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शनिवार, 12 मई 2018

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में दिलीप कुमार पाठक "सरस" की कुछ ग़ज़लें

गज़ल क्र० 1
बह्र - 1222 1222 122
क़ाफ़िया~ आना
रदीफ़~ आ गया है

कहाँ किसको निभाना आ गया है ।
बड़ा ज़ालिम जमाना आ गया है ।।

अँधेरे   में   चलाया   तीर  ऐसे ।
निशाने पर निशाना आ गया है ।।

हुईं  आँखें  नशीली  लब  गुलाबी ।
कि साकी को पिलाना आ गया है ।।

जवानी जब चटकती है महकती ।
कली  को मुस्कराना आ गया है ।।

लिफाफे पर चमक होना जरूरी ।
नये  में  फिर  पुराना आ गया है ।।

चलेगा दौर कब तक ये पता क्या ।
"सरस" सिक्का जमाना आ गया ।।

©दिलीप कुमार पाठक "सरस"

गज़ल क्र 2
बह्र - 1222 1222 1222
क़ाफ़िया- आने
रदीफ़ - का मिले मौका

कली को मुस्कराने का मिले मौका ।
भ्रमर को गुनगुनाने का मिले मौका ।।

सजी  अभिसारिका मिलने चली आयी ।
कभी  तो  आजमाने  का  मिले  मौका ।।

तपेगा ताप कब तक मैं रहूँ प्यासा ।
भरी बारिश नहाने का मिले मौका ।।

जवाँ - सी  चाँदनी  रूठी  हुई  बैठी ।
हँसाने  का  मनाने  का  मिले मौका ।।

समय  काटे  नहीं  कटता  अकेला  हूँ ।
तुम्हें  भी  तो  बुलाने  का मिले मौका ।।

तुम्हारे एक आने से ये हसीं महफिल ।
"सरस" अपना बनाने का मिले मौका ।।

© दिलीप कुमार पाठक "सरस"

गज़ल  3
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आरा
रदीफ - नहीं है

यहाँ  आज कोई हमारा नहीं है ।
जमाना  बुरा है  सहारा नहीं है ।।

हवा में  उड़ेंगे  अभी और ऊपर ।
खुदा का कोई तो इशारा नहीं है ।।

अभी और फाँके गरीबी के कितने ।
बड़ी  मुफलिसी  है गुजारा नहीं है ।।

नदी-सी सदी है चली जा रही है ।
कहाँ जा रही है  विचारा नहीं है ।।

उछाला गया है सरस दोष किसका ।
हमारा  नहीं   है   तुम्हारा  नहीं  है ।।

©दिलीप कुमार पाठक "सरस"

गज़ल 4
बह्र - 1222 1222 1222
काफ़िया - इयों
रदीफ - पर है

सियासत गोटियों की बोंटियों पर है ।
कहीं रोटी कहीं तो बेटियों पर है ।।

सुनायी दे रही वो चीख कैसी है ।
खबर कैसे नहीं जो सुर्खियों पर है ।।

गरीबों का निवाला छीन लेता जो ।
दलालों की दलाली मंत्रियों पर है ।।

भरोसा एकता का तोड़ मत देना ।
बड़ी आफ़त हमारे साथियों पर है ।।

शराफ़त का ढिढोरा पीटने वाले ।
बुरा हर काम काला मर्जियों पर है ।।

अकेले का नहीं है दोष सिस्टम में ।
मशाले में नमक भी मिर्चियों पर है ।।

अड़ाना  टाँग  छोड़ो  है  बड़ा  मुर्गा ।
सरस  दावत  अभी तो मुर्गियों पर है ।।

© दिलीप कुमार पाठक "सरस"

ग़ज़ल  5
बह्र- 1222 1222 1222
काफ़िया - अन
रदीफ़ - कैसी

हवाओं  ने  कहा  है ये घुटन कैसी ।
कटे उस पेंड़ से पूछो चुभन कैसी ।।

ख़ता थी उन ख़तो की जो लिखे तुमने ।
जवाबी  ख़त  जलाने  में  जलन कैसी ।।

समझ इतनी कि खुद को नासमझ कहती ।
मिलन  की  आग  में  जलती अगन कैसी ।।

नहाना झील में उसका क़यामत था ।
नज़र में हुस्न की मदिरा मगन कैसी ।।

कमल की उस कली में जब भरे खुशबू |
महकती  फिर  जवानी  आदतन  कैसी ।।

सरस  की  प्यास  कोई  आ  बढ़ा  जाए ।
चली  है   आज  देखो  तो  पवन  कैसी ।।

© दिलीप कुमार पाठक "सरस"

ग़ज़ल 6
बह्र - 212 212 212 212
काफ़िया - आ
रदीफ - चाहिए

मुस्कराती  हुई   ये  फ़िजा  चाहिए ।
ज़िन्दगी को जरा सी वफ़ा चाहिए ।।

इक  नज़र  का तलबगार  बीमार  है ।
कुछ दवा चाहिए कुछ दुआ चाहिए ।।

नींद आती नहीं रात भर आजकल ।
हुस्न को इश्क़ की बस हवा चाहिए ।।

प्यास बन चूम ले झूम के लफ्ज़ को ।
गुनगुनाने  को  कुछ तो नया चाहिए ।।

मैं  लिखूँगा  तुम्हारे  लबों  पर  गज़ल ।
बस "सरस" प्यार का हौसला चाहिए ।।

 दिलीप कुमार पाठक "सरस"

ग़ज़ल 7
वज़्न - 122 122 122 122
काफ़िया- आना
रदीफ़-  हुआ है

किसी की नज़र का निशाना हुआ है ।
कहीं हुस्न पर दिल दिवाना हुआ है ।।

गज़ब ढा रहा मुस्कराना तुम्हारा ।
बड़ा आज मौसम सुहाना हुआ है ।।

लगाके गले से कहा कान में कुछ ।
गज़ल का मुकम्मल तराना हुआ है ।।

लिपट  यूँ  गयी है लबों की गुलाबी ।
भरा जाम़ खुद को पिलाना हुआ है ।।

बहारें   पुकारें  हसीं  हैं  नज़ारे  ।
इशारे  इशारे  बुलाना  हुआ है ।।

कसम इश्क़ की मैं बना प्रेम जोगी ।
हमारा  तुम्हारा फसाना हुआ है ।।

कभी गुनगुनाना गज़ल है तुम्हारी ।
सरस  है  तुम्हारा बताना हुआ है ।।

दिलीप कुमार पाठक "सरस"

ग़ज़ल 8
व़ज्न~122 122 122 122
क़ाफिया~ए (स्वर)
रदीफ़~से लगा ले

लगा ले लगा ले गले से लगा ले ।
शराबी बना मयक़दे से लगा ले ।।

अकेला  खड़ा हूँ  नहीं साथ कोई ।
जरा पास आ काफ़िले से लगा ले ।।

कहीं काम का हो न जाऊँ कभी मैं ।
अभी तो मुझे हाँसिये से लगा ले ।।

गिरूँगा उठूँगा अभी मैं लड़ूँगा ।
अँधेरा घना है दिये से लगा ले ।।

बड़प्पन  डराता  बहुत आजकल है |
मुझे  भी  मेरे  बचपने  से  लगा  ले ।।

गज़ल की कसम फिर गज़ल गूँज होगी ।
"सरस"  शेर  को  क़ाफ़िये  से  लगा ले ।।

©दिलीप कुमार पाठक "सरस"

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