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गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

4:50 pm

बटेसर की चक्की - आशा शैली जी

‘‘कहाँ उतरिएगा? टिकट...? कण्डेक्टर के बात पूरी करने से पहले ही
सुमित्रा ने एक रुपये का सिक्का उसकी ओर बढ़ा दिया।’’
‘‘मुझे पुलिया के पास उतार देना, चक्की पर।’’
‘‘वो...ऽ...ऽ...? अरे बहन जी, बटेसर की चक्की कहो न? एक रुपया और दो।’’
सुमित्रा दो साल बाद इधर आई थी। माँ के खत से उसे यह भी पता चला था कि
चक्की बिक चुकी है इसीलिए उसने पुलिया वाली चक्की कहा था। यूँ भी लम्बे
सफ़र के बाद उसका सिर घूम सा रहा था पर यहाँ आ कर उसे लोकल बस तो लेनी ही
थी। घर तक जाने का और तो कोई साधन ही नहीं था, न कोई रिक्शा न थ्री
व्हीलर न कोई और साधन। मजबूरी में लोकल बस ही लेनी पड़ती थी। दुनिया बदल
गई पर इस कस्बे के लोग अभी तक वहीं के वहीं पड़े हैं। इतनी ही गनीमत थी कि
सड़क पक्की हो गई थी।
‘हूँ! तो किराया भी दुगना हो गया है।’ सोचा उसने। फिर पर्स से चुपके से
निकाल कर एक रुपया और कण्डेक्टर को दे दिया।
माँ का खत मिलते ही वह अम्बाला से चल पड़ी थी। अम्बाला उसका बड़ा बेटा तरुण
बैंक में कार्यरत था।
पिता की मृत्यु के बाद जाने क्यों सुमित्रा ने इस छोटे से कस्बे के कई
चक्कर लगा लिये थे। चक्की की चर्चा पर उसने माँ को लिखा भी था कि
उन्हांने गलत कर दिया है’’ किन्तु माँ भी विवश थी सो....।
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बस एक झटके से रुकी। सुमित्रा विचारों में इतना खो गई थी कि उसे कण्डक्टर
की सीटी भी सुनाई न दी, चक्की आ गई।
बस को रुकता देख दोनों भाभियाँ बाहर निकल आईं। उन्होंने बस से सुमित्रा
को उतरते देख लिया था। घर के सामने ही खुले आँगन में एक ओर बान की चारपाई
पर बैठी माँ ने हाथ में पकड़ी गोभी और छुरी एक तरफ़ रख दी और हाथ से नाक पर
झुक आई ऐनक को सही किया। फिर तीनों ही आगे बढ़ आइंर्। भाभियों ने पाँव
छुये, माँ गले मिली और फिर साथ ही बिछी बान की दूसरी खटिया पर सब जम गये।
चाय आदि के दौर से निबट कर भाभियाँ अपने-अपने काम में लग गईं तो सुमित्रा
टहलते-टहलते माँ को साथ लेकर चक्की की ओर जा निकली।
‘‘माँ! आखिर तुमने चक्की बेची क्यों? यही तो तुम्हारा सहारा थी। चार पैसे
हाथ में रहने पर सब ही तो तुम्हें पूछते।’’
‘‘ठीक कहती हो बेटी, लेकिन एक बात भूलती हो।’’ सुमित्रा प्रश्नवाचक
दृष्टि से माँ को देखने लगी।
‘‘उमर!’’ माँ का स्वर बेहद ठंडा था।’’ जब उमर बढ़ जाए तो सहारे की
आवश्यकता होती है। पैसा दे कर मर्द तो होटल में खा सकता है, कपड़े धोबी से
धुला सकता है, लेकिन औरत वह भी नहीं कर सकती, उसे तो उसके लिए भी सहारा
चाहिए।’’ माँ ने ठण्डी साँस ली, ‘‘वक्त ही ऐसा आ गया है? एक बेटा चाहता
था कि चक्की उसे दे दूँ, तो दूसरा चाहता उसे, तंग आकर बेच ही दी। रोज-रोज
का झगड़ा भी तो नहीं न झेला जा सकता। झगड़े से भी तंग आ चुकी थी।
‘‘और पैसा.........?
‘‘वह बाँट दिया दोनों को।’’
‘‘फिर....अब क्या परेशानी है?’’
‘‘फिर? परेशानी यह है कि अब इनके पास रोटी नहीं है मेरे लिए। कहते हैं
पैसे तो खतम हो गये। छोटा कहता है बड़े के पास जाकर रहूँ और बड़ा कहता है,
छोटे के पास।’’
‘‘तुम क्या चाहती हो?’’
‘‘मैं क्या चाहूँगी अब? अब तो दो रोटी आराम से मिल जाएँ वही बहुत है।’’
‘‘हूँ! चक्की किसे बेची है?’’
‘‘तुम नहीं जानती उसे, नया है शहर में वह।’’
बातों ही बातों में दोनों को पता ही नहीं चला कब वे चक्की के सामने पहुच गई थीं।
‘‘देखो माँ? पिता जी कितने भले लगते थे, यहाँ बैठे हुए।’’ अनायास ही
सुमित्रा की नज़र उस ओर उठी जहाँ एक बड़े से मूढ़े पर उसके पिता बटेसर बैठा
करते थे। आज उस मूढ़े पर एक मोटे से आदमी को बैठा देख कर सुमित्रा को न
जाने क्या सूझी कि वह माँ के पुकारते रहने पर भी उधर को झपटी। तब तक उस
मोटे आदमी को भी खबर लग चुकी थी कि बटेसर सेठ की बड़ी बेटी आई है, पर उसे
यह पता नहीं था कि वह इस तरह इधर आ धमकेगी।
‘‘नमस्ते दीदी!’’ उसे देख वह एकदम हकबका कर खड़ा हो गया।
‘‘हूँ। तो तुमने खरीदी है यह चक्की क्यों?’’
‘‘जी दीदी!’’ उसे परिस्थति समझने में उलझन हो रही थी। सुमित्रा का पूरा
चेहरा सुर्ख लाल हो गया था।
‘‘सुनो! तुम्हें क्या चक्की के साथ यह मूढ़ा भी बेचा गया है?’’
‘‘नहीं तो!’’ वह हक्का-बक्का सुमित्रा का मुँह तक रहा था।
‘‘फिर हटो यहाँ से।’’ और सुमित्रा ने झपटकर मूढ़ा उठा लिया। मूढ़े को
बरामदे में रखकर वह फर्श पर बैठ गई और सिर उस पर रख कर फूट-फूट कर रो
पड़ी। रोती रही-रोती रही। दोनों भाभियाँ दूर खड़ी तमाशा देख रहीं थीं,
उन्हें निकट आने का साहस नहीं हुआ। मोटे आदमी की आँखें भी भीग गईं।
सुमित्रा को लगा जैसे उसके पिता का वात्सल्य भरा हाथ उसके सर को सहला रहा
हो। माँ ने दुपट्टे से आँखें पोंछ मोटे शीशे वाली ऐनक को फिर से आँखों पर
जमा लिया।
‘‘दीदी........,’’ सुमित्रा ने सिर उठाया तो वह पास ही खड़ा था। उसने सिर
को फिर से मूढ़े पर रख दिया, और सुबकती रही।
‘‘उठिए दीदी। अब मैं कभी इस पर नहीं बैठूँगा। मुझे आज समझ में आया, बेटी
कैसे हमेशा बेटी ही रहती है।
चुपचाप उठ कर सुमित्रा अन्दर चली गई। उसे कुछ भी कहने की हिम्मत किसी की
न थी। बस औंधी पड़ी बेटी की पीठ को उसकी माँ सहलाती रही।
रात देर तक माँ बेटी बतियाती रहीं। अधिकतर माँ ही बोल रही थी, सुमित्रा
तो बस हूँ, हाँ या एकाध छोटा सा प्रश्न दाग देती। अचानक वह बिस्तर पर उठ
बैठी।
‘‘क्यों क्या हुआ? ऐसे क्यों चौंक रही है?’’ माँ ने उसे इस तरह उठते देख
कर हैरानी से पूछा ।
‘‘माँ! इसे कितनी आमदनी हो जाती है इस चक्की से?’’
‘‘पता नहीं।’’ लग रहा था कि  माँ कुछ खीज गई थी, ‘‘अच्छा अब सो जा, सफ़र
की थकी है।’’ और माँ करबट बदल कर लेट गई। थोड़ी देर में उनकी नाक बजने
लगी, लेकिन सुमित्रा को नींद कहाँ?
जहाँ उसके पिता बटेसर मूढ़ा डालकर बैठा करते थे और जहाँ से आज वह उस मूढ़े
को उठा लाई थी। यह जगह कभी उसने माँ से अपने लिए माँगी थी लेकिन माँ ने न
सिर्फ इनकार किया वरन् उसे बुरी तरह से दुत्कार भी दिया था।
फिर न जाने कहाँ से रात के सन्नाटे में उसे अल्हड़ और खिलन्दड़ी सुमित्रा
के कहकहे सुनाई देने लगे। उसकी कमसिन पायल खनकती सुनाई देने लगी। चारपाई
से उठ कर वह खिड़की में जा खड़ी हुई।
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सुमित्रा को याद आ रहा था कि इसी कमरे में जहाँ वह आज माँ के साथ सोने का
प्रयत्न कर रही है, कभी ढोलक पर गाँव की औरतों ने सुहाग के गीत गाये थे।
सोलह वर्ष की अल्हड़ सुमित्रा के हाथों में लाल-लाल मेंहदी रचायी गई थी।
मामा ने लाल चूड़ा पहनाया था और तीखे गुलाबी रंग का गोटे वाला सूट पहने
सुमित्रा अकेले-अनाथ मुरारी के एक कमरे वाले कच्चे घर में चली गई।
मुरारी देखने में भला चंगा था। उसी कस्बे के पैट्रोल पंप पर नौकरी करता
था। कभी-कभार वह बटेसर की चक्की के लिए गैलन में दो नम्बर का डीज़ल भी
लेकर आता और तब उसे ही मुरारी को खाना देना होता था, इसीलिए मुरारी के
साथ जाना उसे बुरा नहीं लगा।
छः मास गुजरते सुमित्रा को पता भी नहीं चला। इसी बीच एक दिन मुरारी जब
शाम को घर आया तो बहुत उास था, सुमित्रा के पूछने पर उसने उसे बताया कि
‘दोपहर को जब वह खाना खाने आया था तो पम्प मालिक के आवारा बेटे ने सेफ़ से
सारा पैसा निकाल लिया और चोरी पम्प के तीन चौकीदारों के सिर लगा दी गई
है।’
रात भर दोनों एक दूसरे को दिलासा देते रहे और ईश्वर पर भरोसा रखने की बात
दोहराते रहे लेकिन ईश्वर ने साथ न दिया और मालिक ने उनकी एक न सुनी।
सुमित्रा के पास एक सोने की अँगूठी थी और दो जेवर चाँदी के क्योंकि तब
बटेसर के साथ सेठ शब्द नहीं जुड़ा था। रहा मुरारी, तो वह तो यूँ भी अनाथ
था। कुछ थोड़ा सा जोड़-तोड़ कर गुजारा चल रहा था, सो जब मालिक ने पाँच हजार
के गबन का केस बनाया तो बर्तन-भाण्डे के साथ उसका एक कमरे का कच्चा मकान
भी जब्त कर लिया। वे दोनों पहनने के कपड़े और बिस्तर लेकर बटेसर की चक्की
पर आ गए।
पैट्रोल पम्प की नौकरी में मुरारी की ड्राइवरों से दोस्ती होना एक साधारण
सी घटना थी, अपने उन्हीं ड्राइवर दोस्तों से उसने भी गाड़ी चलाने की
विद्या भी सीख ली थी, इसलिए इधर-उधर से कुछ न कुछ कमा ही लेता। गबन का
आरोप था सो नौकरी मिलने में थोड़ी कठिनाई हो रही थी फिर भी जो लोग मालिक
के आवारा बेटे को जानते थे वे मुरारी के निर्दोष होने को भी मानते थे, सो
उसे रोटी का जुगाड़ करने में अधिक कठिनाई नहीं हो रही थी। छनन...। बिल्ली
ने रसोई में कोई बर्तन गिरा दिया दिया था। सुमित्रा को लगा उसका गला सूख
रहा है, सिरहाने रखे गिलास को उठाकर एक ही साँस में सारा पानी पी गई और
फिर आकर खिड़की में खड़ी हो गई, खिड़की से अष्टमी का चाँद अपनी पूरी आभा
कमरे में बिखेर रहा था। उजली चाँदनी में चक्की का वह भाग भी दिखाई दे रहा
था जहाँ से आज वह मूढ़ा उठा लाई थी। वह दिन उसे फिर पैनी सुइयों सा छेद
गया था जब उसे इस छोटे से टुकड़े के लिए माँ ने दुत्कार दिया था।
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पिछले कई दिनों से मुरारी के पास कोई काम नहीं था। रात सुमित्रा ने विचार
किया कि कहीं से एक भैंस का प्रबन्ध किया जाए, इस पर मुरारी बोला, अपने
रहने के लिए तो यह छोटा सा कमरा है इसी में खाना, नहाना, सोना तो सब है
भैंस कहाँ बंधेगी?
‘‘क्यों? चक्की के बगल में इतनी जगह तो खाली पड़ी है।’’
‘‘अपनी माँ से पूछा है?’’ मुरारी के प्रश्न में व्यंग्य स्पष्ट था।
‘‘मैं सुबह ही पूछ लूँगी, माँ भला क्यों मना करेगी, खाली जगह के लिए?’’
और सुबह जब उसने माँ से बात की तो माँ एकदम बिफर गई, अरे......., बेटी
ब्याह कर लोग चैन की साँस लेते हैं। तू तो पहले ही भाइयों के गले पर बैठी
है उस पर अब जमीन भी माँग रही है।’’ थोड़ा दम लेकर माँ फिर बोली, ‘‘अपने
खसम से कह कर अपना प्रबन्ध करो। मैं कब तक तुम्हें घर पर बैठाकर
रखूँगी?’’ माँ के तीखे बोल सुमित्रा के कलेजे तक उतर गए थे, क्यों कहा
माँ ने ऐसा? कैसे कह दिया उसने, वह क्या भाइयों से प्यार नहीं करती?
सुमित्रा का मन खिन्न हो गया था, उस दिन सुमित्रा ने खाना भी नहीं बनाया।
रो-रोकर मुरारी से कहीं और चलने को कहा....लेकिन कहाँं? हालांकि पिता
बटेसर एक दम बेलाग रहते थे फिर भी वह माँ से डरते अवश्य थे। इसलिए मुरारी
से लगाव होते हुए भी वह कुछ नहीं बोल सके। मुरारी का तो कोई भी नहीं था
परन्तु यह भी तो सच है कि जिसका कोई नहीं होता, उसका ईश्वर होता है। यही
उक्ति मुरारी के साथ चरितार्थ हुई।
उन्हीं दिनों मुरारी का एक दोस्त, जो जगाधरी किसी सेठ के पास ड्राईवरी
करता था, घर आया हुआ था। वह मुरारी से मिलने आया तो सारी बात जानकर वह उन
दोनों को अपने साथ जगाधरी ले आया। वह जिस सेठ की कार चलाता था, उनका घर
के साथ ही सुन्दर सा बाग भी था। वहीं कुछ क्वार्टस् नौकरों के लिए भी बने
हुए थे। मुरारी का वह मित्र भी वहीं रहता था, उसने मुरारी और सुमित्रा को
अपने साथ रहने के लिए कहा। सेठ के पारिवारिक मित्र कभी-कभी उधर भी घूमने
आ निकलते। वहीं, उसी बाग में हुई सुमित्रा की मुलाकात ठकुराइन दीदी से।
उन्हें अपनी कार के लिए ड्राईवर चाहिए था। शहर के बाहर बाग में महल जैसा
मकान और ठकुराइन दीदी के साथ रहती बस एक नौकरानी। ठाकुर साहब बरसों पहले
परलोकवासी हो गये थे।  उनका इकलौता बेटा उच्च शिक्षा हेतु विदेश जा कर
वहीं का हो गया। इस अकेलेपन में सुमित्रा जैसी सलोनी शोड़षी का साथ उन्हें
भा गया।
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ठण्डी हवा के झोंके ने सुमित्रा को फिर से वर्तमान में ला पटका। मार्च की
पहली तारीखें थीं, शायद कहीं पहाड़ों पर बर्फ गिर रही थी अथवा वर्षा हुई
थी। यहाँ हिमालय की तराई से पहाड़ अधिक दूर भी नहीं थे। उसने खिड़की बन्द
कर दी और बिस्तर पर आ लेटी। माँ सो रही थी, बेखबर।
कड़ी धूप में ठण्डी बयार का-सा झोंका ही तो थीं ठकुराइन दीदी। हर वक्त
पूजा पाठ में मगन। जाने कब सुमित्रा उनके नाक का बाल बन गई। वही ठकुराइन
दीदी, जिन्हें किसी के हाथ का बना खाना पसन्द ही नहीं आता था, अब वह
सुमित्रा के हाथ के बने सभी पकवान बड़े चाव से खाती थीं, फिर एक दिन
उन्होंने विधिवत् उसे गोद ही ले लिया।
यह फैसला उन्होंने तब लिया जब उनके इकलौते बेटे ने भारत लौटने से इन्कार
कर दिया। न सिर्फ़ इनकार किया बल्कि उसने तो अपने पत्र में माँ को यहाँ
तक लिख मारा कि उसे उनकी सम्पत्ति से भी कोई दिलचस्पी नहीं है।’’
वैसे तो सुमित्रा ठकुराइन दीदी को सारा दुख-दर्द सुना आती थी और वह उसे
हिम्मत और दिलासा भी देतीं पर जब सुमित्रा ने माँ-बाप की शक्ल ही न देखने
का अपना फैसला ठकुराइन दीदी को सुनाया तो उन्हें बहुत दुख हुआ। वह जानती
थीं कि संतान की अवज्ञा का माँ-बाप पर कितना गहरा असर होता है। उन्हीं के
समझाने-बुझाने पर उसने फिर माँ के पास जाना-आना शुरु किया था। उन्हीं
ठकुराइन दीदी की शिक्षा का फल था कि अपने साथ किये गये हर दुर्व्यवहार के
अपराधी को वह क्षमा कर देती थीऋ उनकी अपार धन सम्पत्ति के साथ-साथ उनके
उदार विचार भी तो उसे विरासत में प्राप्त हुए थे।
रात भर की जगी होने पर भी मुर्गे की बांग के साथ ही सुमित्रा उठ बैठी।
ठकुराइन दीदी से सन्ध्या वन्दन का पाठ भी तो पढ़ा था उसने।
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पूजा से निवृत्त होने और चाय नाश्ते के बाद सुमित्रा फिर चक्की के पास जा
खड़ी हुई। मोटा आदमी जिसका नाम मदन था उठ खड़ा हुआ। आज वह तख़त पर बैठा था।
‘‘आइये दीदी? कैसी कटी आपकी रात?’’
‘‘ठीक है भइया? सुमित्रा ने स्वयं को संयत रखने का संकल्प रात ही ले लिया
था अतः बिना किसी भूमिका के प्रश्न किया, ‘‘क्या तुम्हें इस चक्की से कुछ
लाभ है?’’
‘‘नहीं-दीदी? पता नहीं क्यों काम बहुत कम हो गया है, वैसे एक कारण तो यह
भी है कि इधर-उधर और चक्कियाँ भी लग गईं हैं। फिर लोग शहर भी अधिक जाने
लगे हैं।’’
‘‘कितने में खरीदी थी चक्की तुमने?’’
‘‘पंद्रह हजार में............क्यों?’’
‘‘बेचेंगे क्या?’’
‘‘मैं समझा नहीं।’’
‘‘मैं तुम्हें मुँह माँगी कीमत दूँगी इसकी।’’ सुमित्रा के लिए तो यह
चक्की एक फाँस ही थी, जो उसके कलेजे में अटकी हुई थी। कितनी ही उदार होने
के बाद भी वह यह बात नहीं भूल सकती थी कि इसी चक्की के पास बची थोड़ी सी
ज़मीन के लिए माँ ने उसे कितना लताड़ा था। इन्हीं भइयों के लिए ना? और
भाइयों ने क्या किया? चक्की भी बिकवा दी और अब उसे रोटी के दो टुकड़ों के
लिए उनकी बीवियों की दस बातें सहनी पड़ती हैं। वे दोनों डरती हैं तो बस
सुमित्रा से, क्योंकि अब वह पैसे वाली जो है परन्तु बात बस इतनी ही नहीं
है, दरअसल सुमित्रा समय पड़ने पर भइयों की मदद भी तो करती है इसलिए उसका
रुतबा घर में बना हुआ है। आखिरकार सुमित्रा ने पचास हजार देकर चक्की
तुरन्त खरीद ली। तार देकर मुरारी और छोटे बेटे वरुण को भी उसने सितारगंज
ही बुला लिया था। जमीन का वह छोटा सा टुकड़ा जो सुमित्रा के मन में कसक
बनकर सालता रहता था, आज उसका था, उसका अपना। अब उसे माँ के सामने हाथ
नहीं फैलाने थे, इसके विपरीत बेगाने लोगों के हाथ चली गई पैतृक सम्पत्ति
उसने पैसे देकर पुनः प्राप्त कर ली थी अपने बेटे वरुण के नाम से और उसने
वरुण के नाम से लोन के लिए भी साथ ही साथ एप्लाई कर दिया था।

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‘‘वरुण फ्लोर मिल’’ का नामपट्ट भी बनकर आ गया था, वरुण बहुत प्रसन्न था।
एम.ए. पास करने पर भी नौकरी का कहीं दूर-दूर तक कोई भरोसा न था। अगर माँ
ने उसके नाम पर ‘फ्लोर मिल’ की योजना बनाई तो उसे क्योंकर सुख और
प्रसन्नता का अनुभव न होता। देखते ही देखते रिश्तेदार और मित्र, मेहमान
आने शुरु हो गये थे। सुमित्रा बहुत प्रसन्न थी। अपनी प्रशंसा सुनकर किसे
सुख नहीं होता। हर मुख पर एक ही बात थी, ‘‘नालायक बेटों ने तो चक्की
बिकवा दी थी, वह तो बेटी ही लायक निकली जिसने सब सँभाल लिया, बेगाने के
हाथ गई सम्पत्ति फिर अपने हाथ आ गई थी।’’
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हाथ में ढेर सारे लिफ़ाफ़े लिए सुमित्रा ने घर में कदम रखा तो देखा, माँ
मिल के नामपट््ट के पास खड़ी बड़े गौर से उसे देख रही है। सुमित्रा को
देखकर माँ ने झट पीठ फेरकर दुपट्टे से आँखें पोछ लीं, जो मोटे चश्में के
भीतर से भीगी हुई सुमित्रा को साफ़ नजर आ रही थी। अब माँ के पास कहने को
कुछ था ही नहीं, क्या कहती। सुमित्रा हाथ का सामान रखने अन्दर जाती कि
तभी सड़क पर बस रुकी, कुछ मेहमान और आये थे। मिल और सड़क का फासला मुश्किल
से तीन गज़ का रहा होगा इसीलिए अंदर भी हर प्रकार की आवाज आती थी। भीतर
लपकती सुमित्रा के पाँव कण्डक्टर की आवाज ने बाँध लिए। वह सड़क पर खड़ा
चिल्ला रहा था, ‘‘कोई और है? बटेसर की चक्की, बटेसर की चक्की। जल्दी उतरो
चक्की वालो।’’
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समय गुजरते कितनी देर लगती है? मिल तैयार खड़ी थी। उद्घाटन का दिन आ
पहुँचा। सुमित्रा, मुरारी और उनके दोनों बेटे मेहमानों के स्वागत में
व्यस्त थे। दोनों भाई-भाभियाँ खिसियाए रहने पर भी भीतर की व्यवस्था को
सँभाल रहे थे। बढ़िया भोजनों की सुगन्ध, रंग-बिरंगे परिधानों, टेप
रिकार्डर पर बजती अंग्रेजी धुनों के बीच स्थानीय विधायक ने रिबन काटा,
नाम पट्ट पर पड़े आवरण की डोर पकड़ कर खींची, तालियाँ बज उठीं। कैमरों की
फ्लश गनें चमक उठीं। लोग फोटो की परिधि में आने के लिए एक दूसरे को
धकियाने लगे। आखिर ये फोटोग्राफ कल अखबार में आने वाले जो थे।
        आवरण हटते ही बजती तालियाँ एकदम रुक गईं जैसे चलती गाड़ी में अचानक ब्रेक
आ लगे हों, लेकिन अगले ही क्षण तालियाँ दुगने वेग से फिर बज उठीं। माँ की
बूढ़ी आँखें मोटे चश्में के भीतर एक बार फिर से छलक आईं। नाम पट्ट पर मोटे

अक्षरों में लिखा था,
‘‘बटेसर की चक्की’’
प्रो0 वरुण कुमार सन ऑफ मुरारी लाल
        लोग आगे बढ़-बढ़कर सुमित्रा को बधाइयाँ दे रहे थे। शहर के बढ़े-बूढ़े हज़ारों
आशीवादों से उसे लाद रहे थे। सबका धन्यवाद करती हुई सुमित्रा ने हाथ
उठाया। माहौल एकदम शान्त हो गया। सब लोग प्रतीक्षा कर रहे थे कि अब
सुमित्रा क्या कहने वाली है, देखें तो सही। मुरारी और उसके दोनों बेटे
आँखों में प्रश्न लिए माँ का चेहरा देख रहे थे कि सुमित्रा ने अपना मुँह
खोला, ‘‘यह चक्की क्योंकि मेरे पिताजी की निशानी है और मेरी माँ की रोटी
का आधार थी।  इसके बिक जाने से मेरी माँ परेशान थी। क्योंकि यह चक्की अब
मैंने खरीद ली है इसलिए अब उनकी सारी परेशानी मेरी परेशानी है। आज से माँ
के जीवित रहने तक उन्हें  इस चक्की अर्थात फ्लोर मिल से 500/- मासिक
पेंशन मिला करेगी। वे चाहे जिस बेटे के साथ या चाहें तो मेरे साथ भी रह
सकती हैं।
        एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच कई बुजुर्गों के चेहरे आँसुओं से भीग गए।            
आशा शैली 

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2018

6:27 am

भवानीमंडी के साहित्यकार राजेश पुरोहित होंगे राष्ट्रीय स्टार डायमंड अचीवर्स अवॉर्ड से सम्मानित

भवानीमंडी:-यूथ वर्ल्ड सोशल समूह द्वारा 22 व 23 अक्टूबर को मरु नगरी बीकानेर  में यूथ वर्ल्ड सोशल मीडिया मैत्री सम्मेलन 2018 बीकानेर के वेटनरी सभागार में होगा । राष्ट्रीय स्टार डायमंड अचीवर्स अवार्ड समारोह के इस  भव्य आयोजन में भवानीमंडी के कवि साहित्यकार राजेश कुमार शर्मा पुरोहित को राष्ट्रीय स्टार अचीवर्स अवार्ड से सम्मानित किया जाएगा।
            पुरोहित को यूथ वर्ल्ड सोशल समूह के प्रमुख और आयोजन के कोऑर्डिनेटर भेरू सिंह राजपुरोहित ने ये जानकारी दी ।
  दो दिवसीय समारोह का आगाज़ यूथ वर्ल्ड सोशल समूह के संरक्षक राष्ट्रपति अवार्डी राजेन्द्र कपूर; दिल्ली,समाज सेवी राजकंवर राठौड़;जयपुर,सेन्टर फ़ॉर वीमेन स्टडीज की डायरेक्टर डॉ. मेघना शर्मा,फ़िल्म प्रोड्यूसर अशोक सिंह शक्तावत,प्राकृतिक चिकित्सक अनिता तंवर;ऋषिकेश,देव शर्मा,ललिता संजीव महरवाल;जयपुर,समाज सेवी अमन लवली मोंगा; सिरसा,डॉ. चेतन प्रकाश राजपुरोहित,समाज सेवी कु.गजेंद्र सिंह टुकलिया,समाज सवी राज शर्मा नींदड़,सुप्रसिद्ध कवियित्री डॉ. पूनम मटिया;दिल्ली सहित देश प्रदेश की वरिष्ठ शख्सियतों के सानिध्य में होने जा रहा है। इस समारोह में देश प्रदेश की 101 विशिष्ट प्रतिभाओं को विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्यों के लिए राष्ट्रीय स्टार डायमंड अचीवर्स अवार्ड से सम्मानित किया जाएगा। समारोह में डॉ. मेघना शर्मा मुख्य वक्ता के रूप में उद्बोधन देगी व अपने कर कमलों से 101 प्रतिभाओं को सम्मानित करेगी।

6:15 am

शेर पे सवार होके,जगत जननी वो माता। - धनंजय सिते


शेर पे सवार होके,जगत जननी वो माता!
भक्तो के लिये देखो, दौडी चलि आई है!!

दिन दु:खियो के उसने,हर लिये सब दु:ख!
सौगात खुशियो कि,झोली भर लाई है!!

छोडो सब मनमुटाव,द्वेष,क्लेश ईर्षा भी!
देखो,देखो कितनी सुहानी घडी आई है!!

अश्विन शुक्ल प्रतिपदा,कितना है शुभ दिन!
जगत कि पालनहार,घर-घर आई है!!
        ****************
             !! २ !!
करो पुजां आराधना,और भक्ती साधना!
जो भी करो तन-मन,और ध्यान से करो!

पुरे दिन,आधा दिन,चार छह घंटे या तो!
पांच मिनट ही सही,पुरी श्रध्दा से करो!

जलाओ अखण्ड ज्योत,या जवारा बोओ कोई!
करो व्रत उपवास,या मौन व्रत तो धरो!

मायके आई है मैय्या,नौ दिन के लिये तो!
करो धुप निरंजन,कोई रंगोली भरो!!
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            !! ३ !!
तुही सिंहवाहिनी है,महिषासुर मर्दिनी तु!
तुही माता जगदंबा,तुही तो भवानी है!

दृष्टो का संहार करे,नित नए रुप धरे!
बम्लेश्वरि,ज्योतावाली,तुही माता रानी है!!

नौ दिन भक्तो को,दशहरा दिवाली लगे!
सप्तशति,चालिसा तो,सबकि जुबानी है!

श्रध्दा भक्ति कि जो बहे,घर-घर सुर सरी!
ऎसा क्यो न लागे,घर-घर महारानी है!!
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            !! ४ !!
चंड-मुंड मारे मैय्या,रक्तबिज भी संहारे!
महिषासुर वध किया,मैय्या पल भर मे!!
भक्तो पे है साया तेरा,भक्तो पे है माया तेरी!
नौ दिन नौ भोग,लागे घर-घर मे

बैठकि मे गाय का घी,द्वितिया शक्कर तिजा!
दुध खिर,मालपुआ,चढ़े चौथे दिन मे!!

केला चढ़े पंचमि को,शहद शष्ठी सप्तमि गुड!
अष्टमि को नारियल,तिल चढ़े नवमि मे!!
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           **अंतिम बंद**
             !! ५ !!
साढ़ेतिन शक्तिपीठ,है मांता रानी के जो!
तुलजापुर कि तुलजा,कोल्हापुर कि माहालक्ष्मी है!!

माहुरगढ़ कि माँ रेणुका,वणी कि है सप्तश्रृंगी!
ये मांता के श्रध्दा स्थल,साढेतिन पिठ है!!

कोई बिपदा न आए,कभी उस भक्त पर!
माता सारे सुख देके,दु:ख उसके लेति है!

सच्चि भक्ति और साधना,जो भी करे आराधना!
माता सदा उस भक्त के,घर मे ही रहति है!!

स्वरचित:-
हास्य,व्यंग,ओज,पँरोडी कवि
    धनंजय सिते(राही)
  mob:-9893415829
********************

रविवार, 16 सितंबर 2018

6:36 am

जो कहते हिन्दी मन की अभिव्यक्ति नहीं कर पाती - आदित्य तोमर

जो कहते हिन्दी मन की अभिव्यक्ति नहीं कर पाती
लंगड़ी है बैसाखी बिन यह शक्ति नहीं भर पाती

हिंदी पर आरोप लगाते हैं मिश्रित भाषा के
झूठे-झूठे दाग थोपते अक्षम परिभाषा के

शब्द व्यञ्जना हिंदी की माँगी उधार की बोलें
हिंदी का सौंदर्य विदेशी भाषाओँ से तोलें

वे निज पगड़ी अंग्रेजी जूतों पर धरने वाले
स्वाभिमान का सुविधाओं से सौदा करने वाले

क्या जाने निज भाषा को सम्मान दिलाना क्या है
क्या जाने निज भाषा हित जीना मर जाना क्या है

आँख खोलकर दुनिया का इतिहास टटोलो, देखो
अंग्रेजों का बल-पौरुष अंग्रेजी बीच परेखो

जिसने जग के इतिहासों, भूगोलों को बदला है
जिसने दुनिया भर के फूलों-शूलों को बदला है

छिन्द्रनवेषी दृष्टि लिए निज भूलों को बदला है
जहाँ तहाँ कितने ही नामाकूलों को बदला है

जग को विवश किया है संस्कृति अंग्रेजी अपना लो
या अन्धकार में मिट जाओ अपना अस्तित्व गँवा लो

ऐसा दुस्साहस जग में भाषा ही कर सकती है
जो प्रतिमानों की प्रति-परिभाषा को गढ़ सकती है

और तनिक देखो चीनी जापानी संस्कृति तोलो
निज भाषा के सम्मानों के परिणामों को खोलो

दोनों ने अपनी तकनीकी का परचम फहराया
कम्प्यूटर निज भाषा में हो सकते हैं दिखलाया

वहां अगर रहना है तो पहले सीखो भाषाएँ
पीछे रखना व्यापारों, विद्याओं की आशाएँ

सिंगापुर, इंडोनिशिया जितना आगे जाओगे
निज भाषा के वैभव के प्रतिमानों को पाओगे

लेकिन एक ओर हिंदी पुत्रों की करुण कहानी
कब तक गाई जानी है यह कब तक और सुनानी

जो परिवादों संवादों का अन्तर नहीं समझते
वादों और विवादों का बहिर्न्तर नहीं समझते

कालांतर क्या समझें जोकि चिरंतर नहीं समझते
जंतर-मन्तर का स्पष्ट  जो तंतर नहीं समझते

वे बलहीन भले हों यह हिन्दी बलहीन नहीं है
यह दाता भाषा है भाषाओँ में दीन नहीं है

भारत की ये भाषाएँ हिंदी की हैं संतानें
कुछ बहनें, कुछ बहनों की बेटियाँ, सभी हैं मानें

बड़े घरों में कपड़े लत्तों में यह चल जाता है
एक-दूसरी अदल-बदल से काम निकल जाता है

जब अपने घर में बंटवारे वाला भाव नहीं है
कोई फूट नहीं मनभेदी कोई ताव नहीं है

तब बाहर वालों को इस एका से पीड़ा होगी
टुकड़े-टुकड़े कर देने की क्रूर क्रीड़ा होगी

अब तक इन्हीं बैर भावों की परिणति होती आई
एक-एक पीढ़ी ने कुत्सित यही नीति दोहराई

हिंदी ने निज मर्यादा पर कितने वार सहे हैं
विद्वत्जन के राजनीति प्रेरित संहार सहे हैं

टूट-टूटकर बिखरी है यह बिखर-बिखर कर निखरी
देवनागरी लिपि में सँवरी हिन्दी की यह नगरी

इसके पग-रज-कण-अणु-अणु से क्षण-क्षण अटे रहेंगे
हम हिन्दी के बिछुए-बिंदी बनकर डटे रहेंगे।।

आदित्य तोमर
वज़ीरगंज, बदायूँ


रविवार, 9 सितंबर 2018

8:24 pm

सुनो सुनो दुःशासन अब तो, साड़ी बाट रहा। - प्रदीप ध्रुवभोपाली

सुनो सुनो दुःशासन अब तो, साड़ी बाट रहा।
नयी नवेली देख परख के, उनको छाट रहा।

चीरहरण को भूल चला दुर्योधन से तकरार।
सुधर गया पड़ गयी है जबसे सौ कोड़ों की मार।

 धृतराष्ट्र के संग बैठा वो जड़ है काट रहा।
सबकी वो औकात देखकर उनको छाट रहा।

गर्ज पड़े जब जब उसको तो बाप कहे हर बार।
पाव पड़े और कहे कि अबकी कर दो बेड़ा पार।

धृतराष्ट्र किरपा से उसका हरदम ठाट रहा।
माल मसाला जमकर काटे सब को छाट रहा।

बरस पाच फिर मौसम आये सुन लो रे हर बार।
करे चरणस्पर्श कहे लाओ अपनी सरकार।

पलट चला पासा शकुनि का कल तक लाट रहा।
दुर्योधन का नहीं ठिकाना घर न घाट रहा।

★★★★★★★★★★★★
ओजकवि प्रदीप ध्रुवभोपाली,म.प्र
भोपाल,दिनाँक-31/08/2018
मो-09589349070
====================

8:21 pm

आरक्षण से देश सुलग रहा है - अनन्तराम चौबे

आरक्षण से
देश सुलग रहा है ।
देश के भविष्य में
गृह युद्ध दिख रहा है ।
देश में खतरा
विदेशी ताकतो
आतंकवादियो
से भी नही है  ।
आरक्षण की आग
से देश जल रहा है ।
नेताओ द्वारा बांटी
आरक्षण की रेवड़ियाँ
अब भारी पड़ रही है ।
आरक्षण की ये
बैसाखियाँ सबके
गले की फांस
बनकर रह गई हैं ।
नेता बोट बैंक की
राजनीति में फसे है ।
न्यायपालिका ही
कुछ हल निकाले
तभी देश की
समस्या का हल
हो सकता है ।
आरक्षण का कानून
अवैध हो सकता है ।

 अनन्तराम चौबे  * अनन्त *
 जबलपुर म प्र
1697/574
9770499027

8:17 pm

तेल का देखो खेल - राजेश पुरोहित

रोज - रोज तेल के भाव चढ़ रहे।
सियासत में तूफान भी मच रहे।।
विपक्ष के नेता हाहाकार कर रहे।
जनता के प्रदर्शन रोज ही हो रहे।।

आने वाले अब अगले  चुनाव पास है।
तेल जैसे मुद्दे भी बने आज खास है।।
सत्ताधारी व विपक्ष दोनों ही  हैरान है।
जनता का जीतना सबको विश्वास है।।

पेट्रोल डीजल आम जन की जरूरत है।
ये  महँगे तो जन  जीवन अस्त व्यस्त है।।
जनता के सामने किस मुँह जाये नेताजी।
देश की मंहगाई से आम जनता त्रस्त है।।

बढ़ती तेल कीमतों पर नियंत्रण कीजिये।
वरना अगले  चुनाव में हार मान लीजिए।।
जनता से झूंठे वादे अब तो मत  कीजिये।
पढ़ी लिखी जनता को सुविधाएं दीजिए।।

कवि राजेश पुरोहित

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

5:51 am

दिया है जख़्म ऐसा अब कहीं मरहम नही मिलता - नेहा नजाकत

दिया है जख़्म ऐसा अब कहीं मरहम नही मिलता ।
तुम्हारे  साथ  मेरा  कोई  भी तो गम नही मिलता ।।

यूँही  होती  हैं  बरसाते  ये  मौसम  यूँ ही   गुजरेगा ।
मरीज -ए इश्क़ को अकसर यहाँ हमदम नही मिलता ।।

तुम्हारी याद में ही ये समंदर हो गया खाली,
सबब है बस यही इसका कि सहरा नम नहीं मिलता |

मैं जानम जब कभी सोचूँ कि तुझसे राबता कर लूँ,
कभी तबियत नही मिलती, कभी आलम नही मिलता |

ये दुनिया हो गई वहशी दरिंदो से भरी आख़िर,
यहाँ हव्वा तो मिलती है मगर आदम नही मिलता |

- नेहा नज़ाकत

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

4:49 am

रोहिणी जो द्रोहिणी सी मदमाती हुई आई, लाई घेर-घेर चमू सारंग-सुनील के - आदित्य तोमर

जय श्रीकृष्ण

रोहिणी जो द्रोहिणी सी मदमाती हुई आई,
लाई घेर-घेर चमू सारंग-सुनील के.
कंस महलों में भीत था अतीत याद कर,
चूहा जैसे चोंच में दबा हुआ हो चील के.
कारा तोड़ कृष्ण को ले बढ़े वीर वसुदेव,
चढ़ी जलराशि वन, मार्ग, ग्राम लील के.
सोंधी-सोंधी गन्ध लिए हरषाई ब्रजधूल
फूल-फूल उठे पीत-पादप करील के.
-
आदित्य तोमर,
वज़ीरगंज, बदायूँ.

(अर्थात - कंस के अत्याचार के विरुद्ध रोहिणी (नक्षत्र) बग़ावती तेवरों के साथ घने काले बादलों की बड़ी सेना लेकर आई। जिनके कारण कंस को अपने महलों में भी अतीत की घटनाओं को याद कर मृत्यु का ऐसा भय होने लगा जैसे कोई चूहा चील की चोंच में दबा हुआ हो। उसी समय कृष्ण के जन्म के बाद उनके पिता वसुदेव उनको लेकर जेल से बाहर निकले और इसके साथ ही यमुना की भयंकर विशाल जलराशि वनों, मार्गों, और ग्रामों को निगलती हुई विकराल रूप में आगे बढ़ी। दूसरी ओर इन भयंकर परिस्थितियों से दूर ब्रज क्षेत्र में वहाँ की धूल कृष्ण के स्वागत में सोंधी-सोंधी महक उठी और निपट कँटीले करील जैसे वृक्ष भी फूलों से लद गए।)
आदित्य तोमर

रविवार, 2 सितंबर 2018

10:38 pm

कली कली से फूल बनता है फूलो से माला बनती है । बिना कली कोई फूल न होता बिना फूल नही माला बनती है

कली कली से फूल बनता है
फूलो से माला बनती है  ।
बिना कली कोई फूल न होता
बिना फूल नही माला बनती है ।
पेड़ पौधो से वाग  खिलते है ।
भंवरे गुन्जन उसमे करते है ।
फूल फूल का रस पीते है ।
भंवरे की गुंजन से वगिया के
फूल भी सहमें रहते है ।
फूलो का रस पान करना
भंवरो की आदत होती है ।
फूल और भवरे की जोडी
कुदरत का करिश्मा है ।
रस पान करे न फूलो का
भंवरा  नही रह सकता है  ।
कली कली का रस पान करे
भंवरा यही तो करता है
कली फूल और भंवरे का
आपस का यह रिश्ता है ।
रस पान करे न फूलो का
भंवरा जीवित नही
 रह सकता है ।

        अनन्तराम चौबे * अनन्त *
         जबलपुर म प्र
          1681/569
         9770499027

10:33 pm

पुस्तक समीक्षा :- खोजना होगा अमृत कलश (काव्य संग्रह)

पुस्तक समीक्षा
कृति :- खोजना होगा अमृत कलश (काव्य संग्रह)
कवि :- राजकुमार जैन "राजन"
पृष्ठ:- 120
मूल्य:- 240/-
प्रथम संस्करण:- 2018
प्रकाशक:- अयन प्रकाशन,1/20,महरौली, नई दिल्ली 110030
समीक्षक:- राजेश कुमार शर्मा"पुरोहित"
 कवि,साहित्यकार
    बाल साहित्यकार राजकुमार जैन "राजन "की कृति 'खोजना  होगा अमृत कलश" में कुल 50 कविताएँ हैं। अब तक कवि राजन की बाल साहित्य की 36 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। यह कृति उन्होंने अपने पिता श्री अम्बालाल जी हिंगड़ व माता श्रीमती इन्द्रा देवी हिंगड़ जी को समर्पित की है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी राजन जी आकोला जैसे गाँव से काव्य यात्रा प्रारम्भ करने वाले कवि एवम बाल साहित्यकार हैं। ये अंतराष्ट्रीय मंचों से सम्मानित है। प्रस्तुत कृति की भूमिका में पूर्व अध्यक्ष राजस्थान साहित्य अकादमी के वेदव्यास जी लिखते हैं कि राजन जी जैसे युवा कवि जैसी और समाज के प्रति ऐसी दीवानगी व बेचैनी आज बहुत कम दिखाई देती है। राजन जी संपादक ,प्रबंधक होने के साथ साथ राजस्थानी भाषा के एक अच्छे रचनाकार भी है।सुपरिचित साहित्यकार घनश्याम मैथिल अमृत ने इनकी रचनाओं के प्रति उपज अमूल्य अभिव्यक्ति दी है।
  इस कृति की प्रथम रचना लाखों संकल्प में कवि ने महाभारत के पात्रों को प्रतीक बनाते हुए कविता का सुन्दर सृजन किया है। मन का युद्ध का चित्रण देखते ही बनता है। वैचारिक शैली में है यह कविता जिसमें दुर्बल मन ही द्रोणाचार्य है। क्षुब्ध ह्रदय ही हस्तिनापुर है। शरशय्या पर पड़ा विवेक ही भीष्म है। मनुष्य की कल्पना ही अभिमन्यु है। कवि की अगली कविता "बन जायेगा इतिहास "में अर्वाचीन काल में बढ़ती दानवता पूर्ण घटनाओं पर पैनी कलम चलाई है। राजन की भावपूर्ण कविता व्यक्ति को सोचने के लिए विवश करती है। उनकी पंक्तियां देखिए-"दानवता के बीज बो मुस्कुरा रहा आदमी 
        ज़िंदगी का गीत कविता में लूट,हत्या, बलात्कार ,स्वार्थपरता ,भाईचारे की कमी, आज की मेहमाननवाजी का सजीव चित्रण किया है। अंतहीन अनुसंधान रचना में राजन लिखते है- जिंदगी एक अनुसंधान, अनवरत अंतहीन यात्रा, अंधकार के बीज में परम्परा ,संस्कृति ,संस्कार का समाज में धीरे धीरे समाप्त हो रहे विषयों पर लिखते हुए, वे कहते है अंधकार के बीज मत बोओ।
       तुम कौन हो ,हाथ में वसंत, नियति, हारा भी नही हूँ मैं, हाशिएं पर वह, अस्तित्व बोध, आशा की लो जलती रहेगी जैसी कविताएँ भी इस काव्य संकलन में कवि की आशावादी सोच को दर्शाती है। स्मृतिओं के पांव में कवि लिखता है मरु भूमि में भी खिलेगा अब आशा और विश्वास का गुलाब। व्यक्ति यदि ज़िंदगी में श्रम करे तो निश्चित रूप से रेगिस्तान भी हरा भरा हो सकता है। 
         अँधेरे के ख़िलाफ़ कविता में जुगनुओं के माध्यम से अज्ञान रूपी तिमिर के खिलाफ लड़ने की सीख देती हैं।'सभ्यता के सफर ' कविता में कवि ने गिरगिट की तरह आदमी को रंग बदलते हुए समाज में देखा है। वे लिखते है 'हर इंसान के चेहरे पर,एक नकली चेहरा है।
          खोजना होगा अमृत कलश इस संग्रह की शीर्षक कविता है इसमें कवि सत्यम शिवम सुंदरम का प्रकाश देश के हर व्यक्ति में देखना चाहता है। भारत की धरती पर सद्भाव व भाईचारे की भावना को संजोए वे लिखते है "खोजना होगा उस अमृत कलश को,भर दे धरा पर जो प्यार की ख़ुशबू"। सद्भाव के दीपक जलाएं,सत्यम शिवम सुंदरम का प्रकाश।
          राजन की कविताओं में आम बोल चाल की भाषा का प्रयोग किया गया है। कविता का उद्देश्य प्रत्येक रचना में स्पष्ट दिखाई देता है। इनकी कविताओं में सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषय के साथ साथ संस्कार, संस्कृति,आर्थिक,सामाजिक गतिविधियों एवं सियासत के गलियारों में अंतर्द्वंद्व पर लिखने का अलग ही कार्य किया है। कवि इस कृति के माध्यम से समाज में जीवन मूल्यों की स्थापना करना एवं संवेदनशीलता के साथ सामाजिक विसंगतियों के प्रति चिंता जाहिर करता है। राजन ने अपनी छन्दमुक्त रचनाओं में आम आदमी की बात आम भाषा में ही लिखी है।
        "पीड़ा के दुर्गमपथ "कविता में रिश्तों में पड़ रही दरारों का सच लिखा है। बोन्साई पेड़ों की तरह छोटे हो गए रिश्ते। "खण्ड खण्ड अस्तित्व" कविता में कवि कहता है- लक्ष्य की पगडंडियाँ स्वयं ही मंज़िल छूने लगी। सफल होने के लिए एक लक्ष्य रखकर आगे बढे तो निश्चित रूप से मंज़िल मिलती है। इसी प्रकार इस काव्य संग्रह की अन्य कविताएँ अर्थ युग का चमत्कार, हथेली पर सूरज उगाओ,अंधेरे के खिलाफ़, सूखे फूलों की गंध,बेरोजगार,अर्थ खोते रिश्ते,व्यामोह,जिजीविषा, बचपन की बरसातआ आदि कविताएँ भी प्रेरणास्पद लगी। इन कविताओं से जीवन में नई ऊर्जा,उमंग का संचार होता है। इस कृति की अंतिम कविता "जीवन का चक्रव्यूह" है,इसमें कवि कहता है- 'हर ख़्वाब सूरज बन चमकेगा एक दिन।' यथार्थतः व्यक्ति संकल्प के साथ शिखर पर पहुंच सकता है। 
 इस कृति के  मराठी,पंजाबी,नेपाली,गुजराती भाषा मे अनुदित संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। शीघ्र ही असमिया,राजस्थानी,अंग्रेजी भाषा में भी  इसके संस्करण प्रकाशित होंगें।
             मेरी और से युवा कवि राजकुमार राजन जी को बहुत बहुत बधाई, हार्दिक शुभकामनाएं, साहित्य जगत में यह कृति अपना स्थान बनाएं। खोजना होगा अमृत कलश सामाजिक समस्याओं के समाधान का गुलदस्ता है।

98,पुरोहित कुटी 
श्री राम कॉलोनी
भवानीमंडी

10:22 pm

सुन कान्हा , तू फिर से आना बुलाये संसार रे , कर दे तू , हमारा बेड़ापार रे ....

सुन कान्हा , तू फिर से आना
बुलाये  संसार रे ,
कर दे तू , हमारा  बेड़ापार रे ....

माँ धरती कहती है , कान्हा आजा
हो रहा , अत्याचार रे 
तू आजा और , करजा बेड़ा पार रे ...
सुन कान्हा..........

लड़किया कहती है , कान्हा आजा 
हो रहे  , बलात्कार रे , 
तू आके दिखलाजा चमत्कार रे ।।
सुन कान्हा .........

जनता कहती है , कान्हा आजा
हो रहे , अत्याचार रे 
तू आके दिलाजा इंसाफ रे
सुन कान्हा........

माई बाप कहते है कान्हा आजा
हो रहे हम , लाचार रे
तू आके समझा दे हमारा प्यार रे
सुन कान्हा...........

गरीब कहता है कान्हा आजा
हो रहे  , बेरोजगार रे
तू आके दिलाजा रोजगार  रे
सुन कान्हा ...........

नारी कहती है कान्हा आजा
करो ना , अब विचार रे
तू आके दिलाजा राधासा प्यार रे
सुन कान्हा.............

"जसवंत" कहता है कान्हा आजा
करता  सुदामा , जैसी आस रे
तू आके बना दे मुझे  यार रे
सुन कान्हा ................


जसवंत लाल खटीक
💐रतना का गुड़ा ,देवगढ़

10:05 pm

गाय बचाओ,गाय पालो !! गाय विश्व कि गौ माता है इसका तुम सब ध्यान धरो!

🐄गावो विश्वस्य मातर:
      🐂गाय विश्व कि माता है🐂
    ***********************
  !! गाय बचाओ,गाय पालो !!
-------------------------------------
गाय विश्व कि गौ माता है
इसका तुम सब ध्यान धरो!
हिन्दु आस्थाँ ईससे जुडि है
सुनलो तुम गौ हत्यारो!!

यह ऊपयोगि एक पशु है
वैग्यानिक,आध्यात्मिक भी!
दुध है ईसका,अमृत माना
रोगियो और बच्चो को भी!!

करोडो हिन्दु ईसको पुजते
श्रध्दा से रोटी खिलाते है!
जब भी रोते छोटे बच्चे
गाय का दुध ही पिलाते है!!

गाय हमारि सिधी-साधी
सब-कुछ हमको देति है!
बदले मे बस चारा खाति
कुछ और ना पाति है!!

हिन्दुओ के त्योहारे मे
गोबर से हि लिपते है!
हिन्दु संस्कृति मे लिपना
बडा ही पावन मानते है!!

गोबर से ही खांद बने जो
फसल के काम मे आता है!
स्वस्थ,स्वादिष्ट फसल ऊगाने
ऊपयुक्त माना जाता है!!

गाय के एक चम्मच ही घि से
एक टन आँक्सिजन बनता है!
ईसिलिये होम,यग्य,हवन मे
गाय का घि-ही चलता है!!

दुध,दही,पनिर और मख्खन
सब गाय से ही मिलते है!
जिस के बलपर कई परिवार के
आज भी जिवन चलते है!!

गौ-मुत्र भी एक कारगर
आज औषधि हो गई है!
अच्छि पँकिंग,और दामो मे
मेडिकल मे बिक रही है!!

गाय खुर से,ऊडि धुलिको
जो सिर धारण करता है!
चारो धाम के तिर्थो से वह
पावन स्नान को करता है!!

पिछले खुरो के दर्शन का
भी एक बडा ही महत्व है!
अकाल मृत्यू से बच जाए वो
यह एक अटल ही सत्य है!!

करे गाय कि परिक्रमा जो
हर बडे लाभ को पाता है!
जो भी प्रतिदिन करे परिक्रमा
समझो वह  पुण्यात्मा है!!

हर-घर मे एक गाय को पालो
हर घर पावन हो जाएगा!
गौ-सेवा का पुण्य कमा वह
मरने पर मोक्ष को पाएगा!!
--------------------------------------
     !! गौ-माता कि जय !!
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 हास्य,व्यंग,ओज,पँरोडि कवि
 एवं गितकार-धनंजय सिते(राही)
    Mob-9893415829
----------------------------------------

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

4:07 am

बरसा की बूंदों ने तन को भिगोया । व्याकुल इस मन को थोड़ा गुदगुदाया । तन जब है भीगा मन भी हर्षाया । - अनन्तराम चौबे

बरसा की बूंदों ने
तन को भिगोया ।
व्याकुल इस मन को
थोड़ा गुदगुदाया ।
तन जब है भीगा
मन भी हर्षाया ।
बरसा का मौसम
सभी को है भाया ।
नदियाँ और झरने
कल कल करते ।
मस्ती में अपनी
मंजिल पर जाते ।
ताल और तलैया
नही है अब प्यासे
पोखर और कुऐ
भी नही है उदासे ।
बारिश ने सबकी
प्यास है बुझा दी ।
लबालब खेतो में
भर गया  है पानी
चारो तरफ है
हरियाली और पानी ।
बसुन्धरा खुश है
पेड़ पौधे,भी खुश है ।
सावन के महीने में
हर कोई खुश है ।
गोरी का तन भी
पानी से भीगा है ।
पहनी जो तन पर
चोली भी भीगी है ।
गीली ये चोली
तन से चिपक जाये ।
पिया बिन मन को
बहुत ही सताये ।
पपीहा सा प्यासा
मन तड़फता है  ।
स्वाति नक्षत्र के
पानी का वो प्यासा है ।
गोरी का मन भी
पिया बिन प्यासा है ।
बरसा की बूंदों ने
तन तो भिगोया है
मन तो अभी भी
उसका प्यासा है ।
व्याकुल मन गोरी का
पिया को मुरझाया है ।
बरसा की बूंदों ने
उसको तड़फाया है ।
चंचल मन करता ठिठोरी
मन ही मन सोचकर
पपीहे सी,ब्याकुल है गोरी ।

    अनन्तराम चौबे
       * अनन्त *
    जबलपुर म प्र
    1668/562
   9770499027

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

7:59 pm

हे आर्य भूमि भारत वसुन्धरा कोटि नमन तुमको - प्रदीप ध्रुवभोपाली

हे आर्य भूमि भारत वसुन्धरा कोटि नमन तुमको।

जहाँ उपजते रणबाँकुरे न्याय मिले सबको।

तपोभूमि ऋषियो की भारत जाने सकल भुवन,

जहाँ उपजते माणिक हीरा स्वर्ण मिले हमको।

यवन अनेक यहाँ आये नहिं हिला सके तृण को।

विजय मिले इस हेतु बनाया मीत भी छल बल को।

क्षमा दया का दान दिया पर भूल हुई हम से,

छुरा घोप कर पीठ सताया सब में निर्बल को.।

रौद्र रूप है बता दिया हमने सारे जग को।

परशुराम के अवतारी हम ज्ञात हुआ सबको।

मचा युद्ध तांडव जब भी आश्चर्य हुआ नभ को।

धर्म कार्य रक्षार्थ जन्म लेना है पड़ा रब को।









★★★★★★★★★★
ओजकवि प्रदीप ध्रुवभोपाली म.प्र.
भोपाल, दिनाँक.20/08/2018
मो.-09589349070
★★★★★★★★★★

सोमवार, 20 अगस्त 2018

4:59 pm

सैनिक सीना तान चला !! देखो-देखो अब सिमा पर! सैनिक सीना तान चला!! - धनंजय सिते


    !! सैनिक सीना तान चला !!
देखो-देखो अब सिमा पर!
सैनिक सीना तान चला!!
१)माँ कि ममता,आशिश पिता का
         भाई का,अभिमान चला!
                       देखो,देखो.....
२)चिंता रख परिवार कि दिलमे
      अश्क लेकर आखो मे चला!
                      देखो,देखो......
३)माँ भारती को रख दिल मे ले
       तिरंगे का सम्मान चला!
                देखो,देखो..........
४)ओंझल तक परिवार को देखा
        फिरभी हिम्मत बांध चला!
                    देखो देखो.........
५)वह जागता रहता है सिमा पर
    जब गहरि निंद का जोर चला!
                    देखो देखो ........
६)बनकर सरहद पर दश्मन का
       देखो कैसे काल चला!
                 देखो देखो...........
७)दुश्मन को है मार गिराना
     लक्ष जिगर मे पाल चला!
              देखो देखो..........
८)प्यार बहन कि राखी का ले
        पत्नी का श्रृंगार चला!
                 देखो देखो.........
९)मातृभुमी के रक्षा कि जीद
      लेकर जन-मन गान चला!
                देखो देखो...........
१०)देशभक्ती का जुनून है,सोचे
        लु दुश्मन कि जान चला!
                 देखो देखो..........
११)झेल मुसिबत को सरहद पर
       चाहे लडते दे दु जाँन चला!
                    देखो देखो.........
१२)बनकर हिंन्दुस्थानियो कि
          देखो कैसे ढाल चला!
                     देखो देखो......
१३)मातृभूमी को कर दु जिवन
          सोच के ये कुर्बान चला!
                  देखो देखो...........
----------------------------------------

हास्य,व्यंग,ओज,पँरोडि कवि
एवं गितकार-धनंजय सिते(राही)
लोधीखेडा,तह-सौसर जिला-छिंदवाडा(म.प्र.)
Mob-9893415829

रविवार, 19 अगस्त 2018

9:32 pm

कुछ ख्वाहिशें थी मेरी , जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी । - जसवंत लाल

कुछ ख्वाहिशें थी मेरी , 
जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।
कुछ अरमानों की झोपड़िया , 
मजबूरियों से ढ़ह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

बचपन में देखे थे मैने , 
बड़े-बड़े और प्यारे सपने ।
लेकिन जवानी में आते-आते ,
सपनों की दुनिया बह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

कोशिस बहुत की थी मैने ,
बड़ा अफसर बन जाने की ।
वक्त के आगे एक ना चली ,
बस घर की जिम्मेदारी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

सपने में गड़गड़ाहट हुई ,
उम्मीदों की बिजलियां भी चमकी ।
लेकिन किस्मत की बारिश से जमीन ,
अंदर से सुखी रह गयी  ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

कभी थी मरने की ख्वाहिश ,
कभी होती जीने की इच्छा ।
इस जिंदगी की कशमकश में ,
नैया , डूबती-डूबती रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

वो दिन भी देखे थे मैंने , 
जब यमराज मेरे पास से गुजरे ।
शायद कुछ उपकार किये थे हमने ,
तभी फिर से , ये जिंदगी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

छोटी सी उम्र है लेकिन ,
छाछ , फूँक-फूँक कर पीता हूँ ।
तजुर्बों से आया  फ़न लेकिन ,
ख्वाहिश , अधूरी रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

सूट-बूट और पीए-सीए ,
सरकारी गाड़ी की ख्वाहिश ।
लेकिन किस्मत का खेल निराला ,
कलम हाथ में रह गयी ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।

थाम ले , "जसवंत" तू कलम ,
और निरन्तर लिखता जा ।
देख फिर सुहाने सपने  ,
ये कलम मुझसे कह रही ।।
कुछ ख्वाहिशें थी मेरी ...................जो सिर्फ ख्वाहिश बन कर रह गयी ।।।
                    जसवंत लाल खटीक
                   
                    रतना का गुड़ा ,देवगढ़


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