नयी नवेली देख परख के, उनको छाट रहा।
चीरहरण को भूल चला दुर्योधन से तकरार।
सुधर गया पड़ गयी है जबसे सौ कोड़ों की मार।
धृतराष्ट्र के संग बैठा वो जड़ है काट रहा।
सबकी वो औकात देखकर उनको छाट रहा।
गर्ज पड़े जब जब उसको तो बाप कहे हर बार।
पाव पड़े और कहे कि अबकी कर दो बेड़ा पार।
धृतराष्ट्र किरपा से उसका हरदम ठाट रहा।
माल मसाला जमकर काटे सब को छाट रहा।
बरस पाच फिर मौसम आये सुन लो रे हर बार।
करे चरणस्पर्श कहे लाओ अपनी सरकार।
पलट चला पासा शकुनि का कल तक लाट रहा।
दुर्योधन का नहीं ठिकाना घर न घाट रहा।
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ओजकवि प्रदीप ध्रुवभोपाली,म.प्र
भोपाल,दिनाँक-31/08/2018
मो-09589349070
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