ग़ज़ल 1
बह्र - 1222 1222 1222 1222
काफिया - ना
रदीफ - नही अच्छा
लगाते ठेस अपने ही मगर रोना नही अच्छा ।
सदा उनके लिए तो बेरुखी होना नही अच्छा ।।
अगर हो क्रोध में कोई तो कुछ भी बोल देता है ।
हमेशा ऐसी बातें दिल पे तो ढोना नही अच्छा ।।
जो जैसा करता है उसकी वही आदत है ये समझो ।
किसी की बातों से विश्वास को खोना नही अच्छा ।।
किसी के वास्ते गर तुम फूल बन कर खिल नही सकते ।
किसी की राह में कांटो का तो बोना नही अच्छा ।।
अगर जो चाहते हो तुम कभी सेहत नही बिगड़े ।
सुबह फिर इस तरह से देर तक सोना नही अच्छा ।।
किसी की बातों से सकूँन का खोना नही अच्छा।
किसी के भी लिए तो 'प्रीत' ना होना नही अच्छा।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 2
वज्न - 2122 2122 2122 12
काफिया - ई
रदीफ़ - अच्छी नही
दिल लगी तो ठीक है दिल की लगी अच्छी नही ।
जब जमाना बेरहम हो सादगी अच्छी नही ।।
हर किसी के सीने में दिल है कोई पत्थर नही ।
प्यार करना तो भला है आशिकी अच्छी नही ।।
यूँ नही कोई जो करता ही न हो कोई नशा ।
हर नशा तो लाजमी है बेखुदी अच्छी नही ।।
कोई सजदा कोई पूजा कर रहा है देखो ।
मन मे जब श्रद्गा न हो तो बंदिगी अच्छी नही ।।
हर किसी की होती हसरत वो बड़ा इंसान हो ।
धन का बढ़ना ठीक है पर साहबी अच्छी नही ।।
'प्रीत' ही दिल मे न हो तो है जुदाई ही भली ।
हो अगर जो सामने तो बेरुखी अच्छी नही ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 3
बह्र - २१२२ १२१२ २२
काफिया- आर
रदीफ - कर लें क्या
हम भी जीवन में प्यार कर लें क्या ।
जिंदगी में बहार कर लें क्या ।।।
उसने देखा अदा से यूं हमको ।
तीर इस दिल के पार कर लें क्या ।।
दिल अभी तक सकूँ से मेरा है ।
दिल को फिर बेकरार कर लें क्या ।।
उसको दे कर के जीत हम अपनी ।
नाम सब अपने हार कर लें क्या ।।
उसके जीवन को फूल से भर कर ।
अपने हिस्से में खार कर लें क्या ।।
माना है इश्क आग का दरिया ।
डूब कर उसको पार कर लें क्या ।।
मौत जीवन पे है सदा भारी ।
मौत से ही करार कर लें क्या ।।
'प्रीत' में दिल तो दे दिया पहले ।
जान कुर्बान यार कर लें क्या ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 4
वज़्न - 122 122 122 122
काफिया - आ
रदीफ़ - हुआ है
मेरे चाँद का फिर से आना हुआ है ।
दिवाना तो उसका जमाना हुआ है ।।
कि है ईद छत पर सभी आ गए है ।
उन्हें देखने का बहाना हुआ है ।।
खिजां से भी गुजरे तो आये बहारें ।
के चर्चा में उसका फ़साना हुआ है ।।
जिसे देख ले एक नज़र होश खो दे ।
निगाहें छलकता पैमाना हुआ है ।।
ग़ज़ल गीत नगमे उसी के लिए है ।
लिए 'प्रीत' दिल में तराना हुआ है ।।
- सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 5
वज्न - 1222 1222 122
काफ़िया - आर
रदीफ़ - देखा
कलम देखा कलम की धार देखा ।
बदलते वक्त की रफ्तार देखा ।।
इन्हें अब आ गयी मौकापरस्ती ।
इन्हें बिकते सरे बाजार देखा ।।
जो सच के साथ है तन्हा खड़ा है ।
कि मिलते झूठ को उपहार देखा ।।
सियासत इस तरह हॉबी हुई है ।
इतर इसके नही अखबार देखा ।।
दिखाता आइना सच को कभी था ।
वहीं होते हुए व्यापार देखा ।।
कही लालच कही मजबूरिया है ।
समय की 'प्रीत' इन पे मार देखा ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 6
बह्र - 2122 2122 2122 22
काफ़िया - अर
रदीफ़ - जाता है
वक़्त जैसा भी हो आता है गुजर जाता है ।
बेवजह टूटकर इंसान बिखर जाता है ।।
दर्द और गम ही न आये तो जिंदगी क्या है ।
बाद तपने के ही कुंदन तो निखर जाता है ।।
क्या गुजरती है न पूछो ये किसी के दिल से ।
वादा जब करके कोई अपना मुकर जाता है ।।
हिम्मत हारे नही इंसान तो क्या मुश्किल है ।
अच्छी तदवीर से तकदीर सवर जाता है ।।
एक न एक दिन बुझनी ही है चरागे हयात ।
'प्रीत' फिर किसलिए कोई मौत से डर जाता है ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 7
बह्र- 2122 2122 2122 22
काफ़िया - ई
रदीफ़ - रखना
दर्द सीने में न आंखों में तू नमी रखना ।
अच्छे दिन आएंगे इस बात पे यकीं रखना ।।
हो अगर दृढता विस्वास में तो फलती है ।
सोच नकारात्मक अपनी कभी नही रखना।।
वक़्त जब साथ न दे लोग बदल जाते है ।
फिर भी व्यवहार में अपने नही कमीं रखना।।
एक न एक दिन आसान तो हो जाएगी ।
मुश्किले लाख सही होंठो पर हँसी रखना ।।
हौसला आसमां छुए तो कोई बात नही ।
'प्रीत' पर पॉव को अपने सदा जमीं रखना।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 8
बह्र - 2122 2122 212
काफ़िया - इल
रदीफ़ - नही
कौन सी राहें जहाँ मुश्किल नही।
हर किसी को तो मिले मंजिल नही।।
मुश्किलें जो पार कर आगे बढे ।
दूर उससे फिर कोई साहिल नही ।।
हम समझ पाते नही है उम्रभर ।
वरना ऐसा कौन जो काबिल नही ।।
दूसरों को दोष देना छोड़ दे ।
इससे होगा तुझको कुछ हासिल नही ।।
वेवजह उनसे शिकायत क्यों करे ।
तेरे अरमानों का वो कातिल नही ।।
आदमी को आदमी से जोड़ता ।
'प्रीत' जिस दिल मे न हो वो दिल नही ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
बह्र - 1222 1222 1222 1222
काफिया - ना
रदीफ - नही अच्छा
लगाते ठेस अपने ही मगर रोना नही अच्छा ।
सदा उनके लिए तो बेरुखी होना नही अच्छा ।।
अगर हो क्रोध में कोई तो कुछ भी बोल देता है ।
हमेशा ऐसी बातें दिल पे तो ढोना नही अच्छा ।।
जो जैसा करता है उसकी वही आदत है ये समझो ।
किसी की बातों से विश्वास को खोना नही अच्छा ।।
किसी के वास्ते गर तुम फूल बन कर खिल नही सकते ।
किसी की राह में कांटो का तो बोना नही अच्छा ।।
अगर जो चाहते हो तुम कभी सेहत नही बिगड़े ।
सुबह फिर इस तरह से देर तक सोना नही अच्छा ।।
किसी की बातों से सकूँन का खोना नही अच्छा।
किसी के भी लिए तो 'प्रीत' ना होना नही अच्छा।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 2
वज्न - 2122 2122 2122 12
काफिया - ई
रदीफ़ - अच्छी नही
दिल लगी तो ठीक है दिल की लगी अच्छी नही ।
जब जमाना बेरहम हो सादगी अच्छी नही ।।
हर किसी के सीने में दिल है कोई पत्थर नही ।
प्यार करना तो भला है आशिकी अच्छी नही ।।
यूँ नही कोई जो करता ही न हो कोई नशा ।
हर नशा तो लाजमी है बेखुदी अच्छी नही ।।
कोई सजदा कोई पूजा कर रहा है देखो ।
मन मे जब श्रद्गा न हो तो बंदिगी अच्छी नही ।।
हर किसी की होती हसरत वो बड़ा इंसान हो ।
धन का बढ़ना ठीक है पर साहबी अच्छी नही ।।
'प्रीत' ही दिल मे न हो तो है जुदाई ही भली ।
हो अगर जो सामने तो बेरुखी अच्छी नही ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 3
बह्र - २१२२ १२१२ २२
काफिया- आर
रदीफ - कर लें क्या
हम भी जीवन में प्यार कर लें क्या ।
जिंदगी में बहार कर लें क्या ।।।
उसने देखा अदा से यूं हमको ।
तीर इस दिल के पार कर लें क्या ।।
दिल अभी तक सकूँ से मेरा है ।
दिल को फिर बेकरार कर लें क्या ।।
उसको दे कर के जीत हम अपनी ।
नाम सब अपने हार कर लें क्या ।।
उसके जीवन को फूल से भर कर ।
अपने हिस्से में खार कर लें क्या ।।
माना है इश्क आग का दरिया ।
डूब कर उसको पार कर लें क्या ।।
मौत जीवन पे है सदा भारी ।
मौत से ही करार कर लें क्या ।।
'प्रीत' में दिल तो दे दिया पहले ।
जान कुर्बान यार कर लें क्या ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 4
वज़्न - 122 122 122 122
काफिया - आ
रदीफ़ - हुआ है
मेरे चाँद का फिर से आना हुआ है ।
दिवाना तो उसका जमाना हुआ है ।।
कि है ईद छत पर सभी आ गए है ।
उन्हें देखने का बहाना हुआ है ।।
खिजां से भी गुजरे तो आये बहारें ।
के चर्चा में उसका फ़साना हुआ है ।।
जिसे देख ले एक नज़र होश खो दे ।
निगाहें छलकता पैमाना हुआ है ।।
ग़ज़ल गीत नगमे उसी के लिए है ।
लिए 'प्रीत' दिल में तराना हुआ है ।।
- सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 5
वज्न - 1222 1222 122
काफ़िया - आर
रदीफ़ - देखा
कलम देखा कलम की धार देखा ।
बदलते वक्त की रफ्तार देखा ।।
इन्हें अब आ गयी मौकापरस्ती ।
इन्हें बिकते सरे बाजार देखा ।।
जो सच के साथ है तन्हा खड़ा है ।
कि मिलते झूठ को उपहार देखा ।।
सियासत इस तरह हॉबी हुई है ।
इतर इसके नही अखबार देखा ।।
दिखाता आइना सच को कभी था ।
वहीं होते हुए व्यापार देखा ।।
कही लालच कही मजबूरिया है ।
समय की 'प्रीत' इन पे मार देखा ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 6
बह्र - 2122 2122 2122 22
काफ़िया - अर
रदीफ़ - जाता है
वक़्त जैसा भी हो आता है गुजर जाता है ।
बेवजह टूटकर इंसान बिखर जाता है ।।
दर्द और गम ही न आये तो जिंदगी क्या है ।
बाद तपने के ही कुंदन तो निखर जाता है ।।
क्या गुजरती है न पूछो ये किसी के दिल से ।
वादा जब करके कोई अपना मुकर जाता है ।।
हिम्मत हारे नही इंसान तो क्या मुश्किल है ।
अच्छी तदवीर से तकदीर सवर जाता है ।।
एक न एक दिन बुझनी ही है चरागे हयात ।
'प्रीत' फिर किसलिए कोई मौत से डर जाता है ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 7
बह्र- 2122 2122 2122 22
काफ़िया - ई
रदीफ़ - रखना
दर्द सीने में न आंखों में तू नमी रखना ।
अच्छे दिन आएंगे इस बात पे यकीं रखना ।।
हो अगर दृढता विस्वास में तो फलती है ।
सोच नकारात्मक अपनी कभी नही रखना।।
वक़्त जब साथ न दे लोग बदल जाते है ।
फिर भी व्यवहार में अपने नही कमीं रखना।।
एक न एक दिन आसान तो हो जाएगी ।
मुश्किले लाख सही होंठो पर हँसी रखना ।।
हौसला आसमां छुए तो कोई बात नही ।
'प्रीत' पर पॉव को अपने सदा जमीं रखना।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
ग़ज़ल 8
बह्र - 2122 2122 212
काफ़िया - इल
रदीफ़ - नही
कौन सी राहें जहाँ मुश्किल नही।
हर किसी को तो मिले मंजिल नही।।
मुश्किलें जो पार कर आगे बढे ।
दूर उससे फिर कोई साहिल नही ।।
हम समझ पाते नही है उम्रभर ।
वरना ऐसा कौन जो काबिल नही ।।
दूसरों को दोष देना छोड़ दे ।
इससे होगा तुझको कुछ हासिल नही ।।
वेवजह उनसे शिकायत क्यों करे ।
तेरे अरमानों का वो कातिल नही ।।
आदमी को आदमी से जोड़ता ।
'प्रीत' जिस दिल मे न हो वो दिल नही ।।
सन्तोष कुमार 'प्रीत'
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