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शुक्रवार, 25 मई 2018

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में विवेक राज मिश्र की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
बह्र-  122 122 122 122
काफ़िया - इल
रदीफ़ -  रही है

हमारी तुम्हारी नज़र मिल रही है ।
तभी ज़िन्दगी फूल सी खिल रही है ।।

भरोसा करो इन जवां धड़कनों पर  ।
नज़र ही नहीं सिर्फ क़ातिल रही है ।।

फटा दिल रफूगर नहीं जोड़ पाता ।
इसे चाहतों की सुई सिल रही है।

फँसा देख खुद को बड़े कटघरे में ।
जुबां शेर की भी नहीं हिल रही है ।।

चले तो गए 'राज़' होकर ख़फ़ा वो ।
उन्हें भी पता रात बोझिल रही है ।।

- विवेक मिश्र 'राज़'

ग़ज़ल 2
बहर -  2122 2122
काफ़िया - अम
रदीफ़ - नही है

आग  मुझमें कम नहीं है ।
हाँ मगर अब गम नहीं है ।।

क़त्ल   मेरा   हो   रहा  है ।
आँख लेकिन नम नहीं है ।।

आज कल की ताकतों में  ।
हौंसले  का  दम  नहीं  है ।।

देख  लो तुम घाव देकर ।
हाथ  में  मरहम नहीं है ।।

'राज़' अब इंसानियत का ।
रह  गया  मौसम नहीं है ।।

विवेक मिश्र 'राज़'

ग़ज़ल 3
बह्र- 2122  2122
काफ़िया - ओ
रदीफ़ - रहे हैं

सब  नकलची  हो  रहे  हैं ।
इसलिए  ही   खो  रहे  हैं ।।

आँख  से देखो ज़रा तुम ।
फूल  भी  अब रो रहे हैं ।।

जागना जिनको यहाँ था ।
चैन  से  वो  सो  रहे  हैं ।।

जो फसल उगती नहीं है ।
क्यों  भला हम बो रहे हैं ।।

'राज़' तुम खुद को संभालो ।
गन्दगी   सब  धो   रहे   हैं ।।

- विवेक मिश्र 'राज'

ग़ज़ल 4
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - ई
रदीफ -  थी

अदालत ही कुछ बेमुरव्वत रही थी ।
सज़ा जिस तरह से सुनाई गयी थी ।।

उसी  से  रहा  है  जमाना  ये  रूठा ।
सही बात खुलकर के जिसने कही थी ।।

किसे  हम  सुनाते  कहाँ  गुनगुनाते ।
ग़ज़ल में हमारी हक़ीकत लिखी थी ।।

हमें   देखकर   तुम  हुए  थे  पशेमाँ ।
नज़र जब हमारी तुम्हारी मिली थी ।।

रखा तुमको महफ़ूज़ खुद से ज़ियादा ।
ज़िगर  में  तुम्हारी ही  सूरत बसी थी ।।

- विवेक मिश्र  'राज़'

ग़ज़ल 5
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - मिलेगा

नहीं  हीर  कोई  न  रांझा मिलेगा ।
तुम्हें आशिकी में तमाशा मिलेगा ।।

नसीहत नहीं  चाहता है भिखारी ।
हंसेगा तभी जब निबाला मिलेगा ।।

घरों से निकलकर हक़ीकत न ढूँढ़ो ।
नहीं तो तुम्हें सब दिखावा मिलेगा ।।

हमेशा बरसती नहीं आग बनकर ।
कभी  धूप  से भी सहारा मिलेगा ।।

कभी देखिए बांटकर 'राज़' खुद को ।
तुम्हें  प्यार  सबसे  ज़ियादा मिलेगा ।।

विवेक मिश्र 'राज़

ग़ज़ल 6
बह्र - 122  122  122  122
काफ़िया - ऐले
रदीफ़ - बहुत हैं

हमारे  सफर  में  झमेले बहुत हैं ।
भरी भीड़ में भी अकेले बहुत हैं ।।

नहीं चैन से हम अभी जी सकेंगे ।
अभी तो गए हम ढकेले बहुत हैं ।।

उसे  क़ामयाबी  नहीं यूं मिली है ।
शुरू में कहीं कष्ट  झेले बहुत हैं ।।

भुला हम सकेंगे न उन दोस्तों को ।
कभी साथ में जिनके खेले बहुत हैं ।।

खुली पोल बाबा की है 'राज़' जबसे ।
परेशान  अब  उनके  चेले  बहुत  हैं ।।

विवेक मिश्र 'राज़'

ग़ज़ल 7
बह्र - 122 122
काफ़िया - ई
रदीफ़ - हैं

हवा  चल  पड़ी  है ।
तभी  खलबली  है ।।

हुनर  जीतता  है ।
हक़ीक़त  यही है ।।

बचोगे  कहाँ  तक ।
नज़र लड़ चुकी है ।।

तुम्हारी  खुशी  में ।
मेरी   ज़िंदगी   है ।।

कहो 'राज़' खुलकर ।
मिली अब खुशी है ।।

- विवेक मिश्र 'राज़'

ग़ज़ल 8
बह्र - 2122   2122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - रही है

सांस  थमती जा रही है ।
शक्ल भी मुरझा रही है ।।

मौत से शिकवा नहीं है ।
ज़िन्दगी हड़का रही है ।।

वो मुझे मरहम दिखाकर ।
ज़ख्म  देती  आ रही  है ।।

जीस्त चौराहा हुई ज्यों ।
लक्ष्य से भटका रही है ।।

उंगलियां बेकार निकलीं ।
धूप  घी  पिघला रही है ।।

- विवेक मिश्र 'राज़'
शहांजहांपुर (उ०प्र०)

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