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बुधवार, 8 जुलाई 2020

हसीब सोज़ बदायूँनी की अवामी शायरी - सराफत समीर


           बदायूँ हमेशा से इल्म,अदब और मार्फ़त की पुरनूर वादी बना रहा है..हज़रत अमीर खुसरो ने इसकी खाक को सुरमा करने की ख्वाहिश जताई तो मसहफी अमरोहवी ने अपने महबूब की गली को बदायूँ से तस्बीह दी,
   जानां तेरी गली भी बदायूँ से कम नही,
   जिस में कदम कदम पे मज़ारे शहीद है
      मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में शामिल मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूँनी ने मुग़ल सल्तनत की तारीख और महाभारत का फारसी में 'रिज़्मनामा ' नाम से तर्जुमा कर हिंदुस्तानी अदब में अपना मकाम बनाया जिसकी पैरवी करते हुए फानी बदायूँनी,दिलावर फ़िगार,महशर बदायूँनी,अदा जाफरी बदायूँनी,शकील बदायूँनी,जीलानी बानो,असद बदायूँनी,इरफान सिद्दीकी, ने उर्दू अदब में अपना बेहद मोहतरम मक़ाम बनाया तो डॉ बृजेन्द्र अवस्थी और डॉ उर्मिलेश शंखधार ने अपनी रोशनी से हिंदी कविता को जगमगाया।
    मौजूदा वक़्त में भी तमाम कवि और शायर अपनी अपनी कोशिशों और काविशों से हिंदी और उर्दू के दामन को अदब और शायरी के जेवरात से सजाने में लगे हैं।मौजूदा दौर के इन तमाम शायरों में एक नाम जो इस वक़्त के तमाम शायरों के लिए लायक ए एहतराम है और शायरी में अपने मख़सूस अंदाज़ की बिना पर हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया के मुख्तलिफ ममालिक में बदायूँ का परचम शान से लहराता है..वो नाम है-जनाब Haseeb Soz साहब का।
    हसीब सोज़ साहब बदायूँ के करीब क़स्बा अलापुर में पैदा हुए और यहीं मुकीम हैं। अपने मख़सूस शेरी लहजे की बिना पर हसीब सोज़ के अशआर भीड़ में अपनी हाज़िरी दर्ज कराते हैं और साफ पहचाने जा सकते हैं।आम इंसान की आम ज़िंदगी से जुड़े पहलू उनकी शायरी को खास बनाते हैं।उनके कुछ अशआर तो इतने मशहूर हैं कि जर्बुल मिस्ल (कहावत) की हैसियत रखते हैं-

हमारे दोस्तों में कोई दुश्मन हो भी   सकता है
ये अंग्रेज़ी दवाएं हैं, रिएक्शन हो भी सकता है

यहां मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे  इकट्ठे  हों  तो सच्चा टूट जाता है

    हसीब सोज़ साहब की शायरी में इश्क़ और मुआश्के की बातें काम ही नज़र आती हैं..इंसानी इक़दार और इंसानियत,रिश्तों की पासदारी,समाज और मुआशरे के बदलते रूप इनकी शायरी के अहम मौजूआत हैं ।

मैं बेवक़ूफ़  कि  मारा  गया  भरोसे  में
कहीं मकान भी बनता है एक हफ्ते  में

मैं अपनी नज़रों में हर दिन ज़लील होता हूँ
अमीरे   शहर  तेरा   एहतराम   करते   हुए

यही तो होता कि अपनी नज़र में गिर जाते
'हसीब सोज़'   मगर   नौकरी   नहीं   जाती

   हसीब सोज़ साहब की ज़बान सहल और आम फ़हम है उनके कारी को उनके अशआर समझने में मशक्कत नही करनी पड़ती, वे हिंदी और अंग्रेज़ी के अल्फ़ाज़ का इस खूबी से शायरी में इस्तेमाल करते हैं कि पढ़ने और सुनने वाला मसर्रत से झूम उठता है।आइए अब मज़मून को ज़्यादा लंबा न खींचकर हसीब सोज़ साहब की शायरी का लुत्फ लिया जाए। पेश हैं उनके ताज़ा मजमूए ' चाँद गूंगा हो गया ' से उनके कुछ खूबसूरत अशआर-

पक्की कोई तो चीज़ हो कच्चे मकान में
मारा   गया   ग़रीब   इसी  खींचतान   में

हम गुनाहगारों का झगड़ा था निबट जाता कभी
लेकिन अब तो बीच मे अल्लाह  वाला पड़ गया

राम तो मैं भी हूँ लेकिन ये मुक़द्दर है मेरा
मेरे वनवास में शामिल कोई सीता न हुई

मेरी हयात है नाटक का आखिरी मंज़र
अब इसके बाद कोई खेल  दूसरा होगा

बावजूद इसके तेरा साथ निभाया मैंने
तू  फटा  नोट था  पूरे  में  चलाया मैंने

ये  इन्तेक़ाम  लिया  अपनी  बदनसीबी  से
हम अपने नाम से पहले नवाब लिखने लगे

करीब  रहने  की  तरकीब  ये निकाली है
कि अपने साथ तेरी सीट बुक करा ली है

मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है,
मैं  बादशाह  था सबको बताता रहता हूँ

                                    -----
                          -शराफत समीर
                          दातागंज -बदायूँ
                         9058033485

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