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रविवार, 6 मई 2018

मुहब्बत ग़ज़ल म़े हिम्मत सिंग त्यागी की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
वज्ऩ -  2122  2122  2122
काफिया - "म"
रदीफ़ - सताये

रात  में  क्यों  आरज़ू  का  गम  सताये  ।
ख्वाब  मे  आ कर  हसीं बालम  सताये ।।
हाल  दिल का  जान  कर  वो खूब रोये ।
बात  कर लो  गर  वफ़ा का गम सताये।
जख्म जब तक इश्क का जाहिर नहीं हैं ।
प्यार  में   इक  दर्द  का  आलम  सताये ।।
इश्क  अफसाना  नहीं  अब  हैं  फसाना ।
इश्क   मे   तेरी  जफ़ा   हम दम  सताये  ।।
राज़  उल्फ़त  का   हमेशा   राज़  'त्यागी' ।
वस्ल  की शब  आज क्यों जानम  सताये।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  2
वज्ऩ - 1222  1222  1222  1222
काफिया - "ई"
रदीफ़ - है

करम  तेरा  रहा साकी  वही नाजुक  मिजाजी है ।
ग़ज़ल का शौक बादाखार को अब ख़ुशगुवारी है ।।
सुराही  को न  खोलो तुम नशा मुझको गिरा देगा ।
यकीं  कर हर  सुहानी  बज्म मे साकी दिवानी है ।।
जवां  होती  गई  रातें रहे  उस  इश्क  की खुश्बू ।
सहारा अब  वही यादें, नशे  की  शब  गुलाबी है ।।
शराबी  मैं  नहीं   तेरी   निगाहों  में  कहां  प्याले ।
मुझे  समझा  नहीं सकतीं  नज़र  ऐसे सवाली है ।।
मिली हैं  इश्क  मे तेरी  वफ़ा क्यूं अब सताती है ।
कहां मांगें वफ़ा  'त्यागी'  यहां तो सब भिखारी है ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  3
वज्ऩ - 1222  1222  122
काफिया - "ना" 
रदीफ़ - चाहता हूं

मुहब्बत  का  फ़साना  चाहता हूं ।
समंदर    में   उतरना चाहता  हूं ।।
  
जुदाई मे  इबादत  कर  खुदा की ।
खुदा से आज मिलना चाहता हूं ।।
गरीबी  आज  अपनी  दूर  होगी ।
वफ़ा  अपनी दिखाना चाहता हूं ।।
अदीबो  सा  तजुर्बा  है मुझे  भी ।
बहर पर रोज लिखना चाहता हूं।।
रखा है राज़ उल्फ़त राज़ 'त्यागी' ।
लगी दिल की छुपाना चाहता हूं ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  4
बह्र - 212/212 /212 /212
काफिया - अर्द
रदीफ - हूं

वक़्त   के   साथ  चलता  हुआ  दर्द  हूं ।
वक़्त   से   सीखने   आज   शागिर्द  हूं ।।
जिस्त ने आज गम की तपिश को सहा ।
वक़्त   है  टूटती     सांस   पर   मर्द  हूं ।।
जिंदगी   का  पता   क्या  बताऊं  तुम्हें ।
सांस   आया   नही   तो   बना  गर्द  हूं ।।
मुफलिसी  तंग  रोटी  से  कर  दे  जहां ।
मेरे  "मुर्शिद" गरीबों  का   हम  दर्द  हूं ।।
इश्क   के   मकबरे    खास   होतें   रहे ,
रात  'त्यागी'   वहां    रोशनी   जर्द   हूं ।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  5
वज्ऩ - 2122 /2122
काफिया - "आ"
रदीफ़ - है

आप   कहतें  हो  हुमा  है ।
वक़्त का हाकिम खुदा है ।।
हम  खता   तो  कर चलें है ।
आप  जानों क्या  हुआ  है ।।
दर्द   अपना  जान   तुम से ।
हाल उलफ़त  का  पुछा है ।।
इश्क  को   तामीर  कर  दे  ।
वो   मुहब्बत   से   जुदा  है ।।
लफ्ज   'त्यागी'   बोलते  है ।
ये ग़ज़ल  रब   की दुआ  है।
हुमा = कल्पित पक्षी जिसकी
छाया मे रंक राजा हो जाता है।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  6
वज्ऩ - 212  212  212
काफिया "ता"
रदीफ़ - रहा
आज को कल बदलता रहा ।
वक़्त  को  मैं समझता रहा ।।
चुप  रहा  तो  सिला  ये मिला ।
दर्द दिल का यूं ही बढ़ता रहा ।।
दर्द  निकला  पुराना  कभी ।
मर्ज  को  याद  करता रहा ।।
बेखुदी  ने  किया  मस्त  तो ।
रोज  मय को  तरसता रहा ।।
राज़ की बात  'त्यागी'  कहूं ।
हुस्न  पे  इश्क  मरता  रहा ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल 7
वज्ऩ - 2122 /2122
काफिया - "ए"
रदीफ़ - है
दर्द    जख्मों     का  बढ़े  है ।
अश्क   आंखों    से   बहे  है ।।
ना   छुपाओ   राज़    हमसे  ।
राज़   आंखें   सब   कहे  है  ।।
तुम  यकीनन   इश्क  मे  हो ।
रुख की  रंगत  जो  उड़े  है  ।।
इश्क    की    बातें   दबा  दी ।
राज़    उल्फ़त   का  रखे  है ।।
जख्म 'त्यागी' देख दिल का ।
आज     दोबारा     बहे   है ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  8
वज्ऩ - 1212/1122/1212/22
काफिया - "आर"
रदीफ़ - हो जाये
नज़र कभी न मिले और प्यार  हो जाये ।
पुनर्मिलन की जगी आस यार हो जाये ।

निबाह तो  न  किया  जिंदगी रही तन्हा ।
न बागबां तो चमन  सूख खार हो जाये ।।
फरेब  तुम न  करो  जिंदगी  बिगड़ती है ।
फरेब का  हैं  जहां  तार  तार  हो जाये ।।
नसीब था न हुआ इश्क अंत तक तुम से ।
निक़ाब रूख न हो दिल निसार हो जाये ।।
यकीन आज हुआ आंख मारती 'त्यागी' ।
जरा नज़र  तू  उठा  तीर पार  हो जाये ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

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