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शुक्रवार, 25 मई 2018

2:12 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में विवेक राज मिश्र की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
बह्र-  122 122 122 122
काफ़िया - इल
रदीफ़ -  रही है

हमारी तुम्हारी नज़र मिल रही है ।
तभी ज़िन्दगी फूल सी खिल रही है ।।

भरोसा करो इन जवां धड़कनों पर  ।
नज़र ही नहीं सिर्फ क़ातिल रही है ।।

फटा दिल रफूगर नहीं जोड़ पाता ।
इसे चाहतों की सुई सिल रही है।

फँसा देख खुद को बड़े कटघरे में ।
जुबां शेर की भी नहीं हिल रही है ।।

चले तो गए 'राज़' होकर ख़फ़ा वो ।
उन्हें भी पता रात बोझिल रही है ।।

- विवेक मिश्र 'राज़'

ग़ज़ल 2
बहर -  2122 2122
काफ़िया - अम
रदीफ़ - नही है

आग  मुझमें कम नहीं है ।
हाँ मगर अब गम नहीं है ।।

क़त्ल   मेरा   हो   रहा  है ।
आँख लेकिन नम नहीं है ।।

आज कल की ताकतों में  ।
हौंसले  का  दम  नहीं  है ।।

देख  लो तुम घाव देकर ।
हाथ  में  मरहम नहीं है ।।

'राज़' अब इंसानियत का ।
रह  गया  मौसम नहीं है ।।

विवेक मिश्र 'राज़'

ग़ज़ल 3
बह्र- 2122  2122
काफ़िया - ओ
रदीफ़ - रहे हैं

सब  नकलची  हो  रहे  हैं ।
इसलिए  ही   खो  रहे  हैं ।।

आँख  से देखो ज़रा तुम ।
फूल  भी  अब रो रहे हैं ।।

जागना जिनको यहाँ था ।
चैन  से  वो  सो  रहे  हैं ।।

जो फसल उगती नहीं है ।
क्यों  भला हम बो रहे हैं ।।

'राज़' तुम खुद को संभालो ।
गन्दगी   सब  धो   रहे   हैं ।।

- विवेक मिश्र 'राज'

ग़ज़ल 4
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - ई
रदीफ -  थी

अदालत ही कुछ बेमुरव्वत रही थी ।
सज़ा जिस तरह से सुनाई गयी थी ।।

उसी  से  रहा  है  जमाना  ये  रूठा ।
सही बात खुलकर के जिसने कही थी ।।

किसे  हम  सुनाते  कहाँ  गुनगुनाते ।
ग़ज़ल में हमारी हक़ीकत लिखी थी ।।

हमें   देखकर   तुम  हुए  थे  पशेमाँ ।
नज़र जब हमारी तुम्हारी मिली थी ।।

रखा तुमको महफ़ूज़ खुद से ज़ियादा ।
ज़िगर  में  तुम्हारी ही  सूरत बसी थी ।।

- विवेक मिश्र  'राज़'

ग़ज़ल 5
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - मिलेगा

नहीं  हीर  कोई  न  रांझा मिलेगा ।
तुम्हें आशिकी में तमाशा मिलेगा ।।

नसीहत नहीं  चाहता है भिखारी ।
हंसेगा तभी जब निबाला मिलेगा ।।

घरों से निकलकर हक़ीकत न ढूँढ़ो ।
नहीं तो तुम्हें सब दिखावा मिलेगा ।।

हमेशा बरसती नहीं आग बनकर ।
कभी  धूप  से भी सहारा मिलेगा ।।

कभी देखिए बांटकर 'राज़' खुद को ।
तुम्हें  प्यार  सबसे  ज़ियादा मिलेगा ।।

विवेक मिश्र 'राज़

ग़ज़ल 6
बह्र - 122  122  122  122
काफ़िया - ऐले
रदीफ़ - बहुत हैं

हमारे  सफर  में  झमेले बहुत हैं ।
भरी भीड़ में भी अकेले बहुत हैं ।।

नहीं चैन से हम अभी जी सकेंगे ।
अभी तो गए हम ढकेले बहुत हैं ।।

उसे  क़ामयाबी  नहीं यूं मिली है ।
शुरू में कहीं कष्ट  झेले बहुत हैं ।।

भुला हम सकेंगे न उन दोस्तों को ।
कभी साथ में जिनके खेले बहुत हैं ।।

खुली पोल बाबा की है 'राज़' जबसे ।
परेशान  अब  उनके  चेले  बहुत  हैं ।।

विवेक मिश्र 'राज़'

ग़ज़ल 7
बह्र - 122 122
काफ़िया - ई
रदीफ़ - हैं

हवा  चल  पड़ी  है ।
तभी  खलबली  है ।।

हुनर  जीतता  है ।
हक़ीक़त  यही है ।।

बचोगे  कहाँ  तक ।
नज़र लड़ चुकी है ।।

तुम्हारी  खुशी  में ।
मेरी   ज़िंदगी   है ।।

कहो 'राज़' खुलकर ।
मिली अब खुशी है ।।

- विवेक मिश्र 'राज़'

ग़ज़ल 8
बह्र - 2122   2122
काफ़िया - आ
रदीफ़ - रही है

सांस  थमती जा रही है ।
शक्ल भी मुरझा रही है ।।

मौत से शिकवा नहीं है ।
ज़िन्दगी हड़का रही है ।।

वो मुझे मरहम दिखाकर ।
ज़ख्म  देती  आ रही  है ।।

जीस्त चौराहा हुई ज्यों ।
लक्ष्य से भटका रही है ।।

उंगलियां बेकार निकलीं ।
धूप  घी  पिघला रही है ।।

- विवेक मिश्र 'राज़'
शहांजहांपुर (उ०प्र०)

बुधवार, 23 मई 2018

2:15 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में डॉ0 लियाकत अली की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल 1
बह्र- 1222 1222 1222
काफ़िया - आने
रदीफ़ - को

तुम्हारी ये अदा अच्छी नही हैं दिल लुभाने को ।
मेरा मन आज भी कहता तुम्हे अपना बनाने को ।।

तेरी जुल्फों के' साये में कभी जब नींद आती थी ।
होठों पर होठ रख देना मुझे जल्दी जगाने को ।।

तुम्हारे गीत को सुनकर विहग भी पास आते थे ।
छेड़ो तुम आज भी प्रीतम उसी मीठे तराने को।।

मैं दौड़ा पास आता था मगर तुम रूठ जाती थी ।
चले आओ कभी तुम ही सनम मिलने मिलाने को ।।

लियाकत  है  खड़ा  उस  मोड़  पर  प्यारे ।
जहां तुम छोड़ कर लौटे थे अपने उस फ़साने को।।

डॉ0 लियाकत अली

ग़ज़ल 2
बह्र - 212 212 212 212
काफ़िया - आ
रदीफ़ - हो गयी

देखते-देखते जब  प्रभा हो गयी ।
नींद आई नही ओ जुदा हो गयी ।।

तेरे दर पे मैं आया था जिसके लिए।
ओ न मुझको मिली बेवफा हो गयी।।

लेके हाथो में गजरा निहारा किये।
चांदनी चाँद से फिर जुदा हो गयी।।

छोटी सी भूल हम जो किये थे कभी।
आज मुझको वही तो सजा हो गयी।।

ख्वाब में जिसको देखा जलज ने कभी ।
आँख  मेरी  खुली  तो  कज़ा  हो  गयी।।

डा लियाकत अली 'जलज'

ग़ज़ल 3
वज़न - 2122 122 12
काफ़िया - अन
रदीफ़  -  हो गया

आज कैसा चलन हो गया ।
रीतियों का पतन हो गया ।।

प्रेम लोगो में कम हो गये ।
सारा रिश्ता ग्रहन हो गया।।

 खूँ  के  रिश्ते  कहाँ खो गये ।
 रिश्ते में अब जलन हो गया।।

सहमी-सहमी ज़मी चुप हुई।
तपता सूरज गगन हो गया।।

बेटा  मायूस  था  मेरा  पर  ।
देख खिलौना मगन हो गया।।

फूल चुन कर के लाये थे जो ।
खुशबुओं सा बदन हो गया ।।

प्यार से उसने देखा जलज ।
खूबसूरत  चमन  हो  गया ।।

डा० लियाक़त अली ''जलज''

ग़ज़ल 4
वज्न  - 2212 1221 221 212
काफ़िया  - आन
रदीफ़     -  पर

उड़ता   रहा   परिंदा   सदा  आसमान  पर ।
कौवे को था गुमान फक्त अपनी उडान पर ।।

धरती   पे   हो   निगाहें  भले  आसमान  हों ।
फख्र क्यूँ न हम करें आज अपने जहान पर ।।

जो   प्यार   और  सम्मान  है  तेरे  गांव  में ।
भूला  नही  हूँ   मैं   यार आकर मकान पर ।।

कितना सरस है इस गांव बीसल की ये सरज़मी ।
चर्चा -ए - आम   होने   लगी   हर   जुबान  पर ।।

जलता रहा तपिश में जलज कोई गम नही ।
कुर्बान  मेरी  जां  दोस्त  ऐसे  सम्मान  पर ।।

डॉ० लियाकत अली "जलज"

ग़ज़ल 5
बह्र - 212  122  212 1222
काफिया - ई
रदीफ़ - है

इस नये ज़माने में ,कौन चीज असली है।
तेल,दूध घी आदि अब तो मिलते नकली है ।।

झूठ रूपी खेतों में फसल जो भी उगते है,
यकीन कैसे करले हम शुध्द सभी फ़सली है।।

प्यार को परखने का माप भी नही मिलता,
लूट के बाज़ारो में इश्क़ भी तो मचली है।।

रब बचाये हकीमो से, दर्द बढ़ा देते है,
ज़ख़्म तो पुराने है,दवा कैसी निकली है।।

इनकी क्या लियाकत है,कौन सा तजुर्बा है।
इनकी मुंसिफ़ि देखो,नियत कैसी बदली है।।

डॉ0  लियाकत अली

ग़ज़ल  6
बह्र- 2122    222    2122   222
काफ़िया - आरा
रदीफ़ - हैं

सरपतो  के  झुरमुट में, गांव कितना प्यारा है ।
हर तरफ है हरियाली,तालाबो का किनारा है ।।

मिटटी खेत की लेकर,हर किसान कहता है ।
माथे की ये चन्दन है,नदी तिलक की धारा है ।।

गांव के तालाबों में,नीलकमल खिलते है ।
बेटी घर की लक्षमी है,बेटा राम सा प्यारा है ।।

अमृत की बूंदे भी,गंगा जल में मिलती है ।
स्वच्छ अपना हृदय है,मन में निर्मल धारा है ।।

आज भी बुजुर्गो की,गांव में लियाकत है ।
हम अदब से रहते है,संस्कार ये हमारा है ।।

जब दिल कभी घबराये,गांव में चले आना ।
छांव   बूढ़े  बरगद की,हर दवा से प्यारा है  ।।

डा लियाकत अली

ग़ज़ल  7
बह्र- 2122   2122    2122  22
काफ़िया - अन
रदीफ़ -  देखा क्या

कैसे होती है किसी दिल में चुभन देखा क्या।
आँख रोती है मगर मन की जलन देखा क्या।।

फूट होती है अगर तो लोग विखर जाते है।
इस तरह होते हुए घर का  पतन देखा क्या।।

जो  बयां करती है सच्चाई यहाँ बिकती नही।
ऐसे भी  जांबाज दिलावर का फन देखा क्या।।

एक  हार में गुंथ कर  जो साथ रहते है सदा।
ऐसे रंगीन गुलो का सबने चमन  देखा क्या।।

अब किसी किसान के घर भगत सिंह नही होते।
जहाँ   बन्दूको  के   बोने  का  चलन देखा क्या ।।

 देश   में   बहती   है  देखा प्यार की गंगा बहुत ।
हिन्दू ओ मुस्लिम का  वो गंगो जमन देखा क्या ।।

देश पर अपने जो मर मिट जाये हँसकर के जलज।
ऐसे   वीर  सपूतो  के  तिरंगे का कफ़न देखा क्या।।

डॉ० लियाकत अली 'जलज'

ग़ज़ल  8
बह्र - 212   212   212   212
काफ़िया  - आन
रदीफ़  - हैं काशी की बेटियां

आन, बान ओ शान है, काशी की बेटियां।
लक्ष्मी बाई महान है,काशी की बेटियां।।

लाई है स्वर्ण मेडल कामनवेल्थ  जीतकऱ ।
देश  की  शान हैं   काशी   की   बेटियां ।।

हर साँस में बसती है गन्ध माटी की प्यारे ।
खुसबू   है  फूलदान है काशी की बेटियां ।।

बेटा - बेटी   में   तो   कोई   फर्क  है  नही  ।
होती ये कुल की मान है, काशी की बेटियां।।

काशी की हर गली ही लियाकत है प्यार की।
इस देश की पहचान है, काशी की बेटियां।।

डॉ0 लियाकत अली

गुरुवार, 17 मई 2018

1:00 am

माँ भारती के लाल हो,हिन्द देश की शान हो - विकास भारद्वाज

माँ भारती के लाल हो,हिन्द देश की शान हो
सरकार मौनी साधे, हिंसा से बचाइये ।।

सर्जिकल स्ट्राइक हो,मुंह तोड़ जवाब हो ।
कारगिल ध्यान करो, मजा तो चखाइये ।।

चुकता करो हिसाब,वीरों अगले पिछले ।
हमारे दो के बदले, तोप तो चलाइये ।।

ऐसी करिए दुर्दशा, गिनने ना पाए लाश ।
कायराना चाल खेली, सबक सिखाइये ।।

© विकास भारद्वाज

बुधवार, 16 मई 2018

2:29 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष' की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल क्र० 1           

वज्न      -- 1222   1222  1222
काफिया - ए
 रदीफ  -  को

हमारा ही नशेमन था जलाने को ।
हमारा ही कलेजा था  दुखाने को ।।

हमीं से सीख के शोखी अजी देखो ।
हमारे  सामने  आये   दिखाने  को ।।

दिये  थे  फूल  हाथों  में  हसीं  तेरे ।
उसी  हाथों मिला खंजर चुभाने को ।।

दुआ  में  रोज  माँगी  थी खुशी तेरी ।
मिले ले किन हमीं  तुमको रुलाने को ।।

भुलाया था सभी को ही तिरी लौ में ।
हमी को आज कहते हो भुलाने को ।।

वफा  का  खूब  पाया  है सिला हमने ।
चले हो आज तुम खुद ही मिटाने को ।।

चले हो यूँ  कहाँ देखो  यहाँ मुड के ।
नहीं  यूँ  छोडता  कोई जमाने  को ।।

रहेंगे  हम  कहाँ  बोलो  बिना तेरे ।
जरा दो  बोल  बोले जा दिवाने को ।।

विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'


ग़ज़ल   2       
वज्न -- १२२  १२२  १२२  १२
काफिया --  आ
रदीफ --    कर गया

गमे जाम ऐसा पिला कर गया ।
हमें मौत  से वो मिला कर गया ।।

रुलाया  उसी  की खुशी ने हमें  ।
नया  दर्द  ऐसा दिला कर गया ।।

किया  याद  हमने  हमेशा  उसे ।
उसे क्या हमें वो भुला कर गया ।।

हँसाया  हमीं   ने   हमेशा  जिसे ।
भला  हो  हमें वो रुला कर गया ।।

जगे  हम  तभी  से खुदा  खैर कर ।
हमें  बाजुओं  में  सुला  कर  गया ।।

उसे  ढूँढते  हैं  उसी की डगर  ।
जहाँ वो हमें कल बुला कर गया ।।

खुदा  जिंदगी  ये  हुई   बेवजह ।
नशेमन  हमारा मिटा कर गया  ।।

विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'

 गजल  3
वज्न -- 122  122  122  122
काफिया --आर
रदीफ   --  दें

मिले जो  हमें  वो  गमों को भुला दें ।
खिजाँ जिन्दगी को गुलों से सजा दें ।।

जलाओ  हमेशा  शमा  हौसलों की ।
बुझायें  शमा  को  न ऐसी  हवा दें ।।

निभायें  हमेशा  किये  जो भी वादे ।
नहीं  जिंदगी  में किसी को  दगा दें |।

दुखायें नहीं दिल कभी भी किसी का ।
दुखी  जो  भी  आये मुहब्बत लुटा दें ।।

कभी  आँच  आये  वतन पे  हमारे ।
वतन के लिये हम खुदी को मिटा दें ।।

पढेंगे   हमेशा   अमन  के   तराने ।
चमन में अमन है सभी को बता दें ।।

झुकाना किसी को नहीं खंजरों से ।
झुकाना  वही  चाहतों से झुकादें ।।

मिरी आज दिल में तमन्ना यही है  ।
खुशी  सब  रहें ये हमेशा दुआ दें ।।

विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'           


गजल  क्र 4
बहर- २१२२ २१२२ २१२२
काफिया --- आ
रदीफ -------रहा है
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
ये युवा किस राह चलता जा रहा है।
वे वजा ही आज बहका जा रहा है ।।

ढा रहे है रोज ही जुल्मो सितम को ।
बागवाँ कैसा ये उजडा जा रहा है ।।

हाथ बच्चों के थमा पत्थर रहे हैं ।
कौन कहता मुल्क पढता जा रहा है।।

टाँग खींची भाई ने ही भाई की है ।
भाई से ही भाई लड़ता जा रहा है ।।

दोगलों ने देश को ही खा लिया है ।
देश पर कर्जा ही बढता जा रहा है ।।

कौन कहता है गुलामी है नहीं अब ।
रंग दूजों का ही चढता जा रहा है ।।

आज नारी देश की महफूज क्या है ।
कोंख में खंजर ही गडता जा रहा है ।।

          विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'

ग़ज़ल क्र 5

बहर- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

हमारे पास आ जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।
हमें अपना बना जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।

हमेशा याद आती हैं अदायें झूमतीं तेरीं ।
जरा सा मुस्कुरा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।

सजाये ख्वाब थे हमने हसीं महफिल सजाने के ।
मुहब्बत को जगा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।

बनो हमराह तुम मेरे हमेशा साथ देने को ।
मेरे दिल में समा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।

सुनाये गीत जो तुमने दुनिया से छिपा कर के ।
वहीं फिर से सुना जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।

भुलाते याद जब तेरी तो खुद को भूल जाते हैं ।   
घटा बन दिल पे छा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।

नहीं अब चैन आता है बड़ा बैचेन ए दिल है ।
दवा दर्दे पिला जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।

जो कसमें हमने खाई थीं हमेशा जान देने की ।
वही वादा निभा जाओ तुझे दिल ने पुकारा है ।।

विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'

गजल  7
वज्न - १२२२  १२२२  १२२२ १२२२
काफिया - ने
रदीफ    -  को

हमारे  पास आ जाओ हमारा गम भुलाने को ।
बना लो आज तुम अपना कलेजे से लगाने को ।।

जमाना आज का देखो बडा मुश्किल गुजारा है ।
यहाँ हर  शख्श बैठा है मुआ काँटा चुभाने को ।।

भरोसा कौन करता है किसी का भी जमाने में ।
लगे हैं  एक  दूजे  को   यहाँ  इन्शाँ  सताने को ।।

यहाँ  पर रोज  लुटते हैं यहाँ  पर रोज मरते हैं ।
मगर  कोई नहीं  आता  गरीबों के बचाने को ।।

करें जो बेइमानी बस उन्हीं का आज परचम है ।
सुने कोई  नहीं  भाई  शरीफों  के फसाने को ।।

बचाई जान थी जिसकी कि बाजी जान की देकर ।
वही   खोले   पिटारा   है  हमेशा   ही डसाने को ।।

रखे  जो  पास  हैं  ईमाँ  बने  मजबूर  बैठे हैं ।
यहाँ मक्कार जो जितना चलाता है जमाने को ।।

बताऊँ आप को कैसे बड़ा मजबूर 'विश्वेश्वर',
खड़े हैं घेर कर दुश्मन मुझे खंजर चुभाने को ||

-विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'


गजल 8
बहर- २१२२ , २१२२, २१२२, २१२.
काफिया ----- आ
रदीफ -------- छोड दो

मुस्कुरा कर सामने से पास अाना छोड़ दो ।
देख कर हम को जरा नजरें मिलाना छोड़ दो ।।

देख कर हम पर गुजरती ए सनम हम क्या कहें ।
इश्क के मारे बहुत हम को सताना छोड़ दो ।।

खौफ लगता है सुनो तुम को जमाने से कहीं ।
तो ज़माने में रहो या फिर ज़माना छोड़ दो ।।

आज तक बोले नहीं बस ये चुभन दिल में रही ।
मौन रह कर भी हमें तुम अब रुलाना छोड़ दो ।।

कौन कहता है कि हम आशिक नहीं तेरे सनम ।
आइने   के  सामने  तुम   ए  बताना  छोड़  दो ।।

प्यार  में शम्मा   विचारी  देख तो पल पल जली ।
या तो तुम शम्मा बनो या फिर जलाना छोड़ दो ।।

जान तुम पर है फिदा जाने जिगर मैं क्या कहूँ ।
जान  न   दे  दूँ कहीं तुम आजमाना छोड़ दो ।।

चाँदनी में चाँद बन कर तुम नहीं आया करो ।
चाँद शरमाता बहुत है छत पे आना छोड़ दो ।।

  - विश्वेश्वर शास्त्री 'विशेष'

     राठ हमीरपुर (उ.प्र.)
2:25 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत" की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
वज्न     - 212 212 212 212
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ  - चाहिए।

शब्द बोलो मगर तौलना चाहिए ।
तौल करके सदा बोलना चाहिए ।।

होश आता नहीं शाम होते  यहाँ ।
जाम पीकर नहीं झूमना चाहिए ।।

नैन उनके मुझे देखते हैं अभी ।
आस करके जिया खोलना चाहिए ।।

पाक मिट्टी मिली आज हमको यहाँ ।
हाथ  लेकर  इसे  चूमना   चाहिए ।।

दोस्ती के सफ़र में मिली जो दुआ ।
साथ उसको लिये पूजना चाहिए ।।

रोज जिनके यहां खेलते थे कभी।
पास जाकर वहां घूमना चाहिए।।

दर्द  होगा  उसे  दूर  जाये  कही ।
राज की बात हैं सोचना चाहिए ।।

भौह तिरछी किये पास थी वो खङी ।
नैन  भी  तो  नही  मोङना  चाहिए ।।

प्रीत करता रहा रात दिन में उसे ।
इस तरह से नही छोड़ना चाहिए ।।

वो किताबी मजे याद आते हमें ।
लेख लिखकर सदा जाँचना चाहिए ।।

राह कांटो भरी जो मिलेगी कभी।
अश्क आँखो लगे पोछना चाहिए ।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "


गजल  2
वज्न  - 122 122 122 122
काफिया - आ
रदीफ - नही है

हमारे  हृदय  का  किनारा  नही  है ।
किसी की नज़र का इशारा नही है ।।

दिखी जो जहाँ में पड़ा आज पीछे ।
जमाना  दिखाये  नजारा  नही  है ।।

करूं बात सारी नदी की लहर सें ।
बहाये  सभी  को  गवारा  नही है ।।

भले  रूठ  जाये  हमारी  मुहब्बत ।
जमीं पर मिले वो सितारा नही है ।।

चले चाल सीधी मिले अजनबी भी ।
खुमारी  चढ़ी  पर  पुकारा  नही  है ।।

कहो  आज मनसे जहां में जहाँ पर ।
किया  काम  ऐसा  सुधारा  नही  हैं ।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 3
बह्र      - 122 122 122 122
काफ़िया  -  अन
रद़ीफ      -  की

सुनाओ उसी को सुने बात मन की ।
दिखाओ जहाँ में रहे आस धन की ।।

खिलौना बना हैं मुसाफिर यहां का।
न ठहरो वहां पर हिफाजत न तन की।।

हरी डाल तोङे उसी को सजा दो ।
मिले नेक छाया जहाँ छाँव वन की ।।

निकालो न पाती लिखी थी जुवां से।
सिखाओ पढ़ा कर गुने सोच जन की।।

किनारे किनारे चला आज उससे ।
कहू आज भारत तमन्ना गगन की ।।

तपन  में  जलेगें मुहब्बत  करेगें  ।
करूं आज बाते सुहाने चमन की ।।

उठूँगा   गिरूँगा   चलूँगा  जहाँ   में ।
करूंगा हिफाजत यहां पर वतन की।।

लडाई   करो   दूर   मेरा   शहर  हैं ।
दुआ अब करो आज न्यारे अमन की ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 4
बह्र- 1222 1222 1222 1222
रद़ीफ     -  को
काफ़िया -  ये

कही कोई नही होता सफर में साथ चलने को ।
मिले दुश्मन यहाँ हैं सब नहीं कोई पिघलने को ।।

उसी ने जान दी अपनी मगर सोचा नही हैं कुछ ।
हथेली पर रखा हैं दिल चला मैंखाने पलने को ।।

भरोसा कर लिया मैंने उसे अपना समझ कर ही ।
यहाँ  सीधे  चलाये  तीर  मेरी  जान  खलने  को ।।

करूं सेवा उसी की रात दिन राही मिले जो हैं ।
लगी जो चोट सीने में वही पर तेज मलने को ।।

सिफारिश हो गई हैं तो जमाना प्यार करता है ।
करूं फरियाद में रब से जरा सा और फलने को।।

सिखाया पाठ जो हमको वही में आज बतलाता।
सड़क की मोड़ पर बैठे सभी अब आज पलने को।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

गज़ल 5
वज्न  - 1222 1222 122
रदीफ - हरदम।
काफ़िया - आ।

जमाने ने दिखाये रंग हरदम ।
रहा में भी उसी के संग हरदम।।

बताई थी बहुत बाते सफर में ।
मगर में था परेशां तंग हरदम ।।

नयी तकनीक खोजी है जहां में ।
बहुत  ढूँढ़े  हुआ वो दंग हरदम ।।

डराते   हैं  मुझे  अंगार  से  वो  ।
लडे हैं हम सदा ही जंग हरदम ।।

नमक डाले कभी वो रोज यारो ।
जले  थे  जो हमारे अंग हरदम ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"

ग़ज़ल 6
वज्न - 122 122 122 122
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ - हुआ हैं

दिले  इश्क को  तो कमाया हुआ है ।
ये दिल रात दिन भर जलाया हुआ है ।।

मुझे   क्या   पता  था हुई  पीर  भारी ।
नरम हाथ से खिल खिलाया हुआ है ।।

जमाना  सुने  आज  मेरी  कहानी ।
दिवाना वही फिर सुलाया हुआ है ।।

मुझे   आज   तो   वो  बुराई  सताये ।
उसी दिल लगी को भुलाया हुआ है ।।

उसी  से  कहूँ राज दिल खोलके मैं ।
बिना  पैर  के  भी  चलाया हुआ  है ।।

हमारा  कहा  आप  गर  मान  लेते ।
यहा आँख से गम पिलाया हुआ है ।।

खड़ी दूर मुझसे जरा पास आओ ।
हमे  रात  मे  भी बुलाया हुआ है ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"

 ग़ज़ल 7
बह्र - 1222 1222 122
रद़ीफ - आया
काफ़िया - आम।

यहाँ पर आज कैसा नाम आया ।
कही कोई नही अब काम आया ।।

सभी  बैठे  यहाँ पर मुँह फुलाये ।
नही जब हाथ में तो दाम आया ।।

नशे  से  हो  गये मशहूर जो भी ।
पिये वो भी यहाँ पर जाम आया।।

कही  जोगी  कही  भोगी मिले हैं ।
बहुत भटके यहाँ पर धाम आया ।।

हुकूमत छोड़ दी हमने जहां की।
वही सब मोड़ करके थाम आया।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 8
बह्र       :- 1222 1222 1222
काफ़िया:- ए
रद़ीफ:-    को

मिले हमको यहाँ सब साथ चलने को ।
यही  बाते  सुनी  हैं  रोज  खलने को ।।

हमारा तो मुकद्दर बोलता है जो ।
किसी के रास्ते में नेक मिलने को ।।

सुमन मन से मिले वो बाग बन कर भी ।
गुलाबी   रंग   की  बौछार  फलने  को ।।

कभी उससे किया वादा निभाया है ।
नई सी पंख की डाली न खिलने को ।।

गनीमत हैं जहाँ वालो अभी तो ये ।
कहो मत हाथ में भी हाथ मलने को ।।

यहाँ रोका नही तुमको शराफत हैं ।
चले आओ समय के साथ ढलने को ।।

-नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
   छतरपुर  ( मध्यप्रदेश )

शनिवार, 12 मई 2018

2:51 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में दिलीप कुमार पाठक "सरस" की कुछ ग़ज़लें

गज़ल क्र० 1
बह्र - 1222 1222 122
क़ाफ़िया~ आना
रदीफ़~ आ गया है

कहाँ किसको निभाना आ गया है ।
बड़ा ज़ालिम जमाना आ गया है ।।

अँधेरे   में   चलाया   तीर  ऐसे ।
निशाने पर निशाना आ गया है ।।

हुईं  आँखें  नशीली  लब  गुलाबी ।
कि साकी को पिलाना आ गया है ।।

जवानी जब चटकती है महकती ।
कली  को मुस्कराना आ गया है ।।

लिफाफे पर चमक होना जरूरी ।
नये  में  फिर  पुराना आ गया है ।।

चलेगा दौर कब तक ये पता क्या ।
"सरस" सिक्का जमाना आ गया ।।

©दिलीप कुमार पाठक "सरस"

गज़ल क्र 2
बह्र - 1222 1222 1222
क़ाफ़िया- आने
रदीफ़ - का मिले मौका

कली को मुस्कराने का मिले मौका ।
भ्रमर को गुनगुनाने का मिले मौका ।।

सजी  अभिसारिका मिलने चली आयी ।
कभी  तो  आजमाने  का  मिले  मौका ।।

तपेगा ताप कब तक मैं रहूँ प्यासा ।
भरी बारिश नहाने का मिले मौका ।।

जवाँ - सी  चाँदनी  रूठी  हुई  बैठी ।
हँसाने  का  मनाने  का  मिले मौका ।।

समय  काटे  नहीं  कटता  अकेला  हूँ ।
तुम्हें  भी  तो  बुलाने  का मिले मौका ।।

तुम्हारे एक आने से ये हसीं महफिल ।
"सरस" अपना बनाने का मिले मौका ।।

© दिलीप कुमार पाठक "सरस"

गज़ल  3
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - आरा
रदीफ - नहीं है

यहाँ  आज कोई हमारा नहीं है ।
जमाना  बुरा है  सहारा नहीं है ।।

हवा में  उड़ेंगे  अभी और ऊपर ।
खुदा का कोई तो इशारा नहीं है ।।

अभी और फाँके गरीबी के कितने ।
बड़ी  मुफलिसी  है गुजारा नहीं है ।।

नदी-सी सदी है चली जा रही है ।
कहाँ जा रही है  विचारा नहीं है ।।

उछाला गया है सरस दोष किसका ।
हमारा  नहीं   है   तुम्हारा  नहीं  है ।।

©दिलीप कुमार पाठक "सरस"

गज़ल 4
बह्र - 1222 1222 1222
काफ़िया - इयों
रदीफ - पर है

सियासत गोटियों की बोंटियों पर है ।
कहीं रोटी कहीं तो बेटियों पर है ।।

सुनायी दे रही वो चीख कैसी है ।
खबर कैसे नहीं जो सुर्खियों पर है ।।

गरीबों का निवाला छीन लेता जो ।
दलालों की दलाली मंत्रियों पर है ।।

भरोसा एकता का तोड़ मत देना ।
बड़ी आफ़त हमारे साथियों पर है ।।

शराफ़त का ढिढोरा पीटने वाले ।
बुरा हर काम काला मर्जियों पर है ।।

अकेले का नहीं है दोष सिस्टम में ।
मशाले में नमक भी मिर्चियों पर है ।।

अड़ाना  टाँग  छोड़ो  है  बड़ा  मुर्गा ।
सरस  दावत  अभी तो मुर्गियों पर है ।।

© दिलीप कुमार पाठक "सरस"

ग़ज़ल  5
बह्र- 1222 1222 1222
काफ़िया - अन
रदीफ़ - कैसी

हवाओं  ने  कहा  है ये घुटन कैसी ।
कटे उस पेंड़ से पूछो चुभन कैसी ।।

ख़ता थी उन ख़तो की जो लिखे तुमने ।
जवाबी  ख़त  जलाने  में  जलन कैसी ।।

समझ इतनी कि खुद को नासमझ कहती ।
मिलन  की  आग  में  जलती अगन कैसी ।।

नहाना झील में उसका क़यामत था ।
नज़र में हुस्न की मदिरा मगन कैसी ।।

कमल की उस कली में जब भरे खुशबू |
महकती  फिर  जवानी  आदतन  कैसी ।।

सरस  की  प्यास  कोई  आ  बढ़ा  जाए ।
चली  है   आज  देखो  तो  पवन  कैसी ।।

© दिलीप कुमार पाठक "सरस"

ग़ज़ल 6
बह्र - 212 212 212 212
काफ़िया - आ
रदीफ - चाहिए

मुस्कराती  हुई   ये  फ़िजा  चाहिए ।
ज़िन्दगी को जरा सी वफ़ा चाहिए ।।

इक  नज़र  का तलबगार  बीमार  है ।
कुछ दवा चाहिए कुछ दुआ चाहिए ।।

नींद आती नहीं रात भर आजकल ।
हुस्न को इश्क़ की बस हवा चाहिए ।।

प्यास बन चूम ले झूम के लफ्ज़ को ।
गुनगुनाने  को  कुछ तो नया चाहिए ।।

मैं  लिखूँगा  तुम्हारे  लबों  पर  गज़ल ।
बस "सरस" प्यार का हौसला चाहिए ।।

 दिलीप कुमार पाठक "सरस"

ग़ज़ल 7
वज़्न - 122 122 122 122
काफ़िया- आना
रदीफ़-  हुआ है

किसी की नज़र का निशाना हुआ है ।
कहीं हुस्न पर दिल दिवाना हुआ है ।।

गज़ब ढा रहा मुस्कराना तुम्हारा ।
बड़ा आज मौसम सुहाना हुआ है ।।

लगाके गले से कहा कान में कुछ ।
गज़ल का मुकम्मल तराना हुआ है ।।

लिपट  यूँ  गयी है लबों की गुलाबी ।
भरा जाम़ खुद को पिलाना हुआ है ।।

बहारें   पुकारें  हसीं  हैं  नज़ारे  ।
इशारे  इशारे  बुलाना  हुआ है ।।

कसम इश्क़ की मैं बना प्रेम जोगी ।
हमारा  तुम्हारा फसाना हुआ है ।।

कभी गुनगुनाना गज़ल है तुम्हारी ।
सरस  है  तुम्हारा बताना हुआ है ।।

दिलीप कुमार पाठक "सरस"

ग़ज़ल 8
व़ज्न~122 122 122 122
क़ाफिया~ए (स्वर)
रदीफ़~से लगा ले

लगा ले लगा ले गले से लगा ले ।
शराबी बना मयक़दे से लगा ले ।।

अकेला  खड़ा हूँ  नहीं साथ कोई ।
जरा पास आ काफ़िले से लगा ले ।।

कहीं काम का हो न जाऊँ कभी मैं ।
अभी तो मुझे हाँसिये से लगा ले ।।

गिरूँगा उठूँगा अभी मैं लड़ूँगा ।
अँधेरा घना है दिये से लगा ले ।।

बड़प्पन  डराता  बहुत आजकल है |
मुझे  भी  मेरे  बचपने  से  लगा  ले ।।

गज़ल की कसम फिर गज़ल गूँज होगी ।
"सरस"  शेर  को  क़ाफ़िये  से  लगा ले ।।

©दिलीप कुमार पाठक "सरस"
2:33 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में शैलेन्द्र खरे "सोम' की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल   1
बहर-2×15
काफ़िया- आ स्वर
रदीफ़-करता हूँ

मैं  पागल  सायों  के  पीछे - पीछे  भागा  करता हूँ ।
वीरानों  में  गीत  मिलन  के अक्सर गाया करता हूँ ।।

अब केवल मयखाने में  ही  चैन  मेरा दिल पाता है ।
मन्दिर मस्जिद की राहों  पर मैं तो बहका करता हूँ ।।

क्या जानूँ नयनों की भाषा खुद को जैसे भूल गया ।
गैरों  से  आंसू  लेकर  मैं  भी  तो   रोया  करता हूँ ।।

कल  की भोर नही देखूँ मैं ऐ मालिक दिल ऊब गया ।
लिख  देता  हूँ  रोज  वसीयत जब मैं सोया करता हूँ ।।

मैं नवयुग बातें क्या जानूँ कुछ भी सीख नहीं पाया ।
पर इतना संज्ञान है मुझको कागज काला करता हूँ ।।

लगते  हैं  अपने   बेगाने  भूला  बस्ती  हस्ती  सब ।
अपने घर की  राह सभी  से मैं खुद पूछा करता हूँ ।।।

कोई बात  हुई  ऐसी  जो  मुझको  भी मालूम नहीं ।
क्यूँ  तेरे  बारे   में  खुद  से  ज्यादा सोचा करता हूँ ।।

"सोम"भला कैसा शिक़वा जो कोई अपना खास नहीं ।
अपनों  के  कारण  अपनों  को  रोते  देखा  करता  हूँ ।।
                                     
शैलेन्द्र खरे"सोम"

ग़ज़ल  2
बह्र- 212 212 212 212
काफ़िया- अर
रदीफ़- जाएगा

जान भी  जायेगी  ये   जिगर  जाएगा ।
ऐसे देखो न  आशिक तो  मर जाएगा ।।

फूल  नाज़ुक  है ये  इसको  छूना नहीं ।
टूटकर बस जमीं पर बिखर  जाएगा ।।

है   नशा   तो   अभी   मैं    शहंशाह हूँ ।
ये  नशा  रात   भर   में  उतर  जाएगा ।।

चैन  पाता  नहीं  अपने   घर  में अगर ।
जा  रहा है तो  जा  तू  किधर जाएगा ।।

कुछ निकल जायेगी  आँसुओं में तपन ।
वक्त के  साथ  हर  जख़्म भर जाएगा ।।

खुद   तमाशा   बनेगा   वो   संसार  में ।
जो  मेरे  दिल  से  यूं  खेलकर जाएगा ।।

मत पढ़ो  जोर  से सुर्खियां आजकल ।
पेट  में  भी  जो  बच्चा है डर जाएगा ।।

रंगतों   के    लिए   भागना    छोड़ दे ।
तितलियाँ  तो मिलेंगीं  जिधर जाएगा ।।

"सोम" रुख  से अगर वो हटा  दें  घूँघट ।
वक्त  भी  एक  पल  को  ठहर जाएगा ।।

घूँघट - मुख ढकने का जालीदार कपड़ा

शैलेन्द्र खरे"सोम"

ग़ज़ल  3
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- ई
रदीफ़- है

किसी  की  चाह  यूं  दिल में दबी है ।
कहूँ    कैसे    बड़ी    ही   बेबसी है ।।

जहाँ   भी    देखता    हूँ   तीरगी है ।
दिनों-दिन   बढ़   रही   आवारगी है ।।

उदासी  के   भँवर    में   चाँद  डूबा ।
बहुत   सहमी   हुई   सी  चाँदनी  है ।।

नहीं  परवाह  मुझको  मुश्किलों की ।
डगर    काँटों   भरी    मैंने   चुनी है ।।

चले  आओ  मेरे   दिलवर  कहाँ हो ।
हवा  रूख़ी  फिज़ा  भी  अनमनी है ।।

जिसे   है  टूटकर   मुझसे   मुहब्बत ।
करे  गुस्सा   कभी   तो  लाज़मी  है ।।

कहो  किसको  पता कब रूठ जाए ।
बड़ी    ही   वेवफ़ा    ये  जिन्दगी है ।।

गले लग जा कयामत आ लिपट जा ।
पता   किससे   मेरा   तू   पूछती  है ।।

सजाये   कौन  टूटे   ख़्वाव   हैं  जो ।
बड़ा  ही  मतलबी   अब  आदमी है ।।

अँधेरों  से  निकल  कर "सोम" देखो ।
जहां   में   रोशनी    ही    रोशनी  है ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"

ग़ज़ल  4
बहर~122 122 122 122
काफ़िया - आओ
रदीफ़ - गैर मुरद्दफ

खड़े दूर  क्यों   हो  जरा  पास आओ ।
मुहब्बत में  ऐसे  न  दिल को जलाओ ।।

हजारों  जवां   दिल  मचल  ही  उठेंगे ।
अदाओं से यूं बिजलियाँ  मत गिराओ ।।

भरी  मस्तियाँ   जो  निगाहों  में, पीलूँ ।
कभी पास आकर  तो नजरें मिलाओ ।।

मुझे  यूं  सताओ  न  अपना  बनाकर ।
कभी  प्यार  से  नाम  लेकर  बुलाओ ।।

लगेगी बहुत  चोट  नाजुक  बदन पर ।
हवाओं  सुनो  पास   उनके  न जाओ ।।

सुने"सोम"किस्से जो  चाहत वफ़ा के ।
कभी  मैं  सुनाऊँ  कभी  तुम सुनाओ ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"

ग़ज़ल 5
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- आ (स्वर)
रदीफ़- है

मुकद्दर आजकल मुझसे ख़फ़ा है ।
अभी बर्बादियों का  सिलसिला है ।।

फिरा  सारे   जमाने   में  भटकता ।
सकूं फिर भी नहीं घर सा मिला है ।।

निगाहों से पिलाया क्या  बता दो ।
उतरता  ही   नहीं   कैसा  नशा है ।।

इरादों  में  बुलंदी  हो  तो  समझो ।
तुम्हारे   सामने  अम्बर   झुका है ।।

जिसे अहसास अपनी भूल का हो ।
नहीं  उसके   लिये  कोई  सजा है ।।

कहूँ आबाद  कैसे  इस  जहां को ।
यहाँ  कोई  नहीं  हँसता  दिखा है ।।

परेशां "सोम" दुश्मन  इसलिये भी ।
बचा  लेती  मुझे  माँ  की  दुआ है ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"


गजल  6
बहर~122 122 122 122
काफ़िया- आरे
रदीफ़-  सलामत

नज़र भी  सलामत नजारे सलामत ।
सदा खुश रहो तुम तुम्हारे सलामत ।।

गिराते  रहो   बिजलियाँ यूं दिलों पे ।
हसीं शोख़  कातिल इशारे सलामत ।।

नहाते   रहो   इश्क   की  रोशनी में ।
रहें जबतलक  ये  सितारे  सलामत ।।

दिया छोड़ इस मुफ़लिसी में सभी ने ।
बहुत है जो ग़म  के सहारे सलामत ।।

हुई  एक  मुद्दत  मुझे  उनसे बिछुड़े ।
बुझी  आग  लेकिन शरारे सलामत ।।

उठा जो कभी  कोई' तूफान तो भी ।
उफनतीं ये  मौजें  किनारे सलामत ।।

यही सोच  तो  "सोम" करते दुआ हैं ।
तभी हम सुखी जब हमारे सलामत ।।

 शैलेन्द्र खरे"सोम"


ग़ज़ल  7
बह्र-  2122  1212  22
काफ़िया- आरा
रदीफ़- है

आज  कहता  जहान सारा है ।
आदमी   आदमी  से  हारा है ।।

चाँद  से   चाँदनी   लगे  रूठी ।
यार  गर्दिश  में जो सितारा है ।।

भूल सकता  नही  कभी यारों ।
वक्त  जो  साथ  में  गुजारा है ।।

मछलियाँ छोड़ के कहाँ जायें ।
आज पानी हुआ जो  खारा है ।।

कोई  मिलता  कोई जुदा होता ।
बहती जाती समय की धारा है ।।

भूल  पाऊँ नही  कभी  तुमको ।
हर  तरफ  हो  रहा  नजारा  है ।।

आँख  जब बंद हो गई उसकी ।
वो न  बोला  बहुत  पुकारा है ।।

बेसहारा   कहाँ   हुआ  हूँ   मैं ।
तेरी  हर  याद  का  सहारा है ।।

"सोम" बैठो  न हार कर यूं भी ।
वक्त  का  भी  यही  इशारा है ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"


ग़ज़ल  8
बहर-2122 2122 2122 212
काफ़िया- आओ
रदीफ़-  आप जो

एक  पल  जी  लूं  खुशी  से पास आओ आप जो ।
बैठ   कर   पहलू   में'   मेरे   मुस्कुराओ  आप जो ।।

मैं   यहाँ   से   देखता   हूँ   चाँद   देखो  आप  भी ।
इस  तरह   ही   दूरियाँ  थोड़ी  मिटाओ  आप जो ।।

जान  इतना   जानिए    ये  जिंदगी   हो  खुशनुमा ।
नाम   का    सिंदूर   मेरे   जो   लगाओ  आप  तो ।।

माप  लें  इक  दूसरे    की   सासों   की  गहराइयाँ ।
आज  मुझको  भी डुबो  कर डूब जाओ आप जो ।।

अब तलक  अपने   मुझे   हर   दौर   तड़फ़ाते  रहे ।
आपसे शिकवा गिला क्या दिल जलाओ आप जो ।।

आँसुओं  से  ही  लिखी  है  अपने दिल की दास्ताँ ।
हँस रहे हैं सब खता क्या खिलखिलाओ आप जो ।।

जानता  भाषा   नजर   की   मैं  नजर  से  बोलता ।
आपके  दिल  को  पढूँ  नजरें  मिलाओ  आप जो ।।

"सोम"  इश्को  आशिकी  में   यूं  कई  शायर  बने ।
इक ग़ज़ल मैं भी  लिखूँ अब गुनगुनाओ आप जो ।।

शैलेन्द्र खरे"सोम"

शुक्रवार, 11 मई 2018

2:58 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में बृजमोहन श्रीवास्तव 'साथी' की कुछ ग़ज़लें

नाम- बृजमोहन श्रीवास्तव
साहित्यिक नाम- साथी
पिता का नाम- श्री राधाकृष्ण श्रीवास्तव
माता का नाम- श्रीमति मथुरा बाई
जन्मतिथि - 20/08/1976
निवासी- वार्ड. नं. 25 मोती अपार्टमेन्ट के बगल में ठाकुर बाबा मन्दिर के पास डबरा जिला ग्वालियर (म.प्र.)
शिक्षा- बी.काँम, एम.काँम, एल.एल.बी.
पुरूस्कार/सम्मान  -वागेश्वरी पुँज अंलकरण ,श्रेष्ठ कलमवीर सम्मान ,जनचेतना मंच बीसलपुर (उ.प्र.)
प्रकाशन विवरण -काव्य नंदिनी मे गीत ,अखबार और पत्रिकाओ गीत कविताओ का प्रकाशन ,sr chenal 84 lndore पर काव्य पाठ प्रसारण 9/6/18 शाम 8.00 बजे

गजल  1
बहर - 22, 22, 22 ,22 ,22 ,22, 22, 2
रदीफ- लगता है ।
काफियाँ- आ

अपने रंग लगाते है तो, दिल को अच्छा लगता है ।
अपने रंग दिखाते है तो, दिल को धक्का लगता है ।।

विष घोले जो मन ही मन मे, बाते मन माफिक करता ।
सच  कहने  मादा जिसमे  क्यो  वो  झूठा  लगता  है ।।

जो  खाते  मेहनत  से रोटी,  जीवित  बस  ईमान रखा ।
वे तो भृष्ट दिखे जन जन को , माल्या सच्चा लगता है ।।

देश चलाओ मोदी जी तुम, बहुमत खूब दिया जन ने ।
मँहगाई  मे  दबती जनता, आज  छलावा  लगता  है ।।

आगे भी सत्ता आऐगी, बस  जनता  का ध्यान रखो ।
जीत सुनिश्चत है हरदम ही, राहुल बबुआ लगता है ।।

बीबी चाहे कितनी सुन्दर, आँख  टिकाते  साली पर ।
साली जब घर में आ जाये , मजनू जीजा लगता है ।।

सोच बहूँ की सब जन रखते, बेटी  से  क्यो  डरते हो ।
बेटी  चाहे  कुछ  भी  कर  ले, बेटा  प्यारा  लगता है ।।

होली  है  त्यौहार  मिलन  का,  सारे  रंग  लगा  देना ।
हिन्दु मुस्लिम गले है मिलते, उत्सव न्यारा लगता है ।।

© बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"

गजल 2
बहर -212 , 212 , 212 ,212
काफियाँ -आन
रदीफ -है

चंद पैसो मे  बिकता ये  ईमान है ।
लोग इसमें समझते क्यूँ शान है ।।

प्यार के नाम पर बस छलावा  दिखा ।
हो  रहा  हीर  राँझा  का  अपमान  है ।।

क्या  हुऐ  आज  नेता  बताये  किसे  ।
हर गली हो रहा सच का बलिदान  है ।।

खो रही संस्कृति सादगी सभ्यता ।
आज नंगे बदन का ही सम्मान है ।।

मंदिरो  में  कहाँ  अब  ईश्वर  है   रहे  ।
फिर  भी  देते  वही  पर  सब  दान है ।।

मस्जिदो में खुदा आज बंदी बना ।
कर खुदा पर रहे बंदे अहसान है ।।

भूख उसकी मिटाओ जो भूखा दिखे ।
फिर खुदा आप पर खुद मेहरबान है ।।

लड़ रहे मंदिरो मस्जिदो के लिऐ ।
राम का दूसरा  नाम  रहमान है ।।

आज सिक्को में बिकता है जग देखिऐ ।
हाथ जिसके है पावर वो दीवान है ।।

दुख  करो  मत कभी  जिन्दगी  मे  सनम ।
हमसाथी के पास खुशियो का सामान है ।।

बोल मीठे ही *साथी* सदां बोलना ।
बोल कड़वे से मिलता कहाँ मान है ।।

© बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"          
   
गजल    3
बहर-212,212,212,212
काफियाँ -आ
रदीफ-पड़ा

प्यार करना हमें तुमसे मँहगा पड़ा ।
जेब का खर्च सारा ही भरना पड़ा ।।

जिदंगी  में  थी  आयी दिवाली लगी ।
आज मेंरा दिवाला है निकला पड़ा ।।

सीदा  सादा  था  मार्ग  प्रिये   प्यार  का ।
नाज  नखरो  से  सपनो  में  रोना  पढ़ा ।।

सोचता   हूँ   बचा  लू   मैं   पैसे  अभी ।
आयी जी. एस. टी. है तबसे सूखा पड़ा ।

आज   बरबाद   होकर   खड़ा   सामने ।
फिर भी मुँह तेरा ये क्यो  है लटका पड़ा ।।

खर्च  तूने  किया  इतना  जानू  मेरा ।
तेरे श्रंगार पर मुझको बिकना पड़ा ।।

प्यार  तुमसे  करू  या  तुम्हे  छोड़  दू ।
आज संशय में *साथी* बिचारा पड़ा ।।

कवि बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"

गजल  4
बहर -2122 , 1212 , 22
काफिया - आब
रदीफ - होती है

जिंदगी इक  किताब  होती  है ।
खूबसूरत   जबाब   होती   है ।।

आईने  पर  यकींन  कर  लेना ।
हर कली ही  गुलाब  होती है ।।

प्यार मिलता नही यहाँ सच्चा ।
हुश्न  जग  में शबाब  होती  है ।।

मत पियो जाम मँहगा है यारो ।
इससे तबियत खराब होती है ।।

नैन  तुमसे मिले  है  अब  शामें ।
बिन  पिये  बेहिसाब  होती   है ।।

आदते गम भुलाने की सीखो ।
यादें मीठा ही ख्वाब होती है ।।

आज *साथी* चले आओ दिल में ।
कब मुहब्बत  हिसाब  होती  है ।।

कवि बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"

गजल 5
बहर-2122  1212   22
काफियाँ-  ईर
रदीफ- बनता है

प्यादा जब भी वजीर बनता है ।
देख  लेना  नजीर   बनता  है ।।

तोड़   डाली  कमर  गरीबी  ने  ।
कौन  वरना  फकीर  बनता  है ।।

जो मिला है सबक अमल करना ।
कौन  वरना  कबीर   बनता   है ।।

बिछ रही है बिसात धोखे  की ।
राजनेता   अमीर   बनता   है ।।

क्यो किया है  गुरूर काया पर  ।
माँस  से  ही  शरीर  बनता  है ।।

जी रहे  आज किस वहम में हो ।
दूध  फटकर  पनीर  बनता  है ।।

सत्य असहाय सा खड़ा दिखता ।
झूठ  हरदम  अबीर  बनता  है ।।

देख लो सरहदो को अब *साथी* ।
प्यार से  कब  जमीर  बनता है ।।

कवि बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"

गजल 6
बहर-1222 ,1222 ,122
काफियाँ-  आ
रदीफ-   दो

लगे जो हमसफर अपना पता दो ।
पकड़कर हाथ थोड़ा सा दबा दो ।।

नशे में झूमने  का शौक  जिनको ।
पता मत पूछना उनको पिला दो ।।

पहनकर  बैठते  जामा  सियासी ।
हकीकत से उन्हे वाकिफ करा दो ।।

बने  बैठे  है  जो  गामा  फिरोजी ।
बिना पूछे सिरो को अब उडा़ दो ।।

गरीबों  की  बनी  है  ठंड  दुश्मन ।
बदन पर आज तुम कम्बल उढ़ा दो ।।

मिटा दो आज नफरत को दिलो से ।
सभी का धर्म हो भारत सिखा दो ।।

नशे  *साथी*  बुरे  सब  छोड़  देना ।
युवा  तस्वीर  भारत  की सजा दो ।।

कवि बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"

गजल  7
बहर-212 , 212 ,212
काफियाँ -  आना
रदीफ-  नही

बेबसो  को  सताना नही ।
डूबते  को  बहाना  नही ।।

रूठने की है आदत बुरी ।
रात में अब सताना नही ।।

हाल दिल का तो हम जानते ।
बात  हमसे  छुपाना  नही ।।

ज़िन्दगी से तू लेना सबक ।
दिल किसी का दुखाना नही ।।

आज दिल की ही सुनना *साथी*।
पर  किसी  को   बताना   नही  ।।

कवि बृजमोहन  श्रीवास्तव "साथी"

गजल  8
बहर- 212, 212, 212, 212
रदीफ- कर दिया
काफियाँ- आ

हाथ मेने जो पकड़ा मना कर दिया ।
गैर बाँहो में झूली ये क्या कर दिया ।।

आँख  मुझसे  कभी  भी  मिलायी नही ।
डूब आँखो में किसकी भला कर दिया ।।

प्यास  मिलने  की तुमसे बहुत थी मुझे ।
हमको आँसू दिखा कर विदा कर दिया ।।

आँखो  में था  बसाया खुशी से सनम ।
अश्क हमको बनाकर दगा कर दिया ।।

प्यार  पावन  मेरा  यार  लज्जा  नही ।
मेरी चाहत को तुमने जफा कर दिया ।।

मत  कराओ  कभी  अपना दीदार तुम ।
आज सजदे में तुमको खुदा कर दिया ।।
 
जी  नही  सकते  साथी  तुम्हारे  बिना ।
जानकर भी हमें क्यूँ  जुदा कर दिया ।।

कवि बृजमोहन श्रीवास्तव "साथी"
डबरा
2:55 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में सन्तोष कुमार 'प्रीत' की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
बह्र - 1222      1222    1222   1222
काफिया - ना
रदीफ - नही अच्छा

लगाते ठेस अपने ही मगर रोना नही अच्छा ।
सदा उनके लिए तो बेरुखी होना नही अच्छा ।।

अगर हो क्रोध में कोई तो कुछ भी बोल देता है ।
हमेशा ऐसी बातें दिल पे तो ढोना नही अच्छा ।।

जो जैसा करता है उसकी वही आदत है ये समझो ।
किसी की बातों से विश्वास को खोना नही अच्छा ।।

किसी के वास्ते गर तुम फूल बन कर खिल नही सकते ।
किसी  की  राह  में  कांटो  का  तो  बोना नही अच्छा ।।

अगर  जो चाहते हो तुम कभी सेहत नही बिगड़े ।
सुबह फिर इस तरह से देर तक सोना नही अच्छा ।।

किसी की बातों से सकूँन का खोना नही अच्छा।
किसी के भी लिए तो 'प्रीत' ना होना नही अच्छा।

सन्तोष कुमार 'प्रीत'

ग़ज़ल 2
वज्न - 2122   2122    2122   12
काफिया - ई
रदीफ़ - अच्छी नही

दिल लगी तो ठीक है दिल की लगी अच्छी नही ।
जब  जमाना  बेरहम  हो  सादगी  अच्छी  नही ।।

हर किसी के सीने में दिल है कोई पत्थर नही ।
प्यार करना तो भला है आशिकी अच्छी नही ।।

यूँ नही कोई जो करता ही न हो कोई नशा ।
हर नशा तो लाजमी है बेखुदी अच्छी नही ।।

कोई  सजदा  कोई  पूजा  कर  रहा है देखो ।
मन मे जब श्रद्गा न हो तो बंदिगी अच्छी नही ।।

हर किसी की होती हसरत वो बड़ा इंसान हो ।
धन का बढ़ना ठीक है पर साहबी अच्छी नही ।।

'प्रीत' ही दिल मे न हो तो है जुदाई ही भली ।
हो अगर जो सामने तो बेरुखी अच्छी नही ।।


सन्तोष कुमार 'प्रीत'

ग़ज़ल  3
बह्र - २१२२ १२१२ २२
काफिया- आर
रदीफ - कर लें क्या

हम भी जीवन में प्यार कर लें क्या ।
जिंदगी  में बहार  कर  लें  क्या ।।।

उसने  देखा  अदा  से  यूं  हमको ।
तीर इस दिल के पार कर लें क्या ।।

दिल  अभी  तक  सकूँ  से  मेरा  है ।
दिल को फिर बेकरार कर लें क्या ।।

उसको दे कर के जीत हम अपनी ।
नाम  सब  अपने  हार कर लें क्या ।।

उसके  जीवन को फूल से भर कर ।
अपने  हिस्से  में  खार  कर लें क्या ।।

माना   है   इश्क   आग   का  दरिया ।
डूब  कर  उसको  पार  कर  लें क्या ।।

मौत  जीवन  पे  है  सदा  भारी ।
मौत  से  ही करार  कर लें क्या ।।

'प्रीत' में दिल तो दे दिया पहले ।
जान  कुर्बान  यार कर लें क्या ।।

सन्तोष कुमार 'प्रीत'

ग़ज़ल  4
वज़्न - 122 122 122 122
काफिया - आ
रदीफ़ - हुआ है

मेरे चाँद का फिर से आना हुआ है ।
दिवाना तो उसका जमाना हुआ है ।।

कि है ईद छत पर सभी आ गए है ।
उन्हें  देखने  का बहाना हुआ है ।।

खिजां से भी गुजरे तो आये बहारें ।
के चर्चा में उसका फ़साना हुआ है ।।

जिसे देख ले एक नज़र होश खो दे ।
निगाहें छलकता पैमाना हुआ है ।।

ग़ज़ल गीत नगमे उसी के लिए है ।
लिए 'प्रीत' दिल में तराना हुआ है ।।

 - सन्तोष कुमार 'प्रीत'

ग़ज़ल 5
वज्न - 1222        1222    122
काफ़िया - आर
रदीफ़ - देखा

कलम देखा कलम की धार देखा ।
बदलते  वक्त  की  रफ्तार  देखा  ।।

इन्हें अब आ गयी मौकापरस्ती ।
इन्हें  बिकते सरे बाजार  देखा ।।

जो सच के साथ है तन्हा खड़ा है ।
कि मिलते झूठ को उपहार देखा ।।

सियासत इस तरह हॉबी हुई है ।
इतर इसके नही अखबार देखा ।।

दिखाता आइना सच को कभी था ।
वहीं   होते   हुए   व्यापार   देखा ।।

कही  लालच  कही मजबूरिया है ।
समय की 'प्रीत' इन पे मार देखा ।।

सन्तोष कुमार 'प्रीत'

ग़ज़ल  6
बह्र - 2122  2122  2122  22
काफ़िया - अर
रदीफ़ - जाता है

वक़्त जैसा भी हो आता है गुजर जाता है ।
बेवजह टूटकर इंसान बिखर जाता है ।।

दर्द और गम ही न आये तो जिंदगी क्या है ।
बाद तपने के ही कुंदन तो निखर जाता है ।।

क्या गुजरती है न पूछो ये किसी के दिल से ।
वादा जब करके कोई अपना मुकर जाता है ।।

हिम्मत हारे नही इंसान तो क्या मुश्किल है ।
अच्छी तदवीर से तकदीर सवर जाता है ।।

एक  न  एक  दिन  बुझनी  ही  है  चरागे हयात ।
'प्रीत' फिर किसलिए कोई मौत से डर जाता है ।।

सन्तोष कुमार 'प्रीत'

ग़ज़ल 7
बह्र- 2122   2122   2122  22
काफ़िया - ई
रदीफ़ - रखना

दर्द   सीने  में न आंखों  में  तू  नमी रखना ।
अच्छे दिन आएंगे इस बात पे यकीं रखना ।।

हो   अगर  दृढता विस्वास  में तो फलती है ।
सोच नकारात्मक अपनी कभी नही रखना।।

वक़्त  जब  साथ  न  दे लोग बदल जाते है ।
फिर भी व्यवहार में अपने नही कमीं रखना।।

एक  न  एक दिन आसान तो हो जाएगी ।
 मुश्किले लाख सही होंठो पर हँसी रखना ।।

हौसला  आसमां  छुए  तो कोई  बात नही ।
'प्रीत' पर पॉव को अपने सदा जमीं रखना।।

सन्तोष कुमार 'प्रीत'

ग़ज़ल 8
बह्र  - 2122   2122   212
काफ़िया - इल
रदीफ़ - नही

कौन  सी  राहें  जहाँ  मुश्किल नही।
हर किसी को तो मिले मंजिल नही।।

मुश्किलें जो  पार  कर  आगे बढे ।
दूर उससे फिर कोई साहिल नही ।।

हम   समझ  पाते  नही  है उम्रभर ।
वरना ऐसा कौन जो काबिल नही ।।

दूसरों    को    दोष    देना   छोड़   दे ।
इससे होगा तुझको कुछ हासिल नही ।।

वेवजह उनसे शिकायत क्यों करे ।
तेरे अरमानों का वो कातिल नही ।।


आदमी    को   आदमी   से    जोड़ता ।
'प्रीत' जिस दिल मे न हो वो दिल नही ।।

सन्तोष कुमार 'प्रीत'

रविवार, 6 मई 2018

3:17 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में पारस गुप्ता की कुछ ग़ज़लें

नाम-   पारस वार्ष्णेय
साहित्यिक नाम- पारस गुप्ता शायर दिल से
पिता का नाम- श्री प्रेमहंस गुप्ता
माता का नाम- स्व0 श्रीमति राधा वार्ष्णेय 
जन्मतिथि - 6 दिसम्बर 1995
निवासी- कैथल गेट चन्दौसी जिला- सम्भल
शिक्षा- बीएससी , एमएससी०(गणित) 
समप्रति - अध्ययनरत् 

ग़ज़ल क्र 1
बहर- १२२२,१२२२,१२२२,१२२२
काफिया- आ
रदीफ- देना

अगर हमसे मुहब्बत हैं सनम हमको बता देना ।
मिटा देना बसी नफरत गिलें शिकवें मिटा देना ।।

अगर तुम कर सको इतना तो करना सिर्फ इतना तुम ।
करो  जो  प्यार  तुम  हमसे  तो हमदम जाँ लुटा देना ।।

भला कैसे कहूं तुमको हैं कितना प्यार अब तुमसे ।
हैं चाहत अब यहीं तुमसे कसम खुद ही बता देना ।।

करें ऐसी मुहब्बत जो कि हम तुम  इस जहां पर ही ।
करेंगी याद जब दुनिया कहानी तुम सुना देना  ।।

न किस्सा ये मुहब्बत का, सुनाना अब किसी से तुम ।
करेंगे लोग जब चर्चे, तो किस्सा तुम सुना देना ।।

अगर हमसे मोहब्बत हैं सनम हमको बता देना ।
मिटा देना बसी नफरत गिलें शिकवें मिटा देना ।।

©  पारस गुप्ता 
        चंदौसी (सम्भल)



ग़ज़ल क्र 2
बहर- १२२२,१२२२,१२२२,१२२२
काफिया- आना
रदीफ- बना डाला

मोहब्बत  के  ख़यालों ने हमें काना बना डाला ।
कभी बिकते कभी मिटते कभी आना बना डाला ।।

करें किससे शिकायत हम ज़माने की बताओ तुम ।
शिकायत को मेरी तुमने कैसे नाना बना डाला ।।

सुनो हम आज भी तुमसे मोहब्बत खूब करते हैं ।
मोहब्बत की बीमारी ने हमें साना बना डाला ।।

गिले शिकवे सभी इतने सुहाने से लगे मुझको ।
कि शिकवों ने तेरे फिर तो हमें ताना बना डाला ।।

नशा दुनिया में हैं इतने लगें मुझको सभी फीकें ।
यूं उसकी एक नज़र नें हमको दीवाना बना डाला ।।

करेंगे हम नशा इतना उन्हीं की आँख में गिरकर ।
उन्हीं की आँख को शायर ने मैखाना बना डाला ।।

1.काना= मोहब्बत में डूबे रहना 
2.आना= पैसा
3.नाना= जिसको कोई सुनने वाला नहीं
4.साना=आशिक

© पारस गुप्ता 
      चंदौसी (सम्भल)



ग़ज़ल क्र 3
बहर-१२२२,१२२२,१२२२,१२२२
काफिया - आनी
रदीफ - हैं

नादाने दिल हमारा हैं तिरी कातिल जवानी हैं ।
हुआ फिर चांद भी बेकल परी तू आसमानी हैं.....

कई शायर चलें आए ग़ज़ल कहने अदाओं पर ।
लचकती जब क़मर तेरी हुई दुनिया दिवानी हैं ।।

खिलें गुलशन बहारों में फिजाओं में नशा छाया ।
हवा चल दी मुहब्बत की हवाओं में रवानी हैं ।।

उठा पर्दा छुपे रुख से हुआ पहरा सितारों पर ।
घटा छाई हैं काली सी कि आई शब सुहानी हैं ।।

नही दिल्ली नही पटना नही रांची नही जम्मू ।
मेरा दिल तो बना डिस्ट्रिक बनी तू राजधानी हैं ।।

जरा इक बार तो कह दो सनम झूठा सही लेकिन ।
नही हमसे मुहब्बत हैं तुम्हें नफरत निभानी हैं ।।

पकड़कर हाथ जब बोले कहाँ जाते हो तुम जानम ।
नही कटते सहर-शामौ बनी हर शब विरानी हैं  ।।

चलें महफ़िल में *पारस* भी लिखें जातें जहाँ किस्सें ।
नहीं किस्सा लिखा हमने लिखी तुमपे कहानी हैं ।।

© पारस गुप्ता
       चंदौसी (सम्भल)


ग़ज़ल क्र  4

बह्र - 2122 2122 2122
काफ़िया - अत 
रदीफ- हो गयी तिरछी नज़र से

इक इनायत हो गयी तिरछी नज़र से ।
दिल में चाहत हो गयी तिरछी नज़र से ।।

गिर के फिर से उठ गयी उनकी नज़र जो ।
दिल में आफ़त हो गयी तिरछी नज़र से ।।

क्या कहें दिल घायल अब हो गया हैं ।
इक शरारत हो गयी तिरछी नज़र से ।।

क्यों रखें दिल अब गिले शिकवों की चाहत ।
हाँ   इज़ाजत  हो  गयी   तिरछी   नज़र  से ।।

आइने की दीद हसरत क्यों करें दिल ।
अब कयामत हो गयी तिरछी नज़र से ।।

© पारस "दिलसे"

ग़ज़ल क्र 5
बह्र - 1222   1222   1222    1222
रदीफ- से
काफिया- आने

मिलें तुझको सितम कितने, बता उनके सुहाने से ।
लगें कितने वो अपने से, सुना सब कुछ ज़माने से  ।।

सुनाऊँ हाल क्या दिल का, किसी से यार अपना मैं ।
नहीं लगता हैं दिल मेरा, किसी का दिल दुखाने से ।।

लिखूं किस्सा मुहब्बत का, मैं दिल के खून से अपने ।
लिखूंगा प्यार के किस्से, हमेशा दिल चुराने से  ।।

ग़ज़ल से गीत से दुनिया, सदा आबाद हैं अपनी ।
सुनें हैं गीत अपने भी, जुबां उनकी भी गाने से ।।

मिला जो आज अबतक हैं, न ग़म उसका भी करना तुम ।
तसल्ली हैं मुझें उसमें, मिला जितना ख़जाने से ।।

मिज़ाजे - दिल रखा अपना, सदा मैंने गरीबों सा ।
कभी हासिल तुम्हें होगा, न कुछ मेरे ठिकाने से ।।

हुई किस्मत मिरी रुकसत कहूं क्या यार मैं उनसे ।
बड़े  मगरूर  से  वो  बेवफा शायर दिवाने से ।।

© पारस गुप्ता 
    चंदौसी (सम्भल)

ग़ज़ल क्र 6
2122  2122  2122  212
काफिया- आर
रदीफ- है

दिल्लगी  का दौर हैं  और प्यार में तकरार है ।
प्यार में तकरार ही अब प्यार का इकरार है ।।

हुस्न उसका लग रहा हैं मानो जैसे चाँद सा ।
चाँद  का  देखो  जमीं पर हो गया दीदार है ।।

जुल्फ़ें हैं उसकी सुनहरी आँखें कातिल भी लगें ।
जब हयाँ करती हैं वो नख़रा बना अगियार है ।।

कशमकश में हैं जो देखें चांदनी का नूर सब  ।
हुस्न उनका लग रहा अब दो-धारी तलवार है ।।

ऐ खुदा कर देना बरकत जाए मिल बाजार में ।
देख कर नज़रें मिली थी फिर हुआ इज़हार है ।।

वो हमें भी देखकर यूं  मुस्कुराकर चल दिये ।
हो गया हो जैसे उसको भी तो मुझसे  प्यार है 

1. अगियार    -  दुश्मन
2. कशमकस -  आन्तरिक संघर्ष

©  पारस गुप्ता 
     चंदौसी (सम्भल)



ग़ज़ल क्र 7
बहर- २१२२,२१२२,२१२२,२१२
रदीफ- के लिये
काफिया- आने

वो मिलें हैं सिर्फ हमको आजमाने के लिये ।
ज़ख्म क्या काफ़ी नहीं थे दिल दुखाने के लिये ।।

जब मिलें तब मुस्कुराने की वजह को पूछते ।
मुस्कुराता हूं मैं अक्सर ग़म छिपाने के लिये ।।

क्या कमी हैं इस जहां में आशिकों की भी कहो ।
सैकड़ों आशिक पड़े हैं,  दिल लगाने के लिये ।।

क्या कहें तुमको बताओ मैखाने का पैमाना ।
जानता हूं, वो मिलें हैं,  दिल जलाने के लिये ।।

नाम क्या आया ग़ज़ल में ऐसा आलम हो गया ।
हो गया, मशहूर मैं भी, अब ज़माने के लिये ।।

आजमाने को पड़ी थी, दुनिया  पूरी क्यों  मगर ।
उनको पारस ही मिला फिर आजमाने के लिये ।।

© पारस गुप्ता 
चंदौसी (सम्भल)



ग़ज़ल क्र० 8
बह्र-  १२२२,१२२२,१२२२,१२२२
काफिया- आज
रदीफ- कहता हूं

कहा तुमने नहीं अब तक चलो मैं आज कहता हूं ।
हमें  तुमसे मोहब्बत है मैं दिल का राज कहता हूं ।।

लिखा  था  ख़त  मैंने  तुमको  पढ़ा  तुमने नहीं दिलवर ।
चलो अब ख़त की छोड़ो तुम दिलों अल्फ़ाज़ कहता हूं ।।

मोहब्बत की कहानी क्या दिवानी क्या जवानी क्या ।
निशानी हो अनूठी तुम तुम्हें मैं ताज कहता हूं ।।

बदल बेशक गये हो तुम मगर खोये नहीं हो तुम ।
तलाशें क्यूं तुम्हें अब हम तुम्हें मैं बाज कहता हूं ।।

ग़ज़ल गाकर सुनाना तुम लिखीं हमने जो तुम पर हैं ।
सुना   देना   सभी  गजलें के सरगम साज कहता हूं ।।

जमाना क्या कहेगा अब न सोचो तुम सनम इतना ।
बनोगी तुम मेरी दुल्हन फक़्त दिल राज कहता हूं ।।

हमें   तुमसे  मोहब्बत  हैं   चलो  मैं आज कहता हूं ।
कहां तुमने नहींं अबतक मैं दिल का राज कहता हूं ।।

© पारस "दिल से"
3:08 am

मुहब्बत ग़ज़ल म़े हिम्मत सिंग त्यागी की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
वज्ऩ -  2122  2122  2122
काफिया - "म"
रदीफ़ - सताये

रात  में  क्यों  आरज़ू  का  गम  सताये  ।
ख्वाब  मे  आ कर  हसीं बालम  सताये ।।
हाल  दिल का  जान  कर  वो खूब रोये ।
बात  कर लो  गर  वफ़ा का गम सताये।
जख्म जब तक इश्क का जाहिर नहीं हैं ।
प्यार  में   इक  दर्द  का  आलम  सताये ।।
इश्क  अफसाना  नहीं  अब  हैं  फसाना ।
इश्क   मे   तेरी  जफ़ा   हम दम  सताये  ।।
राज़  उल्फ़त  का   हमेशा   राज़  'त्यागी' ।
वस्ल  की शब  आज क्यों जानम  सताये।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  2
वज्ऩ - 1222  1222  1222  1222
काफिया - "ई"
रदीफ़ - है

करम  तेरा  रहा साकी  वही नाजुक  मिजाजी है ।
ग़ज़ल का शौक बादाखार को अब ख़ुशगुवारी है ।।
सुराही  को न  खोलो तुम नशा मुझको गिरा देगा ।
यकीं  कर हर  सुहानी  बज्म मे साकी दिवानी है ।।
जवां  होती  गई  रातें रहे  उस  इश्क  की खुश्बू ।
सहारा अब  वही यादें, नशे  की  शब  गुलाबी है ।।
शराबी  मैं  नहीं   तेरी   निगाहों  में  कहां  प्याले ।
मुझे  समझा  नहीं सकतीं  नज़र  ऐसे सवाली है ।।
मिली हैं  इश्क  मे तेरी  वफ़ा क्यूं अब सताती है ।
कहां मांगें वफ़ा  'त्यागी'  यहां तो सब भिखारी है ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  3
वज्ऩ - 1222  1222  122
काफिया - "ना" 
रदीफ़ - चाहता हूं

मुहब्बत  का  फ़साना  चाहता हूं ।
समंदर    में   उतरना चाहता  हूं ।।
  
जुदाई मे  इबादत  कर  खुदा की ।
खुदा से आज मिलना चाहता हूं ।।
गरीबी  आज  अपनी  दूर  होगी ।
वफ़ा  अपनी दिखाना चाहता हूं ।।
अदीबो  सा  तजुर्बा  है मुझे  भी ।
बहर पर रोज लिखना चाहता हूं।।
रखा है राज़ उल्फ़त राज़ 'त्यागी' ।
लगी दिल की छुपाना चाहता हूं ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  4
बह्र - 212/212 /212 /212
काफिया - अर्द
रदीफ - हूं

वक़्त   के   साथ  चलता  हुआ  दर्द  हूं ।
वक़्त   से   सीखने   आज   शागिर्द  हूं ।।
जिस्त ने आज गम की तपिश को सहा ।
वक़्त   है  टूटती     सांस   पर   मर्द  हूं ।।
जिंदगी   का  पता   क्या  बताऊं  तुम्हें ।
सांस   आया   नही   तो   बना  गर्द  हूं ।।
मुफलिसी  तंग  रोटी  से  कर  दे  जहां ।
मेरे  "मुर्शिद" गरीबों  का   हम  दर्द  हूं ।।
इश्क   के   मकबरे    खास   होतें   रहे ,
रात  'त्यागी'   वहां    रोशनी   जर्द   हूं ।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  5
वज्ऩ - 2122 /2122
काफिया - "आ"
रदीफ़ - है

आप   कहतें  हो  हुमा  है ।
वक़्त का हाकिम खुदा है ।।
हम  खता   तो  कर चलें है ।
आप  जानों क्या  हुआ  है ।।
दर्द   अपना  जान   तुम से ।
हाल उलफ़त  का  पुछा है ।।
इश्क  को   तामीर  कर  दे  ।
वो   मुहब्बत   से   जुदा  है ।।
लफ्ज   'त्यागी'   बोलते  है ।
ये ग़ज़ल  रब   की दुआ  है।
हुमा = कल्पित पक्षी जिसकी
छाया मे रंक राजा हो जाता है।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  6
वज्ऩ - 212  212  212
काफिया "ता"
रदीफ़ - रहा
आज को कल बदलता रहा ।
वक़्त  को  मैं समझता रहा ।।
चुप  रहा  तो  सिला  ये मिला ।
दर्द दिल का यूं ही बढ़ता रहा ।।
दर्द  निकला  पुराना  कभी ।
मर्ज  को  याद  करता रहा ।।
बेखुदी  ने  किया  मस्त  तो ।
रोज  मय को  तरसता रहा ।।
राज़ की बात  'त्यागी'  कहूं ।
हुस्न  पे  इश्क  मरता  रहा ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल 7
वज्ऩ - 2122 /2122
काफिया - "ए"
रदीफ़ - है
दर्द    जख्मों     का  बढ़े  है ।
अश्क   आंखों    से   बहे  है ।।
ना   छुपाओ   राज़    हमसे  ।
राज़   आंखें   सब   कहे  है  ।।
तुम  यकीनन   इश्क  मे  हो ।
रुख की  रंगत  जो  उड़े  है  ।।
इश्क    की    बातें   दबा  दी ।
राज़    उल्फ़त   का  रखे  है ।।
जख्म 'त्यागी' देख दिल का ।
आज     दोबारा     बहे   है ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी

ग़ज़ल  8
वज्ऩ - 1212/1122/1212/22
काफिया - "आर"
रदीफ़ - हो जाये
नज़र कभी न मिले और प्यार  हो जाये ।
पुनर्मिलन की जगी आस यार हो जाये ।

निबाह तो  न  किया  जिंदगी रही तन्हा ।
न बागबां तो चमन  सूख खार हो जाये ।।
फरेब  तुम न  करो  जिंदगी  बिगड़ती है ।
फरेब का  हैं  जहां  तार  तार  हो जाये ।।
नसीब था न हुआ इश्क अंत तक तुम से ।
निक़ाब रूख न हो दिल निसार हो जाये ।।
यकीन आज हुआ आंख मारती 'त्यागी' ।
जरा नज़र  तू  उठा  तीर पार  हो जाये ।।
© हिम्मत सिंग त्यागी
3:00 am

मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में रवि रश्मि ' अनुभूति ' की कुछ ग़ज़लें

ग़ज़ल  1
बह्र- 2122    1212    22
क़ाफ़िये -   ई  ( स्वर )
रदीफ -   नहीं आयी

ठोकरों  में  कमी नहीं आयी ।
यूँ खुशी की घड़ी नहीं आयी ।।

दूर तक फैला दर्द का सागर ।
मस्तियों की नदी नहीं आयी ।।

सोचते हैं झुकें सदा हम ही ।
पर  हमें  बंदगी नहीं आयी ।।

ऊबकर   बारहा   पुकारा   है ।
मौत लेकिन कभी नहीं आयी ।।

लोग  यूँ  तो बहुत मिले हमको ।
जिसको चाहा वही नहीं आयी ।।

दें  सहारा  हमीं   गरीबों  को ।
मन - उमंगें तभी नहीं आयीं ।।

दर्द   के   माहो - साल  आते  हैं ।
बस खुशी की सदी नहीं आयी ।।

उनसे मिलते हैं इसलिए अब तक ।
बदमिज़ाज़ी  अभी  नहीं  आयी ।।

जिसको चाहा था दिल ही दिल हमने ।
' रश्मि ' सुन  वो  खुशी  नहीं आयी ।।

© रवि रश्मि ' अनुभूति '

ग़़जल   2
बह्र - 1222    1222    1222    1222
काफिया -  आ
रदीफ -  होगा

उसी माँ की दुआओं से हमारा हर भला  होगा ।
कि जिस आँचल में हर औलाद का सपना  पला  होगा ।।

सुकूं मिलता नहीं है दीन दुनिया में कभी उसको ।
कि जिस औलाद की हरक़त से माँ का  दिल दुखा होगा ।।

बहुत ही खूबसूरत जीवन मैंने माँ संग गुज़रा है ।
जिगर का ख़ून का रिश्ता , कभी कैसे जुदा होगा ।।

कभी वो बद्दुआ करती नहीं , औलाद को अपनी ।
हमेशा माँ के होंठों पर सदा बच्चों दुआ होगा ।।

सुनो माँ की खुशी में है , खुदा की हर खुशी शामिल ।
कि जब नाराज़ होगी माँ , खुदा फिर तब ख़फ़ा होगा ।।

खुशी अपनी हरेक क़ुर्बान कर दी , माँ की खुशियों पर ।
यही कुछ सोच कर ' रश्मि ' , कि हक़ माँ का अदा  होगा ।।

© रवि रश्मि ' अनुभूति '
       मुंबई

ग़ज़ल  3
बह्र - 2122    1212   22
काफिया - आला
रदीफ - हैं

काम उनका , बहुत निराला है ।
पुलिस का , दे दिया हवाला है ।।

जान - पहचान , जो कभी होती ।
तो  नहीं निकलता , दिवाला है ।।

रख लिया था , सभी छुपाकर तो ।
क्यों ख़बर  का  बना मसाला है ।।

कब ख़बर हो गयी अच्छी बोलो ।
फक़्त   बेकार   सा  रसाला  है ।।

अब जाने हम, मदद वही करता ।
वो भी निकला पुलिस का साला है ।।

मुश्किलों  से , नहीं  हटेगें  हम ।
माँ  ने  ऐसा  हमें  यूं  ढाला है ।।

डर हमें  तो नही  सुनो  दोस्तों ।
आँधियों में , दीपक ही बाला है ।।
         
© रवि रश्मि 'अनुभूति'

ग़ज़ल  4
वज़्न     -  1222     1222    1221
अरकान - मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईल
क़ाफ़िया  -  आरे
रदीफ़    -  देख हर रोज़

बहकते हैं सहारे , देख हर रोज़ ।
दहकते हैं अँगारे , देख हर रोज़ ।।

विभागों में करे कोई, न अफ़सोस ।
दलाली के पहाड़े, देख हर रोज़ ।।

किसी के भी ज़माना , अब न हो साथ ।
कटी - सी  हैं  बहारें ,   देख हर रोज़ ।।

किसी पर क्यूं हमीं , बोझा बनें आज ।
सभी बोझे उतारे, देख हर रोज़ ।।

किनारे कर तू अपने , ग़म सभी दिल से ।
क्यों दुख में भी दहाड़ें , देख हर रोज़ ।।

दिखी हैं दिलक़शी अब तो खुदा खोज ।
निहारें रहमतें हम, देख हर रोज़ ।।

सुहानी चांदनी हैं रश्मि, अब रात ।
चमकते हैं सितारे , देख हर रोज़ ।।
                
© रवि रश्मि ' अनुभूति '

ग़ज़ल 5
वज़्न-  1212   1122   1212   22
अरकान - मुफ़ाइलुन  फ़इलातुन  मुफ़ाइलुन  फ़ैलुन
क़ाफ़िये -  आन
रदीफ़   -   जैसा है

हरेक पल क्यों मेरा इम्तिहान जैसा है ।
जहां नसीब खुले तो आसमान जैसा है  ।।

फ़कीर है मेरा दिल तो , कहाँ नसीबा  है ।
सुनों ये दिल  मेरा प्राणी , महान जैसा है ।।

लिखा नहीं सितारे बाम पर आये होंगे ।
ख़याल मेरा बोला ये ग़ुमान जैसा है ।।

फाके पड़े तो जाना भूख होती हैं क्या अब ।
भरता  हुआ  पेट ,  सायबान  जैसा  है ।।

न छोड़ता आस पर मैं , ज़िंदा रहना है ।
ये मुद्दा इश्क़ चढ़ा  आशियान जैसा है ।।

कि प्यार की तो अभी आज़माइशें छोड़ो ।
ये इश्क़ मेरा सनम अब मकान जैसा है ।।

ये इश्क़ तो रश्मि अब तो दीवानी करता है ।   
लगे यही अभी तक सब अंजान जैसा है ।।
         
© रवि रश्मि ' अनुभूति '

ग़ज़ल  6
वज़्न      -  212    1212    12
अरकान  -  फ़ाइलुन  मफ़ाइलुन  फ़अल
क़ाफ़िया   - आल
रदीफ़     -  मत करो

गुज़रे हो तो ख़्याल मत करो ।
इस  तरह  सवाल  मत करो ।।

जात  -  पात   देखना   नहीं ।
चैन  अब  हलाल  मत  करो ।।

रात  भर  कही  गयी ,  तभी ।
छोड़  दो,  बवाल  मत  करो ।।

मैं  तुम्हीं  से  प्यार  कर  रही ।
बातों  से   धमाल  मत  करो ।।

कह  लिया  कहन  जभी- तभी ।
बाद   में   ज़वाल   मत   करो ।।

ज़हमतें   बहुत    उठा   चुके ।
नष्ट  अब  ज़लाल  मत  करो ।।

लड़ चुके कभी तो ' रश्मि ' अब ।
इस   तरह  मलाल   मत   करो ।।
           
© रवि रश्मि ' अनुभूति '

ग़ज़ल 7
वज़्न -  1222  1222  1222  122
अरकान -  मफ़ाईलुन   ×  4
क़ाफ़िये  -   अत
रदीफ़    -   की कसम खाओ

बचाया हैं तुम्हें तो उस अमानत की कसम खाओ ।
न भूलेंगें शहीदों की शहादत की कसम खाओ ।।

हमारे जन्म की ही भूमि है ये जान से प्यारी ।
करें कुछ भी बचाना है मुहब्बत की कसम खाओ ।।

हमारा देश है आज़ाद हम भूलें नहीं बातें ।
चलो अब हम करें इसकी हिफ़ाज़त की कसम खाओ ।।

लुटाते जान सरहद पर उन्हें हम सब नमन कर लें ।
बदल दें हम भ्रष्ट होती सियासत को कसम खाओ ।।

रंगीं मौसम हमें मदहोश हैं करता  हुआ भाता ।
रहें यूँ ही बहारें अब सलामत को कसम खाओ ।।

क़दम जो भी रखे दुश्मन , यहाँ की सरज़मीं पर तो ।
भरो सब जोश बाँहों में बगावत को कसम खाओ  ।।

शहर में ' रश्मि ' होते मज़हबी दंगे   कैसे अब तो ।
समझ लो तुम मिटाने की अदावत को कसम खाओ ।।
                  
© रवि रश्मि ' अनुभूति '

ग़़जल 8
वज़्न- 2122    2122    212 
काफिया - ऊ
रदीफ -  है आज फिर

चल माँ घूमें चार सू है आज फिर ।
दृश्य मोहक चार सू है आज फिर ।।

मेरे दिल के हो गये अरमां दफन ।
होती दिल भर गुफ़्तगू है आज फिर ।।

तुझसे मिलकर दिल मेरा भरता नहीं ।
मुझको दिखता तू ही तू है आज फिर ।।

गोद में तेरी रखूं सर अपना फिर ।
के आँचल की छाँव तू है आज फिर ।।

आज  मौसम  की  बहारों  में  जादू ।
हर दिली तमन्ना पूर्ण  है आज फिर ।।

तेरे हाथों की रोटीयां मिल जाये ।
पेट भरना, आरज़ू है आज फिर ।।

तब की अब तू न कोई बात कर ।
के उजाला चार सू है आज फिर ।।

आज जीवन में छा जाये खुशियाँ फिर ।
ज़िंदगी की जुस्तजू है आज फिर ।।

दिल कभी कोई न ज़ख़्मी 'रश्मि' हो ।
ख़ून मेरा उबला सा है आज फिर ।।

©  रवि रश्मि  'अनुभूति'

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