हिंदी साहित्य वैभव

EMAIL.- Vikasbhardwaj3400.1234@blogger.com

Breaking

बुधवार, 16 मई 2018

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत" की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
वज्न     - 212 212 212 212
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ  - चाहिए।

शब्द बोलो मगर तौलना चाहिए ।
तौल करके सदा बोलना चाहिए ।।

होश आता नहीं शाम होते  यहाँ ।
जाम पीकर नहीं झूमना चाहिए ।।

नैन उनके मुझे देखते हैं अभी ।
आस करके जिया खोलना चाहिए ।।

पाक मिट्टी मिली आज हमको यहाँ ।
हाथ  लेकर  इसे  चूमना   चाहिए ।।

दोस्ती के सफ़र में मिली जो दुआ ।
साथ उसको लिये पूजना चाहिए ।।

रोज जिनके यहां खेलते थे कभी।
पास जाकर वहां घूमना चाहिए।।

दर्द  होगा  उसे  दूर  जाये  कही ।
राज की बात हैं सोचना चाहिए ।।

भौह तिरछी किये पास थी वो खङी ।
नैन  भी  तो  नही  मोङना  चाहिए ।।

प्रीत करता रहा रात दिन में उसे ।
इस तरह से नही छोड़ना चाहिए ।।

वो किताबी मजे याद आते हमें ।
लेख लिखकर सदा जाँचना चाहिए ।।

राह कांटो भरी जो मिलेगी कभी।
अश्क आँखो लगे पोछना चाहिए ।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "


गजल  2
वज्न  - 122 122 122 122
काफिया - आ
रदीफ - नही है

हमारे  हृदय  का  किनारा  नही  है ।
किसी की नज़र का इशारा नही है ।।

दिखी जो जहाँ में पड़ा आज पीछे ।
जमाना  दिखाये  नजारा  नही  है ।।

करूं बात सारी नदी की लहर सें ।
बहाये  सभी  को  गवारा  नही है ।।

भले  रूठ  जाये  हमारी  मुहब्बत ।
जमीं पर मिले वो सितारा नही है ।।

चले चाल सीधी मिले अजनबी भी ।
खुमारी  चढ़ी  पर  पुकारा  नही  है ।।

कहो  आज मनसे जहां में जहाँ पर ।
किया  काम  ऐसा  सुधारा  नही  हैं ।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 3
बह्र      - 122 122 122 122
काफ़िया  -  अन
रद़ीफ      -  की

सुनाओ उसी को सुने बात मन की ।
दिखाओ जहाँ में रहे आस धन की ।।

खिलौना बना हैं मुसाफिर यहां का।
न ठहरो वहां पर हिफाजत न तन की।।

हरी डाल तोङे उसी को सजा दो ।
मिले नेक छाया जहाँ छाँव वन की ।।

निकालो न पाती लिखी थी जुवां से।
सिखाओ पढ़ा कर गुने सोच जन की।।

किनारे किनारे चला आज उससे ।
कहू आज भारत तमन्ना गगन की ।।

तपन  में  जलेगें मुहब्बत  करेगें  ।
करूं आज बाते सुहाने चमन की ।।

उठूँगा   गिरूँगा   चलूँगा  जहाँ   में ।
करूंगा हिफाजत यहां पर वतन की।।

लडाई   करो   दूर   मेरा   शहर  हैं ।
दुआ अब करो आज न्यारे अमन की ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 4
बह्र- 1222 1222 1222 1222
रद़ीफ     -  को
काफ़िया -  ये

कही कोई नही होता सफर में साथ चलने को ।
मिले दुश्मन यहाँ हैं सब नहीं कोई पिघलने को ।।

उसी ने जान दी अपनी मगर सोचा नही हैं कुछ ।
हथेली पर रखा हैं दिल चला मैंखाने पलने को ।।

भरोसा कर लिया मैंने उसे अपना समझ कर ही ।
यहाँ  सीधे  चलाये  तीर  मेरी  जान  खलने  को ।।

करूं सेवा उसी की रात दिन राही मिले जो हैं ।
लगी जो चोट सीने में वही पर तेज मलने को ।।

सिफारिश हो गई हैं तो जमाना प्यार करता है ।
करूं फरियाद में रब से जरा सा और फलने को।।

सिखाया पाठ जो हमको वही में आज बतलाता।
सड़क की मोड़ पर बैठे सभी अब आज पलने को।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

गज़ल 5
वज्न  - 1222 1222 122
रदीफ - हरदम।
काफ़िया - आ।

जमाने ने दिखाये रंग हरदम ।
रहा में भी उसी के संग हरदम।।

बताई थी बहुत बाते सफर में ।
मगर में था परेशां तंग हरदम ।।

नयी तकनीक खोजी है जहां में ।
बहुत  ढूँढ़े  हुआ वो दंग हरदम ।।

डराते   हैं  मुझे  अंगार  से  वो  ।
लडे हैं हम सदा ही जंग हरदम ।।

नमक डाले कभी वो रोज यारो ।
जले  थे  जो हमारे अंग हरदम ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"

ग़ज़ल 6
वज्न - 122 122 122 122
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ - हुआ हैं

दिले  इश्क को  तो कमाया हुआ है ।
ये दिल रात दिन भर जलाया हुआ है ।।

मुझे   क्या   पता  था हुई  पीर  भारी ।
नरम हाथ से खिल खिलाया हुआ है ।।

जमाना  सुने  आज  मेरी  कहानी ।
दिवाना वही फिर सुलाया हुआ है ।।

मुझे   आज   तो   वो  बुराई  सताये ।
उसी दिल लगी को भुलाया हुआ है ।।

उसी  से  कहूँ राज दिल खोलके मैं ।
बिना  पैर  के  भी  चलाया हुआ  है ।।

हमारा  कहा  आप  गर  मान  लेते ।
यहा आँख से गम पिलाया हुआ है ।।

खड़ी दूर मुझसे जरा पास आओ ।
हमे  रात  मे  भी बुलाया हुआ है ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"

 ग़ज़ल 7
बह्र - 1222 1222 122
रद़ीफ - आया
काफ़िया - आम।

यहाँ पर आज कैसा नाम आया ।
कही कोई नही अब काम आया ।।

सभी  बैठे  यहाँ पर मुँह फुलाये ।
नही जब हाथ में तो दाम आया ।।

नशे  से  हो  गये मशहूर जो भी ।
पिये वो भी यहाँ पर जाम आया।।

कही  जोगी  कही  भोगी मिले हैं ।
बहुत भटके यहाँ पर धाम आया ।।

हुकूमत छोड़ दी हमने जहां की।
वही सब मोड़ करके थाम आया।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 8
बह्र       :- 1222 1222 1222
काफ़िया:- ए
रद़ीफ:-    को

मिले हमको यहाँ सब साथ चलने को ।
यही  बाते  सुनी  हैं  रोज  खलने को ।।

हमारा तो मुकद्दर बोलता है जो ।
किसी के रास्ते में नेक मिलने को ।।

सुमन मन से मिले वो बाग बन कर भी ।
गुलाबी   रंग   की  बौछार  फलने  को ।।

कभी उससे किया वादा निभाया है ।
नई सी पंख की डाली न खिलने को ।।

गनीमत हैं जहाँ वालो अभी तो ये ।
कहो मत हाथ में भी हाथ मलने को ।।

यहाँ रोका नही तुमको शराफत हैं ।
चले आओ समय के साथ ढलने को ।।

-नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
   छतरपुर  ( मध्यप्रदेश )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

हिंदी साहित्य वैभव पर आने के लिए धन्यवाद । अगर आपको यह post पसंद आया हो तो कृपया इसे शेयर कीजिये और comments करके बताये की आपको यह कैसा लगा और हमारे आने वाले आर्टिक्ल को पाने के लिए फ्री मे subscribe करे
अगर आपके पास हमारे ब्लॉग या ब्लॉग पोस्ट से संबंधित कोई भी समस्या है तो कृपया अवगत करायें ।
अपनी कविता, गज़लें, कहानी, जीवनी, अपनी छवि या नाम के साथ हमारे मेल या वाटसअप नं. पर भेजें, हम आपकी पढ़ने की सामग्री के लिए प्रकाशित करेंगे

भेजें: - Aksbadauni@gmail.com
वाटसअप न. - 9627193400

विशिष्ट पोस्ट

सूचना :- रचनायें आमंत्रित हैं

प्रिय साहित्यकार मित्रों , आप अपनी रचनाएँ हमारे व्हाट्सएप नंबर 9627193400 पर न भेजकर ईमेल- Aksbadauni@gmail.com पर  भेजें.