ग़ज़ल 1
बह्र- 122 122 122 122
काफ़िया - इल
रदीफ़ - रही है
हमारी तुम्हारी नज़र मिल रही है ।
तभी ज़िन्दगी फूल सी खिल रही है ।।
भरोसा करो इन जवां धड़कनों पर ।
नज़र ही नहीं सिर्फ क़ातिल रही है ।।
फटा दिल रफूगर नहीं जोड़ पाता ।
इसे चाहतों की सुई सिल रही है।
फँसा देख खुद को बड़े कटघरे में ।
जुबां शेर की भी नहीं हिल रही है ।।
चले तो गए 'राज़' होकर ख़फ़ा वो ।
उन्हें भी पता रात बोझिल रही है ।।
- विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 2
बहर - 2122 2122
काफ़िया - अम
रदीफ़ - नही है
आग मुझमें कम नहीं है ।
हाँ मगर अब गम नहीं है ।।
क़त्ल मेरा हो रहा है ।
आँख लेकिन नम नहीं है ।।
आज कल की ताकतों में ।
हौंसले का दम नहीं है ।।
देख लो तुम घाव देकर ।
हाथ में मरहम नहीं है ।।
'राज़' अब इंसानियत का ।
रह गया मौसम नहीं है ।।
विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 3
बह्र- 2122 2122
काफ़िया - ओ
रदीफ़ - रहे हैं
सब नकलची हो रहे हैं ।
इसलिए ही खो रहे हैं ।।
आँख से देखो ज़रा तुम ।
फूल भी अब रो रहे हैं ।।
जागना जिनको यहाँ था ।
चैन से वो सो रहे हैं ।।
जो फसल उगती नहीं है ।
क्यों भला हम बो रहे हैं ।।
'राज़' तुम खुद को संभालो ।
गन्दगी सब धो रहे हैं ।।
- विवेक मिश्र 'राज'
ग़ज़ल 4
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - ई
रदीफ - थी
अदालत ही कुछ बेमुरव्वत रही थी ।
सज़ा जिस तरह से सुनाई गयी थी ।।
उसी से रहा है जमाना ये रूठा ।
सही बात खुलकर के जिसने कही थी ।।
किसे हम सुनाते कहाँ गुनगुनाते ।
ग़ज़ल में हमारी हक़ीकत लिखी थी ।।
हमें देखकर तुम हुए थे पशेमाँ ।
नज़र जब हमारी तुम्हारी मिली थी ।।
रखा तुमको महफ़ूज़ खुद से ज़ियादा ।
ज़िगर में तुम्हारी ही सूरत बसी थी ।।
- विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 5
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - मिलेगा
नहीं हीर कोई न रांझा मिलेगा ।
तुम्हें आशिकी में तमाशा मिलेगा ।।
नसीहत नहीं चाहता है भिखारी ।
हंसेगा तभी जब निबाला मिलेगा ।।
घरों से निकलकर हक़ीकत न ढूँढ़ो ।
नहीं तो तुम्हें सब दिखावा मिलेगा ।।
हमेशा बरसती नहीं आग बनकर ।
कभी धूप से भी सहारा मिलेगा ।।
कभी देखिए बांटकर 'राज़' खुद को ।
तुम्हें प्यार सबसे ज़ियादा मिलेगा ।।
विवेक मिश्र 'राज़
ग़ज़ल 6
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - ऐले
रदीफ़ - बहुत हैं
हमारे सफर में झमेले बहुत हैं ।
भरी भीड़ में भी अकेले बहुत हैं ।।
नहीं चैन से हम अभी जी सकेंगे ।
अभी तो गए हम ढकेले बहुत हैं ।।
उसे क़ामयाबी नहीं यूं मिली है ।
शुरू में कहीं कष्ट झेले बहुत हैं ।।
भुला हम सकेंगे न उन दोस्तों को ।
कभी साथ में जिनके खेले बहुत हैं ।।
खुली पोल बाबा की है 'राज़' जबसे ।
परेशान अब उनके चेले बहुत हैं ।।
विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 7
बह्र - 122 122
काफ़िया - ई
रदीफ़ - हैं
हवा चल पड़ी है ।
तभी खलबली है ।।
हुनर जीतता है ।
हक़ीक़त यही है ।।
बचोगे कहाँ तक ।
नज़र लड़ चुकी है ।।
तुम्हारी खुशी में ।
मेरी ज़िंदगी है ।।
कहो 'राज़' खुलकर ।
मिली अब खुशी है ।।
- विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 8
बह्र - 2122 2122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - रही है
सांस थमती जा रही है ।
शक्ल भी मुरझा रही है ।।
मौत से शिकवा नहीं है ।
ज़िन्दगी हड़का रही है ।।
वो मुझे मरहम दिखाकर ।
ज़ख्म देती आ रही है ।।
जीस्त चौराहा हुई ज्यों ।
लक्ष्य से भटका रही है ।।
उंगलियां बेकार निकलीं ।
धूप घी पिघला रही है ।।
- विवेक मिश्र 'राज़'
शहांजहांपुर (उ०प्र०)
बह्र- 122 122 122 122
काफ़िया - इल
रदीफ़ - रही है
हमारी तुम्हारी नज़र मिल रही है ।
तभी ज़िन्दगी फूल सी खिल रही है ।।
भरोसा करो इन जवां धड़कनों पर ।
नज़र ही नहीं सिर्फ क़ातिल रही है ।।
फटा दिल रफूगर नहीं जोड़ पाता ।
इसे चाहतों की सुई सिल रही है।
फँसा देख खुद को बड़े कटघरे में ।
जुबां शेर की भी नहीं हिल रही है ।।
चले तो गए 'राज़' होकर ख़फ़ा वो ।
उन्हें भी पता रात बोझिल रही है ।।
- विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 2
बहर - 2122 2122
काफ़िया - अम
रदीफ़ - नही है
आग मुझमें कम नहीं है ।
हाँ मगर अब गम नहीं है ।।
क़त्ल मेरा हो रहा है ।
आँख लेकिन नम नहीं है ।।
आज कल की ताकतों में ।
हौंसले का दम नहीं है ।।
देख लो तुम घाव देकर ।
हाथ में मरहम नहीं है ।।
'राज़' अब इंसानियत का ।
रह गया मौसम नहीं है ।।
विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 3
बह्र- 2122 2122
काफ़िया - ओ
रदीफ़ - रहे हैं
सब नकलची हो रहे हैं ।
इसलिए ही खो रहे हैं ।।
आँख से देखो ज़रा तुम ।
फूल भी अब रो रहे हैं ।।
जागना जिनको यहाँ था ।
चैन से वो सो रहे हैं ।।
जो फसल उगती नहीं है ।
क्यों भला हम बो रहे हैं ।।
'राज़' तुम खुद को संभालो ।
गन्दगी सब धो रहे हैं ।।
- विवेक मिश्र 'राज'
ग़ज़ल 4
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - ई
रदीफ - थी
अदालत ही कुछ बेमुरव्वत रही थी ।
सज़ा जिस तरह से सुनाई गयी थी ।।
उसी से रहा है जमाना ये रूठा ।
सही बात खुलकर के जिसने कही थी ।।
किसे हम सुनाते कहाँ गुनगुनाते ।
ग़ज़ल में हमारी हक़ीकत लिखी थी ।।
हमें देखकर तुम हुए थे पशेमाँ ।
नज़र जब हमारी तुम्हारी मिली थी ।।
रखा तुमको महफ़ूज़ खुद से ज़ियादा ।
ज़िगर में तुम्हारी ही सूरत बसी थी ।।
- विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 5
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - मिलेगा
नहीं हीर कोई न रांझा मिलेगा ।
तुम्हें आशिकी में तमाशा मिलेगा ।।
नसीहत नहीं चाहता है भिखारी ।
हंसेगा तभी जब निबाला मिलेगा ।।
घरों से निकलकर हक़ीकत न ढूँढ़ो ।
नहीं तो तुम्हें सब दिखावा मिलेगा ।।
हमेशा बरसती नहीं आग बनकर ।
कभी धूप से भी सहारा मिलेगा ।।
कभी देखिए बांटकर 'राज़' खुद को ।
तुम्हें प्यार सबसे ज़ियादा मिलेगा ।।
विवेक मिश्र 'राज़
ग़ज़ल 6
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - ऐले
रदीफ़ - बहुत हैं
हमारे सफर में झमेले बहुत हैं ।
भरी भीड़ में भी अकेले बहुत हैं ।।
नहीं चैन से हम अभी जी सकेंगे ।
अभी तो गए हम ढकेले बहुत हैं ।।
उसे क़ामयाबी नहीं यूं मिली है ।
शुरू में कहीं कष्ट झेले बहुत हैं ।।
भुला हम सकेंगे न उन दोस्तों को ।
कभी साथ में जिनके खेले बहुत हैं ।।
खुली पोल बाबा की है 'राज़' जबसे ।
परेशान अब उनके चेले बहुत हैं ।।
विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 7
बह्र - 122 122
काफ़िया - ई
रदीफ़ - हैं
हवा चल पड़ी है ।
तभी खलबली है ।।
हुनर जीतता है ।
हक़ीक़त यही है ।।
बचोगे कहाँ तक ।
नज़र लड़ चुकी है ।।
तुम्हारी खुशी में ।
मेरी ज़िंदगी है ।।
कहो 'राज़' खुलकर ।
मिली अब खुशी है ।।
- विवेक मिश्र 'राज़'
ग़ज़ल 8
बह्र - 2122 2122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - रही है
सांस थमती जा रही है ।
शक्ल भी मुरझा रही है ।।
मौत से शिकवा नहीं है ।
ज़िन्दगी हड़का रही है ।।
वो मुझे मरहम दिखाकर ।
ज़ख्म देती आ रही है ।।
जीस्त चौराहा हुई ज्यों ।
लक्ष्य से भटका रही है ।।
उंगलियां बेकार निकलीं ।
धूप घी पिघला रही है ।।
- विवेक मिश्र 'राज़'
शहांजहांपुर (उ०प्र०)
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