारे टुकड़े टुकड़े करने की बात कर
रहे थे। पर मेरा प्यार हमेशा
तुम्हारी कवच बन कर रक्षा करेगा।
तुम्हारे चाहने वालों की कमी नही है ।
तुमसे ही तो हमारा  वजूद है। हर
जनम मैं तुम्हें ही वरण करूँ
यही मेरे दिल की चाहत है।
खैर छोड़ो इन बातो को आजकल
तुम्हारे सासों की महक मुझे महकाने लगी है।
जब तुम्हे छूकर हवा आती है
तो केशर की खुशबू इस कदर बिखर जाती है
मेरा तनमन सब महक उठता है।
तुमसे प्यार जो करती हूँ । 
कभी कभी सोचती हूँ
काश मैं इन्दू  न होकर तिरंगा होती,
तो हरपल तुम्हारे सीने से लगी रहती,
तुम्हारे प्रेम का प्रतीक बन कर।
सच कहूँ तुम बस तुम हो तुम्हारे जैसा और
कोई नही हो सकता ।
इसी लिये तो मैं तुम्हें इतना प्यार करती है। 🙏


इन्दू शर्मा "शचि"
तिनसुकिया असम

बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

8:49 pm

शायद यही प्यार है

शायद यही प्यार है

पहली नजर में हुआ
तुमसे पहला प्यार
बैचन सी रहती निगाहें
करती तेरा इंतजार
शायद यही प्यार है।

फूलों का खिलना
भँवरों का आगाज
झीनी-झीनी खुशबू
मन को लुभाती है
शायद यही प्यार है।

वो कसमे वो वादे
वादियों में मिलना
प्यार का इजहार
खूबसूरत एहसास
शायद यही प्यार है।

प्यारा सा सफर
वो दीवानापन
फिज़ाओ को मोहब्बत
के रंग में रंगना
शायद यही प्यार है।

दो दिलों का मिलना
मन मयूर नृत्य करना
लाख बंदिशें मगर
छुप-छुप कर मिलना
शायद यही प्यार है।

सुमन अग्रवाल "सागरिका"
       आगरा

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

4:30 pm

कुँअर_बेचैन जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। हमें खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज लेकर आये हैं #कुँअर_बेचैन जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
डॉ बेचैन मूलतः हिन्दी के कवि हैं और आजकल ग़ाज़ियाबाद में रहते हैं। यूँ तो उन्हें एक गीतकर के रूप में सारी दुनिया जानती है लेकिन उनकी हिन्दुस्तानी-ग़ज़लें भी खासी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपनी गज़लों में नई सोच के साथ नये प्रतीकों का प्रयोग करने में कभी संकोच नहीं किया।
 ...तो आइये पढ़ते हैं उनकी हिन्दुस्तानी-ज़बान वाली शायरी ....

#ग़ज़लें

/ 01 /

औरों के भी ग़म में ज़रा रो लूँ तो सुबह हो
दामन पे लगे दाग़ों को धो लूँ तो सुबह हो

कुछ दिन से मेरे दिल में नई चाह जगी है
सर रख के तेरी गोद में सो लूँ तो सुबह हो

पर बाँध के बैठा हूँ नशेमन में अभी तक
आँखों के साथ पंख भी खोलूँ तो सुबह हो

लफ़्ज़ों में छुपा रहता है इक नूर का आलम
यह सोच के हर लफ़्ज़ को बोलूँ तो सुबह हो

जो दिल के समुन्दर में है अंधियार की कश्ती
अंधियार की कश्ती को डुबो लूँ तो सुबह हो

खुश्बू की तरह रहती है जो जिस्म के भीतर
उस गन्ध को साँसों में समो लूँ तो सुबह हो

दुनिया में मुहब्बत-सा 'कुँअर' कुछ भी नहीं है
हर दिल में इसी रंग को घोलूँ तो सुबह हो

/ 02 /

हम कहाँ रुस्वा हुए रुसवाइयों को क्या ख़बर
डूबकर उबरे न क्यूँ गहराइयों को क्या ख़बर

ज़ख़्म क्यों गहरे हुए होते रहे होते गए
जिस्म से बिछुड़ी हुई परछाइयों को क्या ख़बर

क्यों तड़पती ही रहीं दिल में हमारे बिजलियाँ
क्यों ये दिल बादल बना अंगड़ाइयों को क्या ख़बर

कौन सी पागल धुनें पागल बनातीं हैं हमें
होंठ से लिपटी हुई शहनाइयों को क्या ख़बर

किस क़दर तन्हा हुए हम शहर की इस भीड़ में
यह भटकती भीड़ की तन्हाइयों को क्या ख़बर

कब कहाँ घायल हुईं पागल नदी की उँगलियाँ
बर्फ़ में ठहरी हुई ऊँचाइयों को क्या ख़बर

क्यों पुराना दर्द उठ्ठा है किसी दिल में कुँअर
यह ग़ज़ल गाती हुई पुरवाइयों को क्या ख़बर

/ 03 /

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया

जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया

सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया

आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया

आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया

अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया

ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया

अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ जाने का शुक्रिया

#चन्द_शेर_समात_फ़रमाइये

दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना

ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल

तुम जिन को कह रहे हो मिरे क़दमों के निशाँ
वो सब तो मेरे पाँव के छालों के दाग़ हैं

हो के मायूस न यूँ शाम से ढलते रहिए
ज़िंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए

इस वक़्त अपने तेवर पूरे शबाब पर हैं
सारे जहाँ से कह दो हम इंक़लाब पर हैं

कोई नहीं है देखने वाला तो क्या हुआ
तेरी तरफ़ नहीं है उजाला तो क्या हुआ

उस ने फेंका मुझ पे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊँचा और ऊँचा और ऊँचा हो गया

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम
4:28 pm

मुनव्वर_राना साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। हमें खुशी है कि ये कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज पेश है #मुनव्वर_राना साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
#राना साहब बेशक उर्दू अदब का बेशक़ीमती नगीना हैं। लेकिन उस नगीने की चमक में हिन्दुस्तानी ज़बान की झिलमिल है।
यही कारण है कि उनकी शायरी दुनिया भर के लोगों के दिलों में मुनव्वर (रोशन) है।
राना साहब मानवीय-संवेदनाओं के शायर हैं, उनके यहाँ जज़्बातों का जो व्यवहार है वह कहीं और नहीं मिलता।
' माँ ' की ममता को जिस तरह राना साहब नें व्यक्त किया वह अकल्पनीय है ....

#माँ_पर_उनके_चन्द_मशूहर_शेर_पढ़िये

किसी को घर मिला, हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना

लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती

जब तक रहा हूँ धूप में चादर बना रहा
मैं अपनी माँ का आखिरी ज़ेवर बना रहा

ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ

हादसों की गर्द से ख़ुद को बचाने के लिए
माँ ! हम अपने साथ बस तेरी दुआ ले जायेंगे

ख़ुद को इस भीड़ में तन्हा नहीं होने देंगे
माँ तुझे हम अभी बूढ़ा नहीं होने देंगे

अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है

झुक के मिलते हैं बुजुर्गों से हमारे बच्चे
फूल पर बाग की मिट्टी का असर होता है

#ग़ज़लें

/ 01 /

मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता
अब इस से ज़ियादा मैं तिरा हो नहीं सकता

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता

बस तू मिरी आवाज़ से आवाज़ मिला दे
फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता

ऐ मौत मुझे तू ने मुसीबत से निकाला
सय्याद समझता था रिहा हो नहीं सकता

पेशानी को सज्दे भी अता कर मिरे मौला
आँखों से तो ये क़र्ज़ अदा हो नहीं सकता

/ 02/

भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है
मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है

अगर सोने के पिंजड़े में भी रहता है तो क़ैदी है
परिंदा तो वही होता है जो आज़ाद रहता है

चमन में घूमने फिरने के कुछ आदाब होते हैं
उधर हरगिज़ नहीं जाना उधर सय्याद रहता है

लिपट जाती है सारे रास्तों की याद बचपन में
जिधर से भी गुज़रता हूँ मैं रस्ता याद रहता है

हमें भी अपने अच्छे दिन अभी तक याद हैं 'राना'
हर इक इंसान को अपना ज़माना याद रहता है

/ 03 /

अलमारी से ख़त उस के पुराने निकल आए
फिर से मिरे चेहरे पे ये दाने निकल आए

माँ बैठ के तकती थी जहाँ से मिरा रस्ता
मिट्टी के हटाते ही ख़ज़ाने निकल आए

मुमकिन है हमें गाँव भी पहचान न पाए
बचपन में ही हम घर से कमाने निकल आए

ऐ रेत के ज़र्रे तिरा एहसान बहुत है
आँखों को भिगोने के बहाने निकल आए

अब तेरे बुलाने से भी हम आ नहीं सकते
हम तुझ से बहुत आगे ज़माने निकल आए

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम
4:27 pm

गोपालदास_नीरज जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज लेकर आये हैं #गोपालदास_नीरज जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
नीरज जी का जन्म 1925 में अलीगढ़ में हुआ था और 92 वर्ष की अवस्था में 2018 में, वे संसार से विदा हो गये।
नीरज जी को एक गीतकार के रूप में खासी ख्याति मिली, लेकिन वे एक परिपक्व ग़ज़लकार भी थे। उनकी  कुछ ग़ज़लें जहाँ ख़ालिस उर्दू में हैं तो कुछ शुद्ध हिंदी में हैं।
लेकिन हम खासतौर से सिर्फ़ #हिन्दुस्तानी_ज़बान वाली कुछ ग़ज़लें और कुछ शे'र चुन कर लाये हैं ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

ख़ुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की
खिड़की खुली है फिर कोई उन के मकान की

हारे हुए परिंद ज़रा उड़ के देख तू
आ जाएगी ज़मीन पे छत आसमान की

ज्यूँ लूट लें कहार ही दुल्हन की पालकी
हालत यही है आज कल हिन्दोस्तान की

'नीरज' से बढ़ के और धनी कौन है यहाँ
उस के हृदय में पीर है सारे जहान की

/ 02 /

जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला
मेरे स्वागत को हर एक जेब से ख़ंजर निकला

डूब कर जिसमे उबर पाया न मैं जीवन भर,
एक आँसू का वो कतरा तो समंदर निकला

मेरे होठों पे दुआ उसकी ज़ुबाँ पे ग़ाली
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला

ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला

रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिसने खाई,
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला ।

/ 03 /

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए।
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।

जिसकी ख़ुशबू से महक जाय पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सिम्त खिलाया जाए

प्यार का ख़ून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए।

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए

जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आँसु तेरी पलकों से उठाया जाए

/ 04 /

अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई ।
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई ।

आप मत पूछिये क्या हम पे सफ़र में गुज़री
था लुटेरों का जहाँ गाँव वहीं रात हुई ।

ज़िंदगी भर तो हुई गुफ़्तुगू ग़ैरों से मगर
आज तक हमसे हमारी न मुलाकात हुई

मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है
एक क़ातिल से तभी मेरी मुलाक़ात हुई

#चन्द_शेर_और_समात_फ़रमाइये ...

हम तिरी चाह में ऐ यार वहाँ तक पहुँचे
होश ये भी न जहाँ हैं कि कहाँ तक पहुँचे


तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा ।
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।


एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द ज़बाँ,
कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे


इतने मसरूफ़ थे हम जाने की तैयारी में,
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था।


अब दोस्त मैं कहूं या उनको कहूं मैं दुश्मन
जो मुस्कुरा रहे हैं,खंजर छुपा के अपने पीछे


है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए


जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा


जिस में मज़हब के हर इक रोग का लिक्खा है इलाज
वो किताब हम ने किसी रिंद के घर देखी है


उस को क्या ख़ाक शराबों में मज़ा आएगा
जिस ने इक बार भी वो शोख़ नज़र देखी है


बड़ा न छोटा कोई, फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक-सा कफ़न देखा

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

4:25 pm

वशीर_बद्र साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। खुशी है कि ये कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
इस बार पढ़िये #वशीर_बद्र साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
पदमश्री डॉ बद्र साहब की ग़ज़लें सर्दी में खिली गुनगुनी धूप की तरह हैं जो सबको सुकून देतीं हैं। उनके शे'र किसी लिट्रेरी सोसाइटी के ड्राइंग-रूम की दीवार पर लिखे मिलते हैं तो कभी किसी रिक्शे के पीछे लिखे मिलते हैं तो कभी किसी जलसे में लोग बोलते दिख जाते हैं।
बद्र साहब का यही आम हिन्दुस्तानी ज़बान और नये ख्याल वाला अन्दाज़ उन्हें दुनिया भर में अपने दौर का सबसे कामयाब शायर बनाता है।
आज आप उनको पढ़ते-पढ़ते, उनकी सेहत के लिए दुआ  करना न भूलियेगा, क्योंकि वे आजकल गम्भीर बीमारी से जूझ रहे हैं। खुदा उन्हें शिफ़ा अता करे ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिला, दरिया नहीं रहता

हजारों शेर मेरे सो गये कागज की कब्रों में
अजब मां हूं कोई बच्चा मेरा ज़िन्दा नहीं रहता

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नये अन्दाज वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता

मोहब्बत एक खुशबू है, हमेशा साथ रहती है
कोई इन्सान तन्हाई में भी कभी तन्हा नहीं रहता

कोई बादल हरे मौसम का फ़िर ऐलान करता है
ख़िज़ा के बाग में जब एक भी पत्ता नहीं रहता

/ 02 /

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा

कितनी सच्चाई से मुझ से ज़िन्दगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा, तो कोई दूसरा हो जाएगा

मैं ख़ुदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तो
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा

सब उसी के हैं हवा, ख़ुश्बू, ज़मीनो-आसमाँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा

/ 03 /

मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो

इक टहनी पर चाँद टिका था
मैं ये समझा तुम बैठे हो

उजले-उजले फूल खिले थे
बिल्कुल जैसे तुम हँसते हो

मुझ को शाम बता देती है
तुम कैसे कपड़े पहने हो

तुम तन्हा दुनिया से लड़ोगे
बच्चों सी बातें करते हो

#चन्द_शेर_और_देखिये

कुछ को मजबूरियाँ रहीं होंगी
यूँ कोई बेबफा नहीं होता


उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये


दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिन्दा न हों


जिस दिन से चला हूं मेरी मंज़िल पे नज़र है
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा


शौहरत की बुलन्दी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पर बैठे हो, वो टूट भी सकती है


लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में


मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला


उसे किसी की मुहब्बत का एतिबार नहीं
उसे ज़माने ने शायद बहुत सताया है


गुलाबों की तरह शबनम में अपना दिल भिगोते हैं
मुहब्बत करने वाले ख़ूबसूरत लोग होते हैं


चमकती है कहीं सदियों में आंसुओं से ज़मीं
ग़ज़ल के शेर कहां रोज़-रोज़ होते हैं


अबके आंसू आंखों से दिल में उतरे
रुख़ बदला दरिया ने कैसा बहने का


ज़हीन सांप सदा आस्तीन में रहते हैं
ज़बां से कहते हैं दिल से मुआफ़ करते नहीं


सात सन्दूकों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें
आज इन्सां को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत


खुले से लॉन में सब लोग बैठें चाय पियें
दुआ करो कि ख़ुदा हमको आदमी कर दे


लहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुशबू अज़ान दे
जी चाहता है मैं तेरी आवाज़ चूम लूं


इतनी मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे


इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया
ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे


मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत संवरती है
मैं दुश्मनों का बड़ा एहतेराम करता हूं


सियासत की अपनी अलग इक ज़बाँ है
लिखा हो जो इक़रार, इनकार पढ़ना

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

रविवार, 2 फ़रवरी 2020

6:04 pm

हे बसन्त, क्या तुम बसन्त वह हो जिसके रंग में रंगना - आदित्य तोमर

हे बसन्त, क्या तुम बसन्त
वह हो जिसके रंग में रंगना
चाहा था बिस्मिल ने चोला 
जिसकी रंगत पाने के हित
अशफ़ाक़ वीर का मन डोला 
जिसकी पग बांध अभय जग में
पग-पग पर भगत सिंह बोला
डग-डग पर चाहे मौत बिछे
रग-रग से फूट उठे शोला

लेकिन भारती भवानी की
बेड़ियां काटकर जाना है
हंटरों-लाठियों का भय क्या
छाती पर गोली खाना है
फंदा फाँसी का चूम-चूम
हंसते हंसते मर जाना है

उन्हें तो एक पूरी नस्ल को तैयार करना था.
भले क़ुर्बान ख़ुद को इसलिए सौ बार करना था.
थी इतनी आख़िरी ख़्वाहिश, अगर ये हाथ खुल जाते,
महज़ इक बार फंदे से लिपटकर प्यार करना था.

हे बसन्त ! क्या तुम बसन्त
वह हो जिसकी क़समें खाकर
आज़ाद अजस्र दहाड़ा था
रविरश्मिरथी का ले प्रताप
पश्चिमी मेघ को फाड़ा था
भारत भू का बन स्वाभिमान
ध्वज बलिदानों का गाड़ा था
खांड़ा ले-लेकर हाथों में
बेड़ी को खींच उखाड़ा था

सुखदेव, राजगुरु, सान्याल,
उस रासबिहारी के मन में
राजेन्द्र लाहिड़ी, बटुकेश्वर,
कमज़ोर जतिन के भी तन में,
तुमने ही आग भरी थी क्या
उन क्रांतिसुतों के जीवन में,

केसरिया बाना, धानी चूनर, बासंती मन ले,
कैसी होली खेल गए वे बलिदानी जीवन ले,
कैसे भट परवाने शम्मए-आज़ादी पर जलकर,
गिरे दौड़कर लपटों में वे हंसकर उछल-उछलकर,
...... ...... ..... ..... ..... .... To be continued.
-

आदित्य तोमर
वज़ीरगंज, बदायूँ (उ.प्र.)
मोब. 9368656307

शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

2:25 am

प्यासों को भटकाते दर दर प्यास नहीं तो देते सागर

रचना प्रकाशन हेतु प्रमाण पत्र
सेवा में,
     सम्पादक महोदय
     हिंदी साहित्य वैभव पत्रिका
श्रीमान जी,
      सविनय निवेदन यह है कि मेरी यह रचना(ग़ज़ल) नितांत मौलिक,अप्रकाशित और अप्रसारित है और मैं इसके प्रकाशन का अधिकार हिंदी साहित्य वैभव पत्रिका को देता हूँ!आशा है मेरी इस रचना का यथासम्भव उपयोग आपकी पत्रिका में हो सकेगा!
           धन्यवाद
          भवदीय
         बलजीत सिंह बेनाम
        103/19 पुरानी कचहरी कॉलोनी
        हाँसी(हिसार)
        मोबाईल:9996266210
ग़ज़ल
प्यासों को भटकाते दर दर
प्यास नहीं तो देते सागर
मैं घुट घुट कर जब जीता था
हाल किसी ने पूछा आकर
जिस भी धरती में कुछ बोया
वो ही धरती निकली बंजर
कोई तो खुश है दुःख देकर
कोई खुश सबके दुःख हर कर
चैन मिलेगा इससे पहले
अश्कों का तू जुर्माना भर

विशिष्ट पोस्ट

सूचना :- रचनायें आमंत्रित हैं

प्रिय साहित्यकार मित्रों , आप अपनी रचनाएँ हमारे व्हाट्सएप नंबर 9627193400 पर न भेजकर ईमेल- Aksbadauni@gmail.com पर  भेजें.