ग़ज़ल 1
बहर-2×15
काफ़िया- आ स्वर
रदीफ़-करता हूँ
मैं पागल सायों के पीछे - पीछे भागा करता हूँ ।
वीरानों में गीत मिलन के अक्सर गाया करता हूँ ।।
अब केवल मयखाने में ही चैन मेरा दिल पाता है ।
मन्दिर मस्जिद की राहों पर मैं तो बहका करता हूँ ।।
क्या जानूँ नयनों की भाषा खुद को जैसे भूल गया ।
गैरों से आंसू लेकर मैं भी तो रोया करता हूँ ।।
कल की भोर नही देखूँ मैं ऐ मालिक दिल ऊब गया ।
लिख देता हूँ रोज वसीयत जब मैं सोया करता हूँ ।।
मैं नवयुग बातें क्या जानूँ कुछ भी सीख नहीं पाया ।
पर इतना संज्ञान है मुझको कागज काला करता हूँ ।।
लगते हैं अपने बेगाने भूला बस्ती हस्ती सब ।
अपने घर की राह सभी से मैं खुद पूछा करता हूँ ।।।
कोई बात हुई ऐसी जो मुझको भी मालूम नहीं ।
क्यूँ तेरे बारे में खुद से ज्यादा सोचा करता हूँ ।।
"सोम"भला कैसा शिक़वा जो कोई अपना खास नहीं ।
अपनों के कारण अपनों को रोते देखा करता हूँ ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 2
बह्र- 212 212 212 212
काफ़िया- अर
रदीफ़- जाएगा
जान भी जायेगी ये जिगर जाएगा ।
ऐसे देखो न आशिक तो मर जाएगा ।।
फूल नाज़ुक है ये इसको छूना नहीं ।
टूटकर बस जमीं पर बिखर जाएगा ।।
है नशा तो अभी मैं शहंशाह हूँ ।
ये नशा रात भर में उतर जाएगा ।।
चैन पाता नहीं अपने घर में अगर ।
जा रहा है तो जा तू किधर जाएगा ।।
कुछ निकल जायेगी आँसुओं में तपन ।
वक्त के साथ हर जख़्म भर जाएगा ।।
खुद तमाशा बनेगा वो संसार में ।
जो मेरे दिल से यूं खेलकर जाएगा ।।
मत पढ़ो जोर से सुर्खियां आजकल ।
पेट में भी जो बच्चा है डर जाएगा ।।
रंगतों के लिए भागना छोड़ दे ।
तितलियाँ तो मिलेंगीं जिधर जाएगा ।।
"सोम" रुख से अगर वो हटा दें घूँघट ।
वक्त भी एक पल को ठहर जाएगा ।।
घूँघट - मुख ढकने का जालीदार कपड़ा
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 3
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- ई
रदीफ़- है
किसी की चाह यूं दिल में दबी है ।
कहूँ कैसे बड़ी ही बेबसी है ।।
जहाँ भी देखता हूँ तीरगी है ।
दिनों-दिन बढ़ रही आवारगी है ।।
उदासी के भँवर में चाँद डूबा ।
बहुत सहमी हुई सी चाँदनी है ।।
नहीं परवाह मुझको मुश्किलों की ।
डगर काँटों भरी मैंने चुनी है ।।
चले आओ मेरे दिलवर कहाँ हो ।
हवा रूख़ी फिज़ा भी अनमनी है ।।
जिसे है टूटकर मुझसे मुहब्बत ।
करे गुस्सा कभी तो लाज़मी है ।।
कहो किसको पता कब रूठ जाए ।
बड़ी ही वेवफ़ा ये जिन्दगी है ।।
गले लग जा कयामत आ लिपट जा ।
पता किससे मेरा तू पूछती है ।।
सजाये कौन टूटे ख़्वाव हैं जो ।
बड़ा ही मतलबी अब आदमी है ।।
अँधेरों से निकल कर "सोम" देखो ।
जहां में रोशनी ही रोशनी है ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 4
बहर~122 122 122 122
काफ़िया - आओ
रदीफ़ - गैर मुरद्दफ
खड़े दूर क्यों हो जरा पास आओ ।
मुहब्बत में ऐसे न दिल को जलाओ ।।
हजारों जवां दिल मचल ही उठेंगे ।
अदाओं से यूं बिजलियाँ मत गिराओ ।।
भरी मस्तियाँ जो निगाहों में, पीलूँ ।
कभी पास आकर तो नजरें मिलाओ ।।
मुझे यूं सताओ न अपना बनाकर ।
कभी प्यार से नाम लेकर बुलाओ ।।
लगेगी बहुत चोट नाजुक बदन पर ।
हवाओं सुनो पास उनके न जाओ ।।
सुने"सोम"किस्से जो चाहत वफ़ा के ।
कभी मैं सुनाऊँ कभी तुम सुनाओ ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 5
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- आ (स्वर)
रदीफ़- है
मुकद्दर आजकल मुझसे ख़फ़ा है ।
अभी बर्बादियों का सिलसिला है ।।
फिरा सारे जमाने में भटकता ।
सकूं फिर भी नहीं घर सा मिला है ।।
निगाहों से पिलाया क्या बता दो ।
उतरता ही नहीं कैसा नशा है ।।
इरादों में बुलंदी हो तो समझो ।
तुम्हारे सामने अम्बर झुका है ।।
जिसे अहसास अपनी भूल का हो ।
नहीं उसके लिये कोई सजा है ।।
कहूँ आबाद कैसे इस जहां को ।
यहाँ कोई नहीं हँसता दिखा है ।।
परेशां "सोम" दुश्मन इसलिये भी ।
बचा लेती मुझे माँ की दुआ है ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
गजल 6
बहर~122 122 122 122
काफ़िया- आरे
रदीफ़- सलामत
नज़र भी सलामत नजारे सलामत ।
सदा खुश रहो तुम तुम्हारे सलामत ।।
गिराते रहो बिजलियाँ यूं दिलों पे ।
हसीं शोख़ कातिल इशारे सलामत ।।
नहाते रहो इश्क की रोशनी में ।
रहें जबतलक ये सितारे सलामत ।।
दिया छोड़ इस मुफ़लिसी में सभी ने ।
बहुत है जो ग़म के सहारे सलामत ।।
हुई एक मुद्दत मुझे उनसे बिछुड़े ।
बुझी आग लेकिन शरारे सलामत ।।
उठा जो कभी कोई' तूफान तो भी ।
उफनतीं ये मौजें किनारे सलामत ।।
यही सोच तो "सोम" करते दुआ हैं ।
तभी हम सुखी जब हमारे सलामत ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 7
बह्र- 2122 1212 22
काफ़िया- आरा
रदीफ़- है
आज कहता जहान सारा है ।
आदमी आदमी से हारा है ।।
चाँद से चाँदनी लगे रूठी ।
यार गर्दिश में जो सितारा है ।।
भूल सकता नही कभी यारों ।
वक्त जो साथ में गुजारा है ।।
मछलियाँ छोड़ के कहाँ जायें ।
आज पानी हुआ जो खारा है ।।
कोई मिलता कोई जुदा होता ।
बहती जाती समय की धारा है ।।
भूल पाऊँ नही कभी तुमको ।
हर तरफ हो रहा नजारा है ।।
आँख जब बंद हो गई उसकी ।
वो न बोला बहुत पुकारा है ।।
बेसहारा कहाँ हुआ हूँ मैं ।
तेरी हर याद का सहारा है ।।
"सोम" बैठो न हार कर यूं भी ।
वक्त का भी यही इशारा है ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 8
बहर-2122 2122 2122 212
काफ़िया- आओ
रदीफ़- आप जो
एक पल जी लूं खुशी से पास आओ आप जो ।
बैठ कर पहलू में' मेरे मुस्कुराओ आप जो ।।
मैं यहाँ से देखता हूँ चाँद देखो आप भी ।
इस तरह ही दूरियाँ थोड़ी मिटाओ आप जो ।।
जान इतना जानिए ये जिंदगी हो खुशनुमा ।
नाम का सिंदूर मेरे जो लगाओ आप तो ।।
माप लें इक दूसरे की सासों की गहराइयाँ ।
आज मुझको भी डुबो कर डूब जाओ आप जो ।।
अब तलक अपने मुझे हर दौर तड़फ़ाते रहे ।
आपसे शिकवा गिला क्या दिल जलाओ आप जो ।।
आँसुओं से ही लिखी है अपने दिल की दास्ताँ ।
हँस रहे हैं सब खता क्या खिलखिलाओ आप जो ।।
जानता भाषा नजर की मैं नजर से बोलता ।
आपके दिल को पढूँ नजरें मिलाओ आप जो ।।
"सोम" इश्को आशिकी में यूं कई शायर बने ।
इक ग़ज़ल मैं भी लिखूँ अब गुनगुनाओ आप जो ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
बहर-2×15
काफ़िया- आ स्वर
रदीफ़-करता हूँ
मैं पागल सायों के पीछे - पीछे भागा करता हूँ ।
वीरानों में गीत मिलन के अक्सर गाया करता हूँ ।।
अब केवल मयखाने में ही चैन मेरा दिल पाता है ।
मन्दिर मस्जिद की राहों पर मैं तो बहका करता हूँ ।।
क्या जानूँ नयनों की भाषा खुद को जैसे भूल गया ।
गैरों से आंसू लेकर मैं भी तो रोया करता हूँ ।।
कल की भोर नही देखूँ मैं ऐ मालिक दिल ऊब गया ।
लिख देता हूँ रोज वसीयत जब मैं सोया करता हूँ ।।
मैं नवयुग बातें क्या जानूँ कुछ भी सीख नहीं पाया ।
पर इतना संज्ञान है मुझको कागज काला करता हूँ ।।
लगते हैं अपने बेगाने भूला बस्ती हस्ती सब ।
अपने घर की राह सभी से मैं खुद पूछा करता हूँ ।।।
कोई बात हुई ऐसी जो मुझको भी मालूम नहीं ।
क्यूँ तेरे बारे में खुद से ज्यादा सोचा करता हूँ ।।
"सोम"भला कैसा शिक़वा जो कोई अपना खास नहीं ।
अपनों के कारण अपनों को रोते देखा करता हूँ ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 2
बह्र- 212 212 212 212
काफ़िया- अर
रदीफ़- जाएगा
जान भी जायेगी ये जिगर जाएगा ।
ऐसे देखो न आशिक तो मर जाएगा ।।
फूल नाज़ुक है ये इसको छूना नहीं ।
टूटकर बस जमीं पर बिखर जाएगा ।।
है नशा तो अभी मैं शहंशाह हूँ ।
ये नशा रात भर में उतर जाएगा ।।
चैन पाता नहीं अपने घर में अगर ।
जा रहा है तो जा तू किधर जाएगा ।।
कुछ निकल जायेगी आँसुओं में तपन ।
वक्त के साथ हर जख़्म भर जाएगा ।।
खुद तमाशा बनेगा वो संसार में ।
जो मेरे दिल से यूं खेलकर जाएगा ।।
मत पढ़ो जोर से सुर्खियां आजकल ।
पेट में भी जो बच्चा है डर जाएगा ।।
रंगतों के लिए भागना छोड़ दे ।
तितलियाँ तो मिलेंगीं जिधर जाएगा ।।
"सोम" रुख से अगर वो हटा दें घूँघट ।
वक्त भी एक पल को ठहर जाएगा ।।
घूँघट - मुख ढकने का जालीदार कपड़ा
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 3
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- ई
रदीफ़- है
किसी की चाह यूं दिल में दबी है ।
कहूँ कैसे बड़ी ही बेबसी है ।।
जहाँ भी देखता हूँ तीरगी है ।
दिनों-दिन बढ़ रही आवारगी है ।।
उदासी के भँवर में चाँद डूबा ।
बहुत सहमी हुई सी चाँदनी है ।।
नहीं परवाह मुझको मुश्किलों की ।
डगर काँटों भरी मैंने चुनी है ।।
चले आओ मेरे दिलवर कहाँ हो ।
हवा रूख़ी फिज़ा भी अनमनी है ।।
जिसे है टूटकर मुझसे मुहब्बत ।
करे गुस्सा कभी तो लाज़मी है ।।
कहो किसको पता कब रूठ जाए ।
बड़ी ही वेवफ़ा ये जिन्दगी है ।।
गले लग जा कयामत आ लिपट जा ।
पता किससे मेरा तू पूछती है ।।
सजाये कौन टूटे ख़्वाव हैं जो ।
बड़ा ही मतलबी अब आदमी है ।।
अँधेरों से निकल कर "सोम" देखो ।
जहां में रोशनी ही रोशनी है ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 4
बहर~122 122 122 122
काफ़िया - आओ
रदीफ़ - गैर मुरद्दफ
खड़े दूर क्यों हो जरा पास आओ ।
मुहब्बत में ऐसे न दिल को जलाओ ।।
हजारों जवां दिल मचल ही उठेंगे ।
अदाओं से यूं बिजलियाँ मत गिराओ ।।
भरी मस्तियाँ जो निगाहों में, पीलूँ ।
कभी पास आकर तो नजरें मिलाओ ।।
मुझे यूं सताओ न अपना बनाकर ।
कभी प्यार से नाम लेकर बुलाओ ।।
लगेगी बहुत चोट नाजुक बदन पर ।
हवाओं सुनो पास उनके न जाओ ।।
सुने"सोम"किस्से जो चाहत वफ़ा के ।
कभी मैं सुनाऊँ कभी तुम सुनाओ ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 5
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- आ (स्वर)
रदीफ़- है
मुकद्दर आजकल मुझसे ख़फ़ा है ।
अभी बर्बादियों का सिलसिला है ।।
फिरा सारे जमाने में भटकता ।
सकूं फिर भी नहीं घर सा मिला है ।।
निगाहों से पिलाया क्या बता दो ।
उतरता ही नहीं कैसा नशा है ।।
इरादों में बुलंदी हो तो समझो ।
तुम्हारे सामने अम्बर झुका है ।।
जिसे अहसास अपनी भूल का हो ।
नहीं उसके लिये कोई सजा है ।।
कहूँ आबाद कैसे इस जहां को ।
यहाँ कोई नहीं हँसता दिखा है ।।
परेशां "सोम" दुश्मन इसलिये भी ।
बचा लेती मुझे माँ की दुआ है ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
गजल 6
बहर~122 122 122 122
काफ़िया- आरे
रदीफ़- सलामत
नज़र भी सलामत नजारे सलामत ।
सदा खुश रहो तुम तुम्हारे सलामत ।।
गिराते रहो बिजलियाँ यूं दिलों पे ।
हसीं शोख़ कातिल इशारे सलामत ।।
नहाते रहो इश्क की रोशनी में ।
रहें जबतलक ये सितारे सलामत ।।
दिया छोड़ इस मुफ़लिसी में सभी ने ।
बहुत है जो ग़म के सहारे सलामत ।।
हुई एक मुद्दत मुझे उनसे बिछुड़े ।
बुझी आग लेकिन शरारे सलामत ।।
उठा जो कभी कोई' तूफान तो भी ।
उफनतीं ये मौजें किनारे सलामत ।।
यही सोच तो "सोम" करते दुआ हैं ।
तभी हम सुखी जब हमारे सलामत ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 7
बह्र- 2122 1212 22
काफ़िया- आरा
रदीफ़- है
आज कहता जहान सारा है ।
आदमी आदमी से हारा है ।।
चाँद से चाँदनी लगे रूठी ।
यार गर्दिश में जो सितारा है ।।
भूल सकता नही कभी यारों ।
वक्त जो साथ में गुजारा है ।।
मछलियाँ छोड़ के कहाँ जायें ।
आज पानी हुआ जो खारा है ।।
कोई मिलता कोई जुदा होता ।
बहती जाती समय की धारा है ।।
भूल पाऊँ नही कभी तुमको ।
हर तरफ हो रहा नजारा है ।।
आँख जब बंद हो गई उसकी ।
वो न बोला बहुत पुकारा है ।।
बेसहारा कहाँ हुआ हूँ मैं ।
तेरी हर याद का सहारा है ।।
"सोम" बैठो न हार कर यूं भी ।
वक्त का भी यही इशारा है ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
ग़ज़ल 8
बहर-2122 2122 2122 212
काफ़िया- आओ
रदीफ़- आप जो
एक पल जी लूं खुशी से पास आओ आप जो ।
बैठ कर पहलू में' मेरे मुस्कुराओ आप जो ।।
मैं यहाँ से देखता हूँ चाँद देखो आप भी ।
इस तरह ही दूरियाँ थोड़ी मिटाओ आप जो ।।
जान इतना जानिए ये जिंदगी हो खुशनुमा ।
नाम का सिंदूर मेरे जो लगाओ आप तो ।।
माप लें इक दूसरे की सासों की गहराइयाँ ।
आज मुझको भी डुबो कर डूब जाओ आप जो ।।
अब तलक अपने मुझे हर दौर तड़फ़ाते रहे ।
आपसे शिकवा गिला क्या दिल जलाओ आप जो ।।
आँसुओं से ही लिखी है अपने दिल की दास्ताँ ।
हँस रहे हैं सब खता क्या खिलखिलाओ आप जो ।।
जानता भाषा नजर की मैं नजर से बोलता ।
आपके दिल को पढूँ नजरें मिलाओ आप जो ।।
"सोम" इश्को आशिकी में यूं कई शायर बने ।
इक ग़ज़ल मैं भी लिखूँ अब गुनगुनाओ आप जो ।।
शैलेन्द्र खरे"सोम"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
हिंदी साहित्य वैभव पर आने के लिए धन्यवाद । अगर आपको यह post पसंद आया हो तो कृपया इसे शेयर कीजिये और comments करके बताये की आपको यह कैसा लगा और हमारे आने वाले आर्टिक्ल को पाने के लिए फ्री मे subscribe करे
अगर आपके पास हमारे ब्लॉग या ब्लॉग पोस्ट से संबंधित कोई भी समस्या है तो कृपया अवगत करायें ।
अपनी कविता, गज़लें, कहानी, जीवनी, अपनी छवि या नाम के साथ हमारे मेल या वाटसअप नं. पर भेजें, हम आपकी पढ़ने की सामग्री के लिए प्रकाशित करेंगे
भेजें: - Aksbadauni@gmail.com
वाटसअप न. - 9627193400