ग़ज़ल क्र० 1
वज्न -- 1222 1222 1222
काफिया - ए
रदीफ - को
हमारा ही नशेमन था जलाने को ।
हमारा ही कलेजा था दुखाने को ।।
हमीं से सीख के शोखी अजी देखो ।
हमारे सामने आये दिखाने को ।।
दिये थे फूल हाथों में हसीं तेरे ।
उसी हाथों मिला खंजर चुभाने को ।।
दुआ में रोज माँगी थी खुशी तेरी ।
मिले ले किन हमीं तुमको रुलाने को ।।
भुलाया था सभी को ही तिरी लौ में ।
हमी को आज कहते हो भुलाने को ।।
वफा का खूब पाया है सिला हमने ।
चले हो आज तुम खुद ही मिटाने को ।।
चले हो यूँ कहाँ देखो यहाँ मुड के ।
नहीं यूँ छोडता कोई जमाने को ।।
रहेंगे हम कहाँ बोलो बिना तेरे ।
जरा दो बोल बोले जा दिवाने को ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
ग़ज़ल 2
वज्न -- १२२ १२२ १२२ १२
काफिया -- आ
रदीफ -- कर गया
गमे जाम ऐसा पिला कर गया ।
हमें मौत से वो मिला कर गया ।।
रुलाया उसी की खुशी ने हमें ।
नया दर्द ऐसा दिला कर गया ।।
किया याद हमने हमेशा उसे ।
उसे क्या हमें वो भुला कर गया ।।
हँसाया हमीं ने हमेशा जिसे ।
भला हो हमें वो रुला कर गया ।।
जगे हम तभी से खुदा खैर कर ।
हमें बाजुओं में सुला कर गया ।।
उसे ढूँढते हैं उसी की डगर ।
जहाँ वो हमें कल बुला कर गया ।।
खुदा जिंदगी ये हुई बेवजह ।
नशेमन हमारा मिटा कर गया ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
गजल 3
वज्न -- 122 122 122 122
काफिया --आर
रदीफ -- दें
मिले जो हमें वो गमों को भुला दें ।
खिजाँ जिन्दगी को गुलों से सजा दें ।।
जलाओ हमेशा शमा हौसलों की ।
बुझायें शमा को न ऐसी हवा दें ।।
निभायें हमेशा किये जो भी वादे ।
नहीं जिंदगी में किसी को दगा दें |।
दुखायें नहीं दिल कभी भी किसी का ।
दुखी जो भी आये मुहब्बत लुटा दें ।।
कभी आँच आये वतन पे हमारे ।
वतन के लिये हम खुदी को मिटा दें ।।
पढेंगे हमेशा अमन के तराने ।
चमन में अमन है सभी को बता दें ।।
झुकाना किसी को नहीं खंजरों से ।
झुकाना वही चाहतों से झुकादें ।।
मिरी आज दिल में तमन्ना यही है ।
खुशी सब रहें ये हमेशा दुआ दें ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
गजल क्र 4
बहर- २१२२ २१२२ २१२२
काफिया --- आ
रदीफ -------रहा है
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
ये युवा किस राह चलता जा रहा है।
वे वजा ही आज बहका जा रहा है ।।
ढा रहे है रोज ही जुल्मो सितम को ।
बागवाँ कैसा ये उजडा जा रहा है ।।
हाथ बच्चों के थमा पत्थर रहे हैं ।
कौन कहता मुल्क पढता जा रहा है।।
टाँग खींची भाई ने ही भाई की है ।
भाई से ही भाई लड़ता जा रहा है ।।
दोगलों ने देश को ही खा लिया है ।
देश पर कर्जा ही बढता जा रहा है ।।
कौन कहता है गुलामी है नहीं अब ।
रंग दूजों का ही चढता जा रहा है ।।
आज नारी देश की महफूज क्या है ।
कोंख में खंजर ही गडता जा रहा है ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
ग़ज़ल क्र 5
बहर- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
हमारे पास आ जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।
हमें अपना बना जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
हमेशा याद आती हैं अदायें झूमतीं तेरीं ।
जरा सा मुस्कुरा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
सजाये ख्वाब थे हमने हसीं महफिल सजाने के ।
मुहब्बत को जगा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
बनो हमराह तुम मेरे हमेशा साथ देने को ।
मेरे दिल में समा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
सुनाये गीत जो तुमने दुनिया से छिपा कर के ।
वहीं फिर से सुना जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
भुलाते याद जब तेरी तो खुद को भूल जाते हैं ।
घटा बन दिल पे छा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
नहीं अब चैन आता है बड़ा बैचेन ए दिल है ।
दवा दर्दे पिला जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
जो कसमें हमने खाई थीं हमेशा जान देने की ।
वही वादा निभा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
गजल 7
वज्न - १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
काफिया - ने
रदीफ - को
हमारे पास आ जाओ हमारा गम भुलाने को ।
बना लो आज तुम अपना कलेजे से लगाने को ।।
जमाना आज का देखो बडा मुश्किल गुजारा है ।
यहाँ हर शख्श बैठा है मुआ काँटा चुभाने को ।।
भरोसा कौन करता है किसी का भी जमाने में ।
लगे हैं एक दूजे को यहाँ इन्शाँ सताने को ।।
यहाँ पर रोज लुटते हैं यहाँ पर रोज मरते हैं ।
मगर कोई नहीं आता गरीबों के बचाने को ।।
करें जो बेइमानी बस उन्हीं का आज परचम है ।
सुने कोई नहीं भाई शरीफों के फसाने को ।।
बचाई जान थी जिसकी कि बाजी जान की देकर ।
वही खोले पिटारा है हमेशा ही डसाने को ।।
रखे जो पास हैं ईमाँ बने मजबूर बैठे हैं ।
यहाँ मक्कार जो जितना चलाता है जमाने को ।।
बताऊँ आप को कैसे बड़ा मजबूर 'विश्वेश्वर',
खड़े हैं घेर कर दुश्मन मुझे खंजर चुभाने को ||
-विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
गजल 8
बहर- २१२२ , २१२२, २१२२, २१२.
काफिया ----- आ
रदीफ -------- छोड दो
मुस्कुरा कर सामने से पास अाना छोड़ दो ।
देख कर हम को जरा नजरें मिलाना छोड़ दो ।।
देख कर हम पर गुजरती ए सनम हम क्या कहें ।
इश्क के मारे बहुत हम को सताना छोड़ दो ।।
खौफ लगता है सुनो तुम को जमाने से कहीं ।
तो ज़माने में रहो या फिर ज़माना छोड़ दो ।।
आज तक बोले नहीं बस ये चुभन दिल में रही ।
मौन रह कर भी हमें तुम अब रुलाना छोड़ दो ।।
कौन कहता है कि हम आशिक नहीं तेरे सनम ।
आइने के सामने तुम ए बताना छोड़ दो ।।
प्यार में शम्मा विचारी देख तो पल पल जली ।
या तो तुम शम्मा बनो या फिर जलाना छोड़ दो ।।
जान तुम पर है फिदा जाने जिगर मैं क्या कहूँ ।
जान न दे दूँ कहीं तुम आजमाना छोड़ दो ।।
चाँदनी में चाँद बन कर तुम नहीं आया करो ।
चाँद शरमाता बहुत है छत पे आना छोड़ दो ।।
- विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
राठ हमीरपुर (उ.प्र.)
वज्न -- 1222 1222 1222
काफिया - ए
रदीफ - को
हमारा ही नशेमन था जलाने को ।
हमारा ही कलेजा था दुखाने को ।।
हमीं से सीख के शोखी अजी देखो ।
हमारे सामने आये दिखाने को ।।
दिये थे फूल हाथों में हसीं तेरे ।
उसी हाथों मिला खंजर चुभाने को ।।
दुआ में रोज माँगी थी खुशी तेरी ।
मिले ले किन हमीं तुमको रुलाने को ।।
भुलाया था सभी को ही तिरी लौ में ।
हमी को आज कहते हो भुलाने को ।।
वफा का खूब पाया है सिला हमने ।
चले हो आज तुम खुद ही मिटाने को ।।
चले हो यूँ कहाँ देखो यहाँ मुड के ।
नहीं यूँ छोडता कोई जमाने को ।।
रहेंगे हम कहाँ बोलो बिना तेरे ।
जरा दो बोल बोले जा दिवाने को ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
ग़ज़ल 2
वज्न -- १२२ १२२ १२२ १२
काफिया -- आ
रदीफ -- कर गया
गमे जाम ऐसा पिला कर गया ।
हमें मौत से वो मिला कर गया ।।
रुलाया उसी की खुशी ने हमें ।
नया दर्द ऐसा दिला कर गया ।।
किया याद हमने हमेशा उसे ।
उसे क्या हमें वो भुला कर गया ।।
हँसाया हमीं ने हमेशा जिसे ।
भला हो हमें वो रुला कर गया ।।
जगे हम तभी से खुदा खैर कर ।
हमें बाजुओं में सुला कर गया ।।
उसे ढूँढते हैं उसी की डगर ।
जहाँ वो हमें कल बुला कर गया ।।
खुदा जिंदगी ये हुई बेवजह ।
नशेमन हमारा मिटा कर गया ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
गजल 3
वज्न -- 122 122 122 122
काफिया --आर
रदीफ -- दें
मिले जो हमें वो गमों को भुला दें ।
खिजाँ जिन्दगी को गुलों से सजा दें ।।
जलाओ हमेशा शमा हौसलों की ।
बुझायें शमा को न ऐसी हवा दें ।।
निभायें हमेशा किये जो भी वादे ।
नहीं जिंदगी में किसी को दगा दें |।
दुखायें नहीं दिल कभी भी किसी का ।
दुखी जो भी आये मुहब्बत लुटा दें ।।
कभी आँच आये वतन पे हमारे ।
वतन के लिये हम खुदी को मिटा दें ।।
पढेंगे हमेशा अमन के तराने ।
चमन में अमन है सभी को बता दें ।।
झुकाना किसी को नहीं खंजरों से ।
झुकाना वही चाहतों से झुकादें ।।
मिरी आज दिल में तमन्ना यही है ।
खुशी सब रहें ये हमेशा दुआ दें ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
गजल क्र 4
बहर- २१२२ २१२२ २१२२
काफिया --- आ
रदीफ -------रहा है
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
ये युवा किस राह चलता जा रहा है।
वे वजा ही आज बहका जा रहा है ।।
ढा रहे है रोज ही जुल्मो सितम को ।
बागवाँ कैसा ये उजडा जा रहा है ।।
हाथ बच्चों के थमा पत्थर रहे हैं ।
कौन कहता मुल्क पढता जा रहा है।।
टाँग खींची भाई ने ही भाई की है ।
भाई से ही भाई लड़ता जा रहा है ।।
दोगलों ने देश को ही खा लिया है ।
देश पर कर्जा ही बढता जा रहा है ।।
कौन कहता है गुलामी है नहीं अब ।
रंग दूजों का ही चढता जा रहा है ।।
आज नारी देश की महफूज क्या है ।
कोंख में खंजर ही गडता जा रहा है ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
ग़ज़ल क्र 5
बहर- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
हमारे पास आ जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।
हमें अपना बना जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
हमेशा याद आती हैं अदायें झूमतीं तेरीं ।
जरा सा मुस्कुरा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
सजाये ख्वाब थे हमने हसीं महफिल सजाने के ।
मुहब्बत को जगा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
बनो हमराह तुम मेरे हमेशा साथ देने को ।
मेरे दिल में समा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
सुनाये गीत जो तुमने दुनिया से छिपा कर के ।
वहीं फिर से सुना जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
भुलाते याद जब तेरी तो खुद को भूल जाते हैं ।
घटा बन दिल पे छा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
नहीं अब चैन आता है बड़ा बैचेन ए दिल है ।
दवा दर्दे पिला जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
जो कसमें हमने खाई थीं हमेशा जान देने की ।
वही वादा निभा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।
विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
गजल 7
वज्न - १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
काफिया - ने
रदीफ - को
हमारे पास आ जाओ हमारा गम भुलाने को ।
बना लो आज तुम अपना कलेजे से लगाने को ।।
जमाना आज का देखो बडा मुश्किल गुजारा है ।
यहाँ हर शख्श बैठा है मुआ काँटा चुभाने को ।।
भरोसा कौन करता है किसी का भी जमाने में ।
लगे हैं एक दूजे को यहाँ इन्शाँ सताने को ।।
यहाँ पर रोज लुटते हैं यहाँ पर रोज मरते हैं ।
मगर कोई नहीं आता गरीबों के बचाने को ।।
करें जो बेइमानी बस उन्हीं का आज परचम है ।
सुने कोई नहीं भाई शरीफों के फसाने को ।।
बचाई जान थी जिसकी कि बाजी जान की देकर ।
वही खोले पिटारा है हमेशा ही डसाने को ।।
रखे जो पास हैं ईमाँ बने मजबूर बैठे हैं ।
यहाँ मक्कार जो जितना चलाता है जमाने को ।।
बताऊँ आप को कैसे बड़ा मजबूर 'विश्वेश्वर',
खड़े हैं घेर कर दुश्मन मुझे खंजर चुभाने को ||
-विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
गजल 8
बहर- २१२२ , २१२२, २१२२, २१२.
काफिया ----- आ
रदीफ -------- छोड दो
मुस्कुरा कर सामने से पास अाना छोड़ दो ।
देख कर हम को जरा नजरें मिलाना छोड़ दो ।।
देख कर हम पर गुजरती ए सनम हम क्या कहें ।
इश्क के मारे बहुत हम को सताना छोड़ दो ।।
खौफ लगता है सुनो तुम को जमाने से कहीं ।
तो ज़माने में रहो या फिर ज़माना छोड़ दो ।।
आज तक बोले नहीं बस ये चुभन दिल में रही ।
मौन रह कर भी हमें तुम अब रुलाना छोड़ दो ।।
कौन कहता है कि हम आशिक नहीं तेरे सनम ।
आइने के सामने तुम ए बताना छोड़ दो ।।
प्यार में शम्मा विचारी देख तो पल पल जली ।
या तो तुम शम्मा बनो या फिर जलाना छोड़ दो ।।
जान तुम पर है फिदा जाने जिगर मैं क्या कहूँ ।
जान न दे दूँ कहीं तुम आजमाना छोड़ दो ।।
चाँदनी में चाँद बन कर तुम नहीं आया करो ।
चाँद शरमाता बहुत है छत पे आना छोड़ दो ।।
- विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'
राठ हमीरपुर (उ.प्र.)
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