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रविवार, 16 सितंबर 2018

जो कहते हिन्दी मन की अभिव्यक्ति नहीं कर पाती - आदित्य तोमर

जो कहते हिन्दी मन की अभिव्यक्ति नहीं कर पाती
लंगड़ी है बैसाखी बिन यह शक्ति नहीं भर पाती

हिंदी पर आरोप लगाते हैं मिश्रित भाषा के
झूठे-झूठे दाग थोपते अक्षम परिभाषा के

शब्द व्यञ्जना हिंदी की माँगी उधार की बोलें
हिंदी का सौंदर्य विदेशी भाषाओँ से तोलें

वे निज पगड़ी अंग्रेजी जूतों पर धरने वाले
स्वाभिमान का सुविधाओं से सौदा करने वाले

क्या जाने निज भाषा को सम्मान दिलाना क्या है
क्या जाने निज भाषा हित जीना मर जाना क्या है

आँख खोलकर दुनिया का इतिहास टटोलो, देखो
अंग्रेजों का बल-पौरुष अंग्रेजी बीच परेखो

जिसने जग के इतिहासों, भूगोलों को बदला है
जिसने दुनिया भर के फूलों-शूलों को बदला है

छिन्द्रनवेषी दृष्टि लिए निज भूलों को बदला है
जहाँ तहाँ कितने ही नामाकूलों को बदला है

जग को विवश किया है संस्कृति अंग्रेजी अपना लो
या अन्धकार में मिट जाओ अपना अस्तित्व गँवा लो

ऐसा दुस्साहस जग में भाषा ही कर सकती है
जो प्रतिमानों की प्रति-परिभाषा को गढ़ सकती है

और तनिक देखो चीनी जापानी संस्कृति तोलो
निज भाषा के सम्मानों के परिणामों को खोलो

दोनों ने अपनी तकनीकी का परचम फहराया
कम्प्यूटर निज भाषा में हो सकते हैं दिखलाया

वहां अगर रहना है तो पहले सीखो भाषाएँ
पीछे रखना व्यापारों, विद्याओं की आशाएँ

सिंगापुर, इंडोनिशिया जितना आगे जाओगे
निज भाषा के वैभव के प्रतिमानों को पाओगे

लेकिन एक ओर हिंदी पुत्रों की करुण कहानी
कब तक गाई जानी है यह कब तक और सुनानी

जो परिवादों संवादों का अन्तर नहीं समझते
वादों और विवादों का बहिर्न्तर नहीं समझते

कालांतर क्या समझें जोकि चिरंतर नहीं समझते
जंतर-मन्तर का स्पष्ट  जो तंतर नहीं समझते

वे बलहीन भले हों यह हिन्दी बलहीन नहीं है
यह दाता भाषा है भाषाओँ में दीन नहीं है

भारत की ये भाषाएँ हिंदी की हैं संतानें
कुछ बहनें, कुछ बहनों की बेटियाँ, सभी हैं मानें

बड़े घरों में कपड़े लत्तों में यह चल जाता है
एक-दूसरी अदल-बदल से काम निकल जाता है

जब अपने घर में बंटवारे वाला भाव नहीं है
कोई फूट नहीं मनभेदी कोई ताव नहीं है

तब बाहर वालों को इस एका से पीड़ा होगी
टुकड़े-टुकड़े कर देने की क्रूर क्रीड़ा होगी

अब तक इन्हीं बैर भावों की परिणति होती आई
एक-एक पीढ़ी ने कुत्सित यही नीति दोहराई

हिंदी ने निज मर्यादा पर कितने वार सहे हैं
विद्वत्जन के राजनीति प्रेरित संहार सहे हैं

टूट-टूटकर बिखरी है यह बिखर-बिखर कर निखरी
देवनागरी लिपि में सँवरी हिन्दी की यह नगरी

इसके पग-रज-कण-अणु-अणु से क्षण-क्षण अटे रहेंगे
हम हिन्दी के बिछुए-बिंदी बनकर डटे रहेंगे।।

आदित्य तोमर
वज़ीरगंज, बदायूँ


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