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शनिवार, 12 मई 2018

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में शैलेन्द्र खरे "सोम' की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल   1
बहर-2×15
काफ़िया- आ स्वर
रदीफ़-करता हूँ

मैं  पागल  सायों  के  पीछे - पीछे  भागा  करता हूँ ।
वीरानों  में  गीत  मिलन  के अक्सर गाया करता हूँ ।।

अब केवल मयखाने में  ही  चैन  मेरा दिल पाता है ।
मन्दिर मस्जिद की राहों  पर मैं तो बहका करता हूँ ।।

क्या जानूँ नयनों की भाषा खुद को जैसे भूल गया ।
गैरों  से  आंसू  लेकर  मैं  भी  तो   रोया  करता हूँ ।।

कल  की भोर नही देखूँ मैं ऐ मालिक दिल ऊब गया ।
लिख  देता  हूँ  रोज  वसीयत जब मैं सोया करता हूँ ।।

मैं नवयुग बातें क्या जानूँ कुछ भी सीख नहीं पाया ।
पर इतना संज्ञान है मुझको कागज काला करता हूँ ।।

लगते  हैं  अपने   बेगाने  भूला  बस्ती  हस्ती  सब ।
अपने घर की  राह सभी  से मैं खुद पूछा करता हूँ ।।।

कोई बात  हुई  ऐसी  जो  मुझको  भी मालूम नहीं ।
क्यूँ  तेरे  बारे   में  खुद  से  ज्यादा सोचा करता हूँ ।।

"सोम"भला कैसा शिक़वा जो कोई अपना खास नहीं ।
अपनों  के  कारण  अपनों  को  रोते  देखा  करता  हूँ ।।
                                     
शैलेन्द्र खरे"सोम"

ग़ज़ल  2
बह्र- 212 212 212 212
काफ़िया- अर
रदीफ़- जाएगा

जान भी  जायेगी  ये   जिगर  जाएगा ।
ऐसे देखो न  आशिक तो  मर जाएगा ।।

फूल  नाज़ुक  है ये  इसको  छूना नहीं ।
टूटकर बस जमीं पर बिखर  जाएगा ।।

है   नशा   तो   अभी   मैं    शहंशाह हूँ ।
ये  नशा  रात   भर   में  उतर  जाएगा ।।

चैन  पाता  नहीं  अपने   घर  में अगर ।
जा  रहा है तो  जा  तू  किधर जाएगा ।।

कुछ निकल जायेगी  आँसुओं में तपन ।
वक्त के  साथ  हर  जख़्म भर जाएगा ।।

खुद   तमाशा   बनेगा   वो   संसार  में ।
जो  मेरे  दिल  से  यूं  खेलकर जाएगा ।।

मत पढ़ो  जोर  से सुर्खियां आजकल ।
पेट  में  भी  जो  बच्चा है डर जाएगा ।।

रंगतों   के    लिए   भागना    छोड़ दे ।
तितलियाँ  तो मिलेंगीं  जिधर जाएगा ।।

"सोम" रुख  से अगर वो हटा  दें  घूँघट ।
वक्त  भी  एक  पल  को  ठहर जाएगा ।।

घूँघट - मुख ढकने का जालीदार कपड़ा

शैलेन्द्र खरे"सोम"

ग़ज़ल  3
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- ई
रदीफ़- है

किसी  की  चाह  यूं  दिल में दबी है ।
कहूँ    कैसे    बड़ी    ही   बेबसी है ।।

जहाँ   भी    देखता    हूँ   तीरगी है ।
दिनों-दिन   बढ़   रही   आवारगी है ।।

उदासी  के   भँवर    में   चाँद  डूबा ।
बहुत   सहमी   हुई   सी  चाँदनी  है ।।

नहीं  परवाह  मुझको  मुश्किलों की ।
डगर    काँटों   भरी    मैंने   चुनी है ।।

चले  आओ  मेरे   दिलवर  कहाँ हो ।
हवा  रूख़ी  फिज़ा  भी  अनमनी है ।।

जिसे   है  टूटकर   मुझसे   मुहब्बत ।
करे  गुस्सा   कभी   तो  लाज़मी  है ।।

कहो  किसको  पता कब रूठ जाए ।
बड़ी    ही   वेवफ़ा    ये  जिन्दगी है ।।

गले लग जा कयामत आ लिपट जा ।
पता   किससे   मेरा   तू   पूछती  है ।।

सजाये   कौन  टूटे   ख़्वाव   हैं  जो ।
बड़ा  ही  मतलबी   अब  आदमी है ।।

अँधेरों  से  निकल  कर "सोम" देखो ।
जहां   में   रोशनी    ही    रोशनी  है ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"

ग़ज़ल  4
बहर~122 122 122 122
काफ़िया - आओ
रदीफ़ - गैर मुरद्दफ

खड़े दूर  क्यों   हो  जरा  पास आओ ।
मुहब्बत में  ऐसे  न  दिल को जलाओ ।।

हजारों  जवां   दिल  मचल  ही  उठेंगे ।
अदाओं से यूं बिजलियाँ  मत गिराओ ।।

भरी  मस्तियाँ   जो  निगाहों  में, पीलूँ ।
कभी पास आकर  तो नजरें मिलाओ ।।

मुझे  यूं  सताओ  न  अपना  बनाकर ।
कभी  प्यार  से  नाम  लेकर  बुलाओ ।।

लगेगी बहुत  चोट  नाजुक  बदन पर ।
हवाओं  सुनो  पास   उनके  न जाओ ।।

सुने"सोम"किस्से जो  चाहत वफ़ा के ।
कभी  मैं  सुनाऊँ  कभी  तुम सुनाओ ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"

ग़ज़ल 5
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- आ (स्वर)
रदीफ़- है

मुकद्दर आजकल मुझसे ख़फ़ा है ।
अभी बर्बादियों का  सिलसिला है ।।

फिरा  सारे   जमाने   में  भटकता ।
सकूं फिर भी नहीं घर सा मिला है ।।

निगाहों से पिलाया क्या  बता दो ।
उतरता  ही   नहीं   कैसा  नशा है ।।

इरादों  में  बुलंदी  हो  तो  समझो ।
तुम्हारे   सामने  अम्बर   झुका है ।।

जिसे अहसास अपनी भूल का हो ।
नहीं  उसके   लिये  कोई  सजा है ।।

कहूँ आबाद  कैसे  इस  जहां को ।
यहाँ  कोई  नहीं  हँसता  दिखा है ।।

परेशां "सोम" दुश्मन  इसलिये भी ।
बचा  लेती  मुझे  माँ  की  दुआ है ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"


गजल  6
बहर~122 122 122 122
काफ़िया- आरे
रदीफ़-  सलामत

नज़र भी  सलामत नजारे सलामत ।
सदा खुश रहो तुम तुम्हारे सलामत ।।

गिराते  रहो   बिजलियाँ यूं दिलों पे ।
हसीं शोख़  कातिल इशारे सलामत ।।

नहाते   रहो   इश्क   की  रोशनी में ।
रहें जबतलक  ये  सितारे  सलामत ।।

दिया छोड़ इस मुफ़लिसी में सभी ने ।
बहुत है जो ग़म  के सहारे सलामत ।।

हुई  एक  मुद्दत  मुझे  उनसे बिछुड़े ।
बुझी  आग  लेकिन शरारे सलामत ।।

उठा जो कभी  कोई' तूफान तो भी ।
उफनतीं ये  मौजें  किनारे सलामत ।।

यही सोच  तो  "सोम" करते दुआ हैं ।
तभी हम सुखी जब हमारे सलामत ।।

 शैलेन्द्र खरे"सोम"


ग़ज़ल  7
बह्र-  2122  1212  22
काफ़िया- आरा
रदीफ़- है

आज  कहता  जहान सारा है ।
आदमी   आदमी  से  हारा है ।।

चाँद  से   चाँदनी   लगे  रूठी ।
यार  गर्दिश  में जो सितारा है ।।

भूल सकता  नही  कभी यारों ।
वक्त  जो  साथ  में  गुजारा है ।।

मछलियाँ छोड़ के कहाँ जायें ।
आज पानी हुआ जो  खारा है ।।

कोई  मिलता  कोई जुदा होता ।
बहती जाती समय की धारा है ।।

भूल  पाऊँ नही  कभी  तुमको ।
हर  तरफ  हो  रहा  नजारा  है ।।

आँख  जब बंद हो गई उसकी ।
वो न  बोला  बहुत  पुकारा है ।।

बेसहारा   कहाँ   हुआ  हूँ   मैं ।
तेरी  हर  याद  का  सहारा है ।।

"सोम" बैठो  न हार कर यूं भी ।
वक्त  का  भी  यही  इशारा है ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"


ग़ज़ल  8
बहर-2122 2122 2122 212
काफ़िया- आओ
रदीफ़-  आप जो

एक  पल  जी  लूं  खुशी  से पास आओ आप जो ।
बैठ   कर   पहलू   में'   मेरे   मुस्कुराओ  आप जो ।।

मैं   यहाँ   से   देखता   हूँ   चाँद   देखो  आप  भी ।
इस  तरह   ही   दूरियाँ  थोड़ी  मिटाओ  आप जो ।।

जान  इतना   जानिए    ये  जिंदगी   हो  खुशनुमा ।
नाम   का    सिंदूर   मेरे   जो   लगाओ  आप  तो ।।

माप  लें  इक  दूसरे    की   सासों   की  गहराइयाँ ।
आज  मुझको  भी डुबो  कर डूब जाओ आप जो ।।

अब तलक  अपने   मुझे   हर   दौर   तड़फ़ाते  रहे ।
आपसे शिकवा गिला क्या दिल जलाओ आप जो ।।

आँसुओं  से  ही  लिखी  है  अपने दिल की दास्ताँ ।
हँस रहे हैं सब खता क्या खिलखिलाओ आप जो ।।

जानता  भाषा   नजर   की   मैं  नजर  से  बोलता ।
आपके  दिल  को  पढूँ  नजरें  मिलाओ  आप जो ।।

"सोम"  इश्को  आशिकी  में   यूं  कई  शायर  बने ।
इक ग़ज़ल मैं भी  लिखूँ अब गुनगुनाओ आप जो ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"

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