गज़ल क्र० 1
बह्र - 1222 1222 122
क़ाफ़िया~ आना
रदीफ़~ आ गया है
कहाँ किसको निभाना आ गया है ।
बड़ा ज़ालिम जमाना आ गया है ।।
अँधेरे में चलाया तीर ऐसे ।
निशाने पर निशाना आ गया है ।।
हुईं आँखें नशीली लब गुलाबी ।
कि साकी को पिलाना आ गया है ।।
जवानी जब चटकती है महकती ।
कली को मुस्कराना आ गया है ।।
लिफाफे पर चमक होना जरूरी ।
नये में फिर पुराना आ गया है ।।
चलेगा दौर कब तक ये पता क्या ।
"सरस" सिक्का जमाना आ गया ।।
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल क्र 2
बह्र - 1222 1222 1222
क़ाफ़िया- आने
रदीफ़ - का मिले मौका
कली को मुस्कराने का मिले मौका ।
भ्रमर को गुनगुनाने का मिले मौका ।।
सजी अभिसारिका मिलने चली आयी ।
कभी तो आजमाने का मिले मौका ।।
तपेगा ताप कब तक मैं रहूँ प्यासा ।
भरी बारिश नहाने का मिले मौका ।।
जवाँ - सी चाँदनी रूठी हुई बैठी ।
हँसाने का मनाने का मिले मौका ।।
समय काटे नहीं कटता अकेला हूँ ।
तुम्हें भी तो बुलाने का मिले मौका ।।
तुम्हारे एक आने से ये हसीं महफिल ।
"सरस" अपना बनाने का मिले मौका ।।
© दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल 3
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आरा
रदीफ - नहीं है
यहाँ आज कोई हमारा नहीं है ।
जमाना बुरा है सहारा नहीं है ।।
हवा में उड़ेंगे अभी और ऊपर ।
खुदा का कोई तो इशारा नहीं है ।।
अभी और फाँके गरीबी के कितने ।
बड़ी मुफलिसी है गुजारा नहीं है ।।
नदी-सी सदी है चली जा रही है ।
कहाँ जा रही है विचारा नहीं है ।।
उछाला गया है सरस दोष किसका ।
हमारा नहीं है तुम्हारा नहीं है ।।
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल 4
बह्र - 1222 1222 1222
काफ़िया - इयों
रदीफ - पर है
सियासत गोटियों की बोंटियों पर है ।
कहीं रोटी कहीं तो बेटियों पर है ।।
सुनायी दे रही वो चीख कैसी है ।
खबर कैसे नहीं जो सुर्खियों पर है ।।
गरीबों का निवाला छीन लेता जो ।
दलालों की दलाली मंत्रियों पर है ।।
भरोसा एकता का तोड़ मत देना ।
बड़ी आफ़त हमारे साथियों पर है ।।
शराफ़त का ढिढोरा पीटने वाले ।
बुरा हर काम काला मर्जियों पर है ।।
अकेले का नहीं है दोष सिस्टम में ।
मशाले में नमक भी मिर्चियों पर है ।।
अड़ाना टाँग छोड़ो है बड़ा मुर्गा ।
सरस दावत अभी तो मुर्गियों पर है ।।
© दिलीप कुमार पाठक "सरस"
ग़ज़ल 5
बह्र- 1222 1222 1222
काफ़िया - अन
रदीफ़ - कैसी
हवाओं ने कहा है ये घुटन कैसी ।
कटे उस पेंड़ से पूछो चुभन कैसी ।।
ख़ता थी उन ख़तो की जो लिखे तुमने ।
जवाबी ख़त जलाने में जलन कैसी ।।
समझ इतनी कि खुद को नासमझ कहती ।
मिलन की आग में जलती अगन कैसी ।।
नहाना झील में उसका क़यामत था ।
नज़र में हुस्न की मदिरा मगन कैसी ।।
कमल की उस कली में जब भरे खुशबू |
महकती फिर जवानी आदतन कैसी ।।
सरस की प्यास कोई आ बढ़ा जाए ।
चली है आज देखो तो पवन कैसी ।।
© दिलीप कुमार पाठक "सरस"
ग़ज़ल 6
बह्र - 212 212 212 212
काफ़िया - आ
रदीफ - चाहिए
मुस्कराती हुई ये फ़िजा चाहिए ।
ज़िन्दगी को जरा सी वफ़ा चाहिए ।।
इक नज़र का तलबगार बीमार है ।
कुछ दवा चाहिए कुछ दुआ चाहिए ।।
नींद आती नहीं रात भर आजकल ।
हुस्न को इश्क़ की बस हवा चाहिए ।।
प्यास बन चूम ले झूम के लफ्ज़ को ।
गुनगुनाने को कुछ तो नया चाहिए ।।
मैं लिखूँगा तुम्हारे लबों पर गज़ल ।
बस "सरस" प्यार का हौसला चाहिए ।।
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
ग़ज़ल 7
वज़्न - 122 122 122 122
काफ़िया- आना
रदीफ़- हुआ है
किसी की नज़र का निशाना हुआ है ।
कहीं हुस्न पर दिल दिवाना हुआ है ।।
गज़ब ढा रहा मुस्कराना तुम्हारा ।
बड़ा आज मौसम सुहाना हुआ है ।।
लगाके गले से कहा कान में कुछ ।
गज़ल का मुकम्मल तराना हुआ है ।।
लिपट यूँ गयी है लबों की गुलाबी ।
भरा जाम़ खुद को पिलाना हुआ है ।।
बहारें पुकारें हसीं हैं नज़ारे ।
इशारे इशारे बुलाना हुआ है ।।
कसम इश्क़ की मैं बना प्रेम जोगी ।
हमारा तुम्हारा फसाना हुआ है ।।
कभी गुनगुनाना गज़ल है तुम्हारी ।
सरस है तुम्हारा बताना हुआ है ।।
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
ग़ज़ल 8
व़ज्न~122 122 122 122
क़ाफिया~ए (स्वर)
रदीफ़~से लगा ले
लगा ले लगा ले गले से लगा ले ।
शराबी बना मयक़दे से लगा ले ।।
अकेला खड़ा हूँ नहीं साथ कोई ।
जरा पास आ काफ़िले से लगा ले ।।
कहीं काम का हो न जाऊँ कभी मैं ।
अभी तो मुझे हाँसिये से लगा ले ।।
गिरूँगा उठूँगा अभी मैं लड़ूँगा ।
अँधेरा घना है दिये से लगा ले ।।
बड़प्पन डराता बहुत आजकल है |
मुझे भी मेरे बचपने से लगा ले ।।
गज़ल की कसम फिर गज़ल गूँज होगी ।
"सरस" शेर को क़ाफ़िये से लगा ले ।।
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
बह्र - 1222 1222 122
क़ाफ़िया~ आना
रदीफ़~ आ गया है
कहाँ किसको निभाना आ गया है ।
बड़ा ज़ालिम जमाना आ गया है ।।
अँधेरे में चलाया तीर ऐसे ।
निशाने पर निशाना आ गया है ।।
हुईं आँखें नशीली लब गुलाबी ।
कि साकी को पिलाना आ गया है ।।
जवानी जब चटकती है महकती ।
कली को मुस्कराना आ गया है ।।
लिफाफे पर चमक होना जरूरी ।
नये में फिर पुराना आ गया है ।।
चलेगा दौर कब तक ये पता क्या ।
"सरस" सिक्का जमाना आ गया ।।
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल क्र 2
बह्र - 1222 1222 1222
क़ाफ़िया- आने
रदीफ़ - का मिले मौका
कली को मुस्कराने का मिले मौका ।
भ्रमर को गुनगुनाने का मिले मौका ।।
सजी अभिसारिका मिलने चली आयी ।
कभी तो आजमाने का मिले मौका ।।
तपेगा ताप कब तक मैं रहूँ प्यासा ।
भरी बारिश नहाने का मिले मौका ।।
जवाँ - सी चाँदनी रूठी हुई बैठी ।
हँसाने का मनाने का मिले मौका ।।
समय काटे नहीं कटता अकेला हूँ ।
तुम्हें भी तो बुलाने का मिले मौका ।।
तुम्हारे एक आने से ये हसीं महफिल ।
"सरस" अपना बनाने का मिले मौका ।।
© दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल 3
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आरा
रदीफ - नहीं है
यहाँ आज कोई हमारा नहीं है ।
जमाना बुरा है सहारा नहीं है ।।
हवा में उड़ेंगे अभी और ऊपर ।
खुदा का कोई तो इशारा नहीं है ।।
अभी और फाँके गरीबी के कितने ।
बड़ी मुफलिसी है गुजारा नहीं है ।।
नदी-सी सदी है चली जा रही है ।
कहाँ जा रही है विचारा नहीं है ।।
उछाला गया है सरस दोष किसका ।
हमारा नहीं है तुम्हारा नहीं है ।।
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
गज़ल 4
बह्र - 1222 1222 1222
काफ़िया - इयों
रदीफ - पर है
सियासत गोटियों की बोंटियों पर है ।
कहीं रोटी कहीं तो बेटियों पर है ।।
सुनायी दे रही वो चीख कैसी है ।
खबर कैसे नहीं जो सुर्खियों पर है ।।
गरीबों का निवाला छीन लेता जो ।
दलालों की दलाली मंत्रियों पर है ।।
भरोसा एकता का तोड़ मत देना ।
बड़ी आफ़त हमारे साथियों पर है ।।
शराफ़त का ढिढोरा पीटने वाले ।
बुरा हर काम काला मर्जियों पर है ।।
अकेले का नहीं है दोष सिस्टम में ।
मशाले में नमक भी मिर्चियों पर है ।।
अड़ाना टाँग छोड़ो है बड़ा मुर्गा ।
सरस दावत अभी तो मुर्गियों पर है ।।
© दिलीप कुमार पाठक "सरस"
ग़ज़ल 5
बह्र- 1222 1222 1222
काफ़िया - अन
रदीफ़ - कैसी
हवाओं ने कहा है ये घुटन कैसी ।
कटे उस पेंड़ से पूछो चुभन कैसी ।।
ख़ता थी उन ख़तो की जो लिखे तुमने ।
जवाबी ख़त जलाने में जलन कैसी ।।
समझ इतनी कि खुद को नासमझ कहती ।
मिलन की आग में जलती अगन कैसी ।।
नहाना झील में उसका क़यामत था ।
नज़र में हुस्न की मदिरा मगन कैसी ।।
कमल की उस कली में जब भरे खुशबू |
महकती फिर जवानी आदतन कैसी ।।
सरस की प्यास कोई आ बढ़ा जाए ।
चली है आज देखो तो पवन कैसी ।।
© दिलीप कुमार पाठक "सरस"
ग़ज़ल 6
बह्र - 212 212 212 212
काफ़िया - आ
रदीफ - चाहिए
मुस्कराती हुई ये फ़िजा चाहिए ।
ज़िन्दगी को जरा सी वफ़ा चाहिए ।।
इक नज़र का तलबगार बीमार है ।
कुछ दवा चाहिए कुछ दुआ चाहिए ।।
नींद आती नहीं रात भर आजकल ।
हुस्न को इश्क़ की बस हवा चाहिए ।।
प्यास बन चूम ले झूम के लफ्ज़ को ।
गुनगुनाने को कुछ तो नया चाहिए ।।
मैं लिखूँगा तुम्हारे लबों पर गज़ल ।
बस "सरस" प्यार का हौसला चाहिए ।।
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
ग़ज़ल 7
वज़्न - 122 122 122 122
काफ़िया- आना
रदीफ़- हुआ है
किसी की नज़र का निशाना हुआ है ।
कहीं हुस्न पर दिल दिवाना हुआ है ।।
गज़ब ढा रहा मुस्कराना तुम्हारा ।
बड़ा आज मौसम सुहाना हुआ है ।।
लगाके गले से कहा कान में कुछ ।
गज़ल का मुकम्मल तराना हुआ है ।।
लिपट यूँ गयी है लबों की गुलाबी ।
भरा जाम़ खुद को पिलाना हुआ है ।।
बहारें पुकारें हसीं हैं नज़ारे ।
इशारे इशारे बुलाना हुआ है ।।
कसम इश्क़ की मैं बना प्रेम जोगी ।
हमारा तुम्हारा फसाना हुआ है ।।
कभी गुनगुनाना गज़ल है तुम्हारी ।
सरस है तुम्हारा बताना हुआ है ।।
दिलीप कुमार पाठक "सरस"
ग़ज़ल 8
व़ज्न~122 122 122 122
क़ाफिया~ए (स्वर)
रदीफ़~से लगा ले
लगा ले लगा ले गले से लगा ले ।
शराबी बना मयक़दे से लगा ले ।।
अकेला खड़ा हूँ नहीं साथ कोई ।
जरा पास आ काफ़िले से लगा ले ।।
कहीं काम का हो न जाऊँ कभी मैं ।
अभी तो मुझे हाँसिये से लगा ले ।।
गिरूँगा उठूँगा अभी मैं लड़ूँगा ।
अँधेरा घना है दिये से लगा ले ।।
बड़प्पन डराता बहुत आजकल है |
मुझे भी मेरे बचपने से लगा ले ।।
गज़ल की कसम फिर गज़ल गूँज होगी ।
"सरस" शेर को क़ाफ़िये से लगा ले ।।
©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
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