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शनिवार, 21 मार्च 2020

6:17 am

डॉ_वशीर_बद्र - पूरा इंटरव्यू यहाँ पढ़े - डा_निशान्त_असीम

#ग़ज़ल_की_भाषा_हिंदुस्तानी_है
#डॉ_वशीर_बद्र
( पूरा इंटरव्यू यहाँ पढ़े ) पद्मश्री बशीर साहब की शायरी अदब और आम-जनमानस में ख़ास मक़ाम रखती है। हिंदुस्तानी-भाषा के इस हरदिल-अजीज शायर को उर्दू वाले उर्दू का और हिन्दी वाले हिन्दी का समझते हैं, इतनी मुहब्बत शायद ही किसी शायर को मिली हो। वर्ष 2005 में वे बदायूँ-महोत्सव में मुशायरा पढ़ने आये थे, उस अवसर पर उन्हें फ़ानी-शकील अवार्ड से नवाजा गया था। उसी समय उनका यह इंटरव्यू मुझ नाचीज़ ने लिया था, जो संजय शर्मा जी के सम्पादन में लखनऊ से प्रकाशित  #वीक_एंड_टाइम्स  में 05 मार्च 2005 को प्रकाशित हुआ था।
तो चलिये मेरे साथ उन ऐतिहासिक लम्हों में ...


असीम : शायरी के गढ़ और शकील-फ़ानी की सरज़मीं पर, उन्हीं के नाम का अवार्ड पा कर कैसा लग रहा है ?

बद्र साहब : ... मैं इसे अल्फ़ाज़ों में बयां नहीं कर सकता। मुझे फ़क्र है कि बदायूँ-शरीफ़ के लोगों ने मुझे इस अवार्ड के क़ाबिल समझा। जिसके लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ। यह इस ज़मी की कशिश ही है कि मैं यहाँ खिंचा चला आता हूँ।

असीम : शायरी के इस मक़ाम पर पहुँच कर कैसा महसूस करते हैं ?

बद्र साहब : ठीक वैसा ही जैसा एक आम आदमी महसूस करता है। ख़ुशी होती है कि मेरे चाहने वाले मुझसे इतनी मुहब्बत करते हैं।...मग़र अब ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गयीं हैं।

असीम : किस तरह की ज़िम्मेदारियाँ ?

बद्र साहब : यही कि जो भी लिखूँ उसके ज़रिये लोगों को कुछ न कुछ नसीहत या पैग़ाम मिले, उन्हें  ऐसा लगे जैसे कि मैंने उनकी बात कह दी।

असीम : ' उनकी बात ' से क्या मतलब है ?

बद्र साहब : ..... ( गम्भीरता से ) आज ज़िन्दगी की रफ़्तार बहुत तेज़ है। कल्चर, एटमॉस्फियर सब कुछ बदला है, जिसकी वजह से आदमी के न सिर्फ़ दुःख-दर्द बढ़े हैं बल्कि वो जज़्बाती भी हुआ है। ऐसे में उसे अगर एक शेर ऐसा मिल जाये जो उसे हार्डली टच करता हो तो यक़ीनन उसे सुकून मिलेगा और उसे वो याद रखेगा। फिर वो शेर मेरा हो, आपका हो या किसी और का हो।

असीम : एक्चुअल में आप शायरी किसे मानते हैं ?

बद्र साहब : एक शायर के नज़रिए से, जो हर तरह से ग्रामर का एहतराम करती हो और एक आम आदमी की नज़र से, वो बिना परेशानी या डिक्शनरी के सबकी समझ में आये और जो मैंने अभी कहा कि हार्डली टच करे।

असीम : मीर, दाग़, ग़ालिब, फ़ानी , जिगर में आप किसे पसन्द करते हैं ?

बद्र साहब : ये तो ऐसे ही हुआ जैसे कि आप कहें कि आसमान का कौन सा तारा आपको पसन्द है। ...सभी की शायरी का अपना मिजाज है, अपना मुकाम है। लेकिन लिट्रेचर की नज़र से ग़ालिब और मीर पर भारत और पाकिस्तान की यूनिवर्सिटीज में काफ़ी काम हुआ है।

असीम : पाकिस्तान का ज़िक्र हुआ तो, आप एक शायर के नाते भारत और पाकिस्तान के सम्बंधो को किस नज़र से देखते हैं ?

बद्र साहब : बिल्कुल एक आम हिंदुस्तानी की नज़र से, अभी तो उस दिन की शाम भी नहीं हुई है, जिसकी सुबह में हम साथ-साथ रहते थे। दोनों की अवाम चाहती है कि आपस में प्यार हो, अम्न हो, मैंने तो बहुत पहले ये शेर कहा था -
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिंदा न हों।

असीम : आज हिन्दी में भी ग़ज़ल कही जा रही है, हिन्दी वाले इसे दुष्यन्त कुमार की परम्परा मानते हैं। क्या ग़ज़ल को हिन्दी-उर्दू में बांटा जा सकता है ?

बद्र साहब : शायरी को जाति या भाषा के नाम पर नहीं बाँटा जा सकता है। ...सच तो ये है कि हिन्दी-उर्दू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, यह तो दुष्यन्त साहब ने भी कहा था। ग़ज़ल की अपनी एक तहज़ीब है उसे भाषाओं के नज़रिये से नहीं बांट सकते। वास्तव में आज की, ग़ज़ल की भाषा हिंदुस्तानी है। भाषा की हिस्ट्री में पढ़े तो हमें पता चलेगा कि उर्दू-हिन्दी अलग नहीं हैं, बस लिखबट का फ़र्क है। यह दोनों संस्कृत भाषा की मुश्किल से नवीं-दसवीं पीढ़ी हैं। ...अब इसे थोड़ा माडर्न टच दे दिया गया है। यह हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी मिक्स हिंदुस्तानी ज़बान पूरे हिंदुस्तान में बोली और समझी जाती है। शायरी और कविता की भी यही भाषा है, मेरा यह शेर देखिये -
ये साहिल है यहाँ तो,
मछलियाँ कपड़े बदलती हैं।
बताइये इसे आप क्या कहेंगे, हिन्दी या उर्दू ?

असीम : आपके कुछ दीवान देवनागरी-लिपि में भी प्रकाशित हुये हैं, इसके पीछे कोई ख़ास वजह ?

बद्र साहब : वो इसलिए कि उसे हिन्दी-भाषी.....( रुकने के बाद कुछ देर सोच कर ) .... बल्कि हिन्दुस्तानी कहूँ तो अच्छा रहेगा... जानने वाले और देवनागरी-लिपि में लिखने-पढ़ने वाले भी उसे पढ़ सकें। क्योंकि देश में ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

असीम : आपने फ़िल्मों में गीत लिखने के प्रति दिलचस्पी क्यों नहीं दिखायी ?

बद्र साहब : क्योंकि वहाँ आज की तारीख़ में शायरी को शायरी रख पाना बहुत मुश्किल काम है। इसलिए मैंने ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई, ऑफ़र तो बहुत आये, आज भी आते हैं।

असीम : आज देश अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है, शायरी के जरिये आपने उन्हें उठाने या उनका हल देने की कोशिश की ?

बद्र साहब : सवाल अच्छा किया आपने... बिल्कुल कोशिश की। वैसे भी शायरी या लिट्रेचर को समाज और देश का आइना कहा जाता है। मैंने उसी आईने को दिखाने की लगातार कोशिश की है और कर रहा हूँ। चन्द अशआर देखिये-
जब भी बादलों में घिरता है,
चाँद लगता है आदमी की तरह।
रात का इंतज़ार कौन करे,
आजकल दिन में क्या नहीं होता।

असीम : आज आपको देश की सबसे बड़ी प्रॉब्लम कौन सी लगती है ?

बद्र साहब : मेरे ख़्याल से ग़रीबी और भ्रष्टाचार ही देश की मेन प्रॉब्लम हैं। यह खत्म हो जायें तो यक़ीनन हर तरफ़ अम्न होगा।

असीम : पद्मश्री पाने के बाद कुछ और पाने की तम्मना है ?

बद्र साहब : ... बस अपने सामईन से यूँ ही प्यार और इज्ज़त मिलती रहे, जिससे ज़िन्दगी का बाक़ी सफ़र मुहब्बत से कट जाये।

असीम : आमीन ! आखिर में कोई पैग़ाम देशवासियों के लिये ....

बद्र साहब : सभी देशवासी मिल-जुल कर अमन और प्रेम के दीपक जलाते रहें, जिससे न केवल हिंदुस्तान बल्कि सारी दुनियाँ मुहब्बत से जगमगा उठे।

साक्षात्कार
#डा_निशान्त_असीम
संस्थापक/अध्यक्ष : हिन्दुस्तानी ग़ज़ल अकादमी ( रजि.)

गुरुवार, 19 मार्च 2020

10:10 pm

हिन्दुस्तानी ग़ज़ल क्या है आइये समझते है -डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
हिंदुस्तानी-ग़ज़ल अलग से साहित्य की कोई बिधा नहीं है बल्कि उसमें हिन्दी-ऊर्दू की वे सभी ग़ज़लें शामिल हैं, जो आम बोलचाल की आसान हिंदुस्तानी ज़बान में कहीं गयीं हैं और उन ग़ज़लों की तहज़ीब हिन्दुस्तानी है।

आज जहाँ लोग भाषा और सम्प्रदाय में ख़ुद को बाँटे हुये बैठे हैं, वहाँ  ये " ग़ज़ल " ही है जो सदियों से समाज को जोड़ने का काम कर रही है।
ग़ज़ल लोगों की ज़बाँ पर रहते-रहते, कब सद्भावना की मिसाल बन गयी किसी को पता ही नहीं चला। वक़्त ने चलते-चलते जब अपने अतीत को अदब के आइने में देखा तो उसे अहसास हुआ है कि ग़ज़ल सिर्फ़ साहित्य की विधा ही नहीं है, बल्कि समाज के हर वर्ग और हर उम्र के, लोगों के दिलों की धड़कन भी है।
दो समकालीन उर्दू और हिन्दी ग़ज़लकारों के शे'र देखिये-

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये,
और मैं था कि सच बोलता रह गया।
-प्रो. वसीम बरेलवी

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए,
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिये।
- डॉ. कुँअर बैचैन

अब अगर ये दोनों शे'र देवनागरी लिपि की जगह फ़ारसी लिपि में लिख दिए जायें, तो भी किसी शे'र  में कुछ भी नहीं बदलेगा। क्योंकि लिपि सदैव ही किसी भाषा की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं करती। जैसे कि जब हम सैलफोन पर  हिन्दी का कोई मैसेज रोमन लिपि में टाइप करते हैं तो वह मैसेज रोमन लिपि में टाइप होने के बाबजूद भी अंग्रेजी भाषा का नहीं कहलाता, वह हिन्दी-भाषा का ही कहलाएगा। अतः ये शे'र ज़बान के लिहाज से उर्दू-अदब के भी हैं और हिन्दी-साहित्य के भी हैं।
 ... अब चलो क्रिया-शब्दों (Verbs) से देखते हैं, क्योंकि किसी भाषा के क्रियापद उसके अपने होते हैं और वे भाषा को भी प्रमाणित करते हैं। जबकि संज्ञापदों (Noun) की स्थिति लिपि वाली ही होती है, इसलिए यहाँ उसकी चर्चा करने का कोई फ़ायदा नहीं है। अब ग़ौर करने वाली बात यह है कि हिन्दी और उर्दू के क्रियापद एक जैसे ही होते हैं। इसलिये इन शेरों में क्रियापद भी एक जैसे ही हैं। अर्थात यह अशआर हिन्दी-उर्दू दोनों के ही क़रीब हैं।
चलिए अब भाषा के लिहाज से देख लेते हैं, तो दोनों शेरों में न तो मुश्किल उर्दू/फ़ारसी के अल्फाज़ हैं और न क्लिष्ट हिन्दी/संस्कृतनिष्ठ शब्द हैं। अतः यह दोनों शे'र मिश्रित हिन्दी-उर्दू वाली आसान ज़बान में हैं। जो हम लोग सुबह से लेकर शाम तक बोलते हैं । ....जो सही मायने में हिंदुस्तानी ज़बान है। हिंदुस्तानी ज़बान में हिन्दी-उर्दू के अलावा भारत में बोली जाने वाली उन सभी भाषाओं और बोलियों के शब्द शामिल हैं, जो चलन में आ गये हैं और लोग बिना किसी भाषाई झमेले के बोलते हैं।
भाषाई कट्टरता किसी भी भाषा को संकीर्ण कर देती है जबकि  उदारता और सहिष्णुता भाषा को समृद्ध बनाती है। किसी भाषा या विधा को किसी जाति, क्षेत्र या धर्म की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। लेकिन इस स्थिति में एक चीज़ समझने की है, वो है संस्कृति। जिसकी विशेष भूमिका होती है,क्योंकि जब कोई विधा या शब्द दूसरी संस्कृति से आते है, तो हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि उस विधा या शब्द को  उसके मूल रूप में ही सम्मान दें, फिर चाहे अरूज़ (व्याकरण) का मामला जो या तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) का।
शुक्र है कि हिन्दी और उर्दू भाषाओं के बीच कोई भाषाई कट्टरता या भेदभाव नहीं है। दोनों सदियों से एक दूसरे के साथ हैं और यक़ीनन हर दिन और क़रीब आ रहीं हैं।
यूँ तो ग़ज़ल को ग़ज़ल कहना ही पर्याप्त है। ग़ज़ल के साथ कुछ भी जोड़ने की ज़रूरत नहीं है लेकिन क्या करें ग़ज़ल के साथ पहले से ही उर्दू और हिन्दी विशेषण जुड़े हुये हैं। इसलिये हम ज़बान के नजरिये से हिंदुस्तानी ग़ज़ल कह कर, हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल के बीच की खाई पाट कर न केवल भाषाई सदभावना क़ायम करना चाहते हैं वल्कि ग़ज़ल को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बनाना चाहते हैं। क्योंकि शायरी सुख-दुःख, आशा-निराशा हर हाल में सुकून देती है।
अब कुछ और बिंदुओं पर प्रकाश डालने से पहले भारत में ग़ज़ल के विकास पर मुख़्तसर सी चर्चा करते हैं-

【 1.】  ग़ज़ल

ग़ज़ल की शुरुआत अरब में हुई थी। ग़ज़ल का मतलब होता था- महबूब से बातचीत करना। यही कारण है कि आज भी ग़ज़ल लिखी नहीं बल्कि कही जाती है। 10 वीं शताब्दी में, विशेष रूप से ईरान और उसके आसपास फ़ारसी भाषा में खूब ग़ज़लें कहीं गयीं, वास्तव में ग़ज़ल को यहीं से पहचान मिली।
ग़ज़ल का अपना एक अरूज़ (व्याकरण) होता था, जिसके अंतर्गत निर्धारित बहरों (छन्दों) में एक ही वज़्न में सभी शे'र कहे जाते थे। साथ ही ग़ज़ल की अपनी एक तहज़ीब (संस्कृति) भी होती थी। ग़ज़ल का वो अरूज़ आज भी जस का तस प्रयोग होता है, चाहे ग़ज़ल किसी भी भाषा में क्यों न कही जाये। ऐसा न करना ग़ज़ल की सदियों पुरानी भव्य परम्परा की तौहीन मानी जाती है।

【 2. 】 ऊर्दू ग़ज़ल

भारत में 12 वीं शताब्दी में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के बाद, साहित्यिक और सांस्कृतिक सौहार्द के रूप में ग़ज़ल भारत में आई और फिर वो हमेशा के लिए यहीं की होकर रह गयी। दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में ग़ज़ल को ज़्यादा लोकप्रियता मिली। दिल्ली और लखनऊ के रूप में उसे दो ऐसे शायरी के गढ़ मिले जिन्होंने ऊर्दू अदब को तमाम महान शायर दिये। भारत में ग़ज़ल फ़ारसी से उर्दू में आयी इसीलिए फ़ारसी का प्रभाव उस पर हमेशा बना रहा। उर्दू ग़ज़ल नें फ़ारसी के परम्परागत अरूज़ को न केवल ज्यों का त्यों स्वीकार किया बल्कि उसे ख़ासा सम्मान भी दिया। लेकिन बाद में ग़ज़ल की मूल बहरों से बनीं, कुछ नई बहरें भी उर्दू ग़ज़ल में प्रचलित हो गयीं। आज उर्दू-ग़ज़ल के दीवान  देवनागरी लिपि में भी प्रकाशित हो रहे हैं, जो भविष्य के लिये सुखद संकेत है।

【 3.】 हिन्दी ग़ज़ल

भारत में इमरजेंसी के दौरान 1975 में दुष्यन्त कुमार के ग़ज़ल-संग्रह ' साये में धूप ' के प्रकाशन के बाद हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा पड़ी। यहाँ हम अमीर ख़ुसरो, कबीर, निराला आदि का ज़िक्र हिंदी ग़ज़ल के जनक के रूप में नहीं कर रहे हैं। वास्तव में हिंदी-ग़ज़ल को धरातल पर आकार देने का क्रेडिट दुष्यंत कुमार को ही जाता है।
उर्दू से जब ग़ज़ल हिन्दी में आयी तो उसकी भाषा मिली-जुली उर्दू-हिन्दी थी जबकि लिपि देवनागरी थी, साथ ही उसमें नुक़्ते का चलन भी था। हिंदी ग़ज़ल ने भी फ़ारसी-उर्दू का ही शिल्प अपनाया। निःसन्देह हिन्दी-ग़ज़ल ने नये प्रतीक, बिम्ब और समसामायिक विषयों को छूकर उसे ऊँचाई प्रदान की और बहुत ही कम समय में उम्मीद से ज़्यादा ख्याति अर्जित की। इस बीच जब हिन्दी में ग़ज़ल कहने वालों की तादाद बढ़ी तो " ग़-ज़-ल " को " ग-ज-ल " बोलने वाले भी ग़ज़ल कहने लगे। कुछ लोगों ने शिल्प का कोई ध्यान नहीं रखा, तो कुछ ने हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया, जो ग़ज़ल में सहज नहीं थे और फ़ारसी-उर्दू की बहरों में भी आसानी से फिट नहीं होते थे। अतः ग़ज़लें बहर से ख़ारिज़ होने लगीं। ऐसे में जिस हिन्दी ग़ज़ल को लोग गंभीरता से लेने लगे थे, वहाँ हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गयी। अतः हिन्दी ग़ज़ल वालों को व्याकरण और भाषा के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है।

【 4.】 हिन्दुस्तानी ग़ज़ल

हिन्दी/उर्दू मिश्रित आसान ज़बान में, परम्परागत शिल्प की कसौटी पर, हिन्दुस्तानी परिवेश में कही गयी ग़ज़ल को हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहते हैं। 
इन हिन्दुस्तानी ग़ज़लों को समझने के लिये किसी डिक्शनरी या अन्य किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं होती है। ये सीधे दिल में उतरतीं हैं और ज़ुबान पर चढ़ जातीं हैं।
हिंदी और उर्दू  सहित तमाम भाषाओं का साहित्य इस बात का गवाह है, कि उस भाषा की वही रचनाएँ कालजयी बनीं जो उस काल में आसान ज़बान में कहीं गयीं।
...तो आइये ! अब हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के सफ़र में हसरत जयपुरी साहब के इस प्यारे से सन्देश के साथ आगे बढ़ते हैं ...
मुसाफिर हैं हम तो चले जा रहे हैं
बड़ा ही सुहाना ग़ज़ल का सफ़र है

आलेख
#डॉ_निशान्त_असीम

मंगलवार, 10 मार्च 2020

5:29 pm

हिंदुस्तानी-ग़ज़ल अलग से साहित्य की कोई विधा नहीं है

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल
हिंदुस्तानी-ग़ज़ल अलग से साहित्य की कोई विधा नहीं है बल्कि उसमें हिन्दी-ऊर्दू की वे सभी ग़ज़लें शामिल हैं, जो आम बोलचाल की आसान हिंदुस्तानी ज़बान में कहीं गयीं हों और उन ग़ज़लों की तहज़ीब हिन्दुस्तानी हो।

आज जहाँ लोग भाषा और सम्प्रदाय में ख़ुद को बाँटे हुये बैठे हैं, वहाँ  ये " ग़ज़ल " ही है जो सदियों से समाज को जोड़ने का काम कर रही है।
ग़ज़ल लोगों की ज़बाँ पर रहते-रहते, कब सदभावना की मिसाल बन गयी किसी को पता ही नहीं चला। वक़्त ने चलते-चलते जब अपने अतीत को अदब के आइने में देखा तो उसे अहसास हुआ है कि ग़ज़ल सिर्फ़ साहित्य की विधा नहीं है, बल्कि समाज के हर वर्ग और उम्र के, लोगों के दिलों की धड़कन भी है।
दो समकालीन उर्दू और हिन्दी ग़ज़लकारों के शे'र देखिये-

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये,
और मैं था कि सच बोलता रह गया।
-प्रो. वसीम बरेलवी

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए,
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिये।
- डॉ. कुँअर बैचैन

अब यदि ये दोनों शे'र देवनागरी लिपि की जगह फ़ारसी लिपि में लिख दिए जायें, तो भी किसी शे'र  में कुछ भी नहीं बदलेगा। क्योंकि लिपि सदैव ही किसी भाषा की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं करती। जैसे कि जब हम सैलफोन पर  हिन्दी का कोई मैसेज रोमन लिपि में टाइप करते हैं तो वह मैसेज रोमन लिपि में टाइप होने के बाबजूद भी अंग्रेजी भाषा का नहीं कहलाता, वह हिन्दी-भाषा का ही कहलाएगा। अतः ये शे'र ज़बान के लिहाज से उर्दू-अदब के भी हैं और हिन्दी-साहित्य के भी हैं।
 ... अब चलो क्रिया-शब्दों (Verbs) से देखते हैं, क्योंकि किसी भाषा के क्रियापद उसके अपने होते हैं और वे भाषा को भी प्रमाणित करते हैं। जबकि संज्ञापदों (Noun) की स्थिति लिपि वाली ही होती है, इसलिए यहाँ उसकी चर्चा करने का कोई फ़ायदा नहीं है। अब ग़ौर करने वाली बात यह है कि हिन्दी और उर्दू के क्रियापद एक जैसे ही होते हैं। इसलिये इन शेरों में क्रियापद भी एक जैसे ही हैं। अर्थात यह अशआर हिन्दी-उर्दू दोनों के ही क़रीब हैं।
चलिए अब भाषा के लिहाज से देख लेते हैं, तो दोनों शेरों में न तो मुश्किल उर्दू/फ़ारसी के अल्फाज़ हैं और न क्लिष्ट हिन्दी/संस्कृतनिष्ठ शब्द हैं। अतः यह दोनों शे'र मिश्रित हिन्दी-उर्दू वाली आसान ज़बान में हैं। जो हम लोग सुबह से लेकर शाम तक बोलते हैं । ....जो सही मायने में हिंदुस्तानी ज़बान है। हिंदुस्तानी ज़बान में हिन्दी-उर्दू के अलावा भारत में बोली जाने वाली उन सभी भाषाओं और बोलियों के शब्द शामिल हैं, जो चलन में आ गये हैं और लोग बिना किसी भाषाई झमेले के बोलते हैं।
भाषाई कट्टरता किसी भी भाषा को संकीर्ण कर देती है जबकि  उदारता और सहिष्णुता भाषा को समृद्ध बनाती है। किसी भाषा या विधा को किसी जाति, क्षेत्र या धर्म की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। लेकिन इस स्थिति में एक चीज़ समझने की है, वो है संस्कृति। जिसकी विशेष भूमिका होती है,क्योंकि जब कोई विधा या शब्द दूसरी संस्कृति से आते है, तो हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि उस विधा या शब्द को  उसके मूल रूप में ही सम्मान दें, फिर चाहे अरूज़ (व्याकरण) का मामला जो या तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) का।
शुक्र है कि हिन्दी और उर्दू भाषाओं के बीच कोई भाषाई कट्टरता या भेदभाव नहीं है। दोनों सदियों से एक दूसरे के साथ हैं और यक़ीनन हर दिन और क़रीब आ रहीं हैं।
यूँ तो ग़ज़ल को ग़ज़ल कहना ही पर्याप्त है। ग़ज़ल के साथ कुछ भी जोड़ने की ज़रूरत नहीं है लेकिन क्या करें ग़ज़ल के साथ पहले से ही उर्दू और हिन्दी विशेषण जुड़े हुये हैं। इसलिये हम ज़बान के नजरिये से हिंदुस्तानी ग़ज़ल कह कर, हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल के बीच की खाई पाट कर न केवल भाषाई सदभावना क़ायम करना चाहते हैं वल्कि ग़ज़ल को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बनाना चाहते हैं। क्योंकि शायरी सुख-दुःख, आशा-निराशा हर हाल में सुकून देती है।
अब कुछ और बिंदुओं पर प्रकाश डालने से पहले भारत में ग़ज़ल के विकास पर मुख़्तसर सी चर्चा करते हैं-

【 1.】  ग़ज़ल

ग़ज़ल की शुरुआत अरब में हुई थी। ग़ज़ल का मतलब होता था- महबूब से बातचीत करना। यही कारण है कि आज भी ग़ज़ल लिखी नहीं बल्कि कही जाती है। 10 वीं शताब्दी में, विशेष रूप से ईरान और उसके आसपास फ़ारसी भाषा में खूब ग़ज़लें कहीं गयीं, वास्तव में ग़ज़ल को यहीं से पहचान मिली।
ग़ज़ल का अपना एक अरूज़ (व्याकरण) होता था, जिसके अंतर्गत निर्धारित बहरों (छन्दों) में एक ही वज़्न में सभी शे'र कहे जाते थे। साथ ही ग़ज़ल की अपनी एक तहज़ीब (संस्कृति) भी होती थी। ग़ज़ल का वो अरूज़ आज भी जस का तस प्रयोग होता है, चाहे ग़ज़ल किसी भी भाषा में क्यों न कही जाये। ऐसा न करना ग़ज़ल की सदियों पुरानी भव्य परम्परा की तौहीन मानी जाती है।

【 2. 】 ऊर्दू ग़ज़ल

भारत में 12 वीं शताब्दी में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के बाद, साहित्यिक और सांस्कृतिक सौहार्द के रूप में ग़ज़ल भारत में आई और फिर वो हमेशा के लिए यहीं की होकर रह गयी। दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत में ग़ज़ल को ज़्यादा लोकप्रियता मिली। दिल्ली और लखनऊ के रूप में उसे दो ऐसे शायरी के गढ़ मिले जिन्होंने ऊर्दू अदब को तमाम महान शायर दिये। भारत में ग़ज़ल फ़ारसी से उर्दू में आयी इसीलिए फ़ारसी का प्रभाव उस पर हमेशा बना रहा। उर्दू ग़ज़ल नें फ़ारसी के परम्परागत अरूज़ को न केवल ज्यों का त्यों स्वीकार किया बल्कि उसे ख़ासा सम्मान भी दिया। लेकिन बाद में ग़ज़ल की मूल बहरों से बनीं, कुछ नई बहरें भी उर्दू ग़ज़ल में प्रचलित हो गयीं। आज उर्दू-ग़ज़ल के दीवान  देवनागरी लिपि में भी प्रकाशित हो रहे हैं।

【 3.】 हिन्दी ग़ज़ल

भारत में इमरजेंसी के दौरान 1975 में दुष्यन्त कुमार के ग़ज़ल-संग्रह ' साये में धूप ' के प्रकाशन के बाद हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा पड़ी। यहाँ हम अमीर ख़ुसरो, कबीर, निराला आदि का ज़िक्र हिंदी ग़ज़ल के जनक के रूप में नहीं कर रहे हैं। वास्तव में हिंदी-ग़ज़ल को धरातल पर आकार देने का क्रेडिट दुष्यंत कुमार को ही जाता है।
उर्दू से जब ग़ज़ल हिन्दी में आयी तो उसकी भाषा मिली-जुली उर्दू-हिन्दी थी जबकि लिपि देवनागरी थी, साथ ही उसमें नुक़्ते का चलन भी था। हिंदी ग़ज़ल ने भी फ़ारसी-उर्दू का ही शिल्प अपनाया। निःसन्देह हिन्दी-ग़ज़ल ने नये प्रतीक, बिम्ब और समसामायिक विषयों को छूकर उसे ऊँचाई प्रदान की और बहुत ही कम समय में उम्मीद से ज़्यादा ख्याति अर्जित की। इस बीच जब हिन्दी में ग़ज़ल कहने वालों की तादाद बढ़ी तो " ग़-ज़-ल " को " ग-ज-ल " बोलने वाले भी ग़ज़ल कहने लगे। कुछ लोगों ने शिल्प का कोई ध्यान नहीं रखा, तो कुछ ने हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया, जो ग़ज़ल में सहज नहीं थे और फ़ारसी-उर्दू की बहरों में भी आसानी से फिट नहीं होते थे। अतः ग़ज़लें बहर से ख़ारिज़ होने लगीं। ऐसे में जिस हिन्दी ग़ज़ल को लोग गंभीरता से लेने लगे थे, वहाँ हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गयी। अतः हिन्दी ग़ज़ल वालों को व्याकरण और भाषा के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है।

【 4.】 हिन्दुस्तानी ग़ज़ल

हिन्दी/उर्दू मिश्रित आसान ज़बान में, परम्परागत शिल्प की कसौटी पर, हिन्दुस्तानी परिवेश में कही गयी ग़ज़ल को हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहते हैं। 
इन हिन्दुस्तानी ग़ज़लों को समझने के लिये किसी डिक्शनरी या अन्य किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं होती है। ये सीधे दिल में उतरती हैं और असर भी करते हैं।
हिंदी और उर्दू  सहित तमाम भाषाओं का साहित्य इस बात का गवाह है, कि उस भाषा की वही रचनाएँ कालजयी बनीं जो उस काल में आसान ज़बान में कहीं गयीं।
...तो आइये ! अब हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के सफ़र में हमसफर बनकर आगे बढ़ते हैं ...
मुसाफिर हैं हम तो चले जा रहे हैं
बड़ा ही सुहाना ग़ज़ल का सफ़र है
-हसरत जयपुरी

आपका अपना
#डॉ_निशान्त_असीम

सोमवार, 2 मार्च 2020

5:39 am

निदा_फ़ाज़ली साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज पेश कर रहे हैं #निदा_फ़ाज़ली साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
निदा फ़ाज़ली साहब ( 1938 - 2016 ) उर्दू-अदब के बेहतरीन और संजीदा शायर थे, लेकिन उनकी शायरी की भाषा आम हिंदुस्तानी ज़बान थी। यही उनकी पॉपलरटी की ख़ास वजह थी।
उनकी कुछ खूबसूरत ग़ज़लें और कुछ शे'र देखिये ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाए
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए

जिन चराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहीं
उन चराग़ों को हवाओं से बचाया जाए

ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन अभी औरों को सताया जाए

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए

क्या हुआ शहर को कुछ भी तो दिखाई दे कहीं
यूँ किया जाए कभी ख़ुद को रुलाया जाए

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये

/ 02 /

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता

कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हम ज़बाँ नहीं मिलता

चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

/ 03 /

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है

अच्छा-सा कोई मौसम तन्हा-सा कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है

आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को
आकाश की चादर है धरती का बिछौना है

#चन्द_शेर_और_हाज़िर_हैं ...

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना

एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शमा जलाने से रही

अब किसी से भी शिकायत न रही
जाने किस किस से गिला था पहले

कहता है कोई कुछ तो समझता है कोई कुछ
लफ़्ज़ों से जुदा हो गए लफ़्ज़ों के मआनी

ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

कुछ लोग यूँ ही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं
हर एक से अपनी भी तबीअ'त नहीं मिलती

बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया

बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए
इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई

हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाये

यक़ीन चाँद पे सूरज में ऐतबार भी रख
मगर निगाह में थोड़ा सा इंतज़ार भी रख

ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते-मिलाते रहिये

कुछ तबीअत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई
जिस को चाहा उसे अपना न सकेजो मिला उस से मोहब्बत न हुई

ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई
जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

10:02 am

उर्मिलेश जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...प्रस्तुति #डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। खुशी है यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज लेकर आये हैं #उर्मिलेश जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
डॉ उर्मिलेश ( 1951-2005 ) का ताल्लुक बदायूँ से था। वे मूलतः गीतकार थे लेकिन उनकी ग़ज़लें भी काफ़ी लोकप्रिय हुईं। उनकी ग़ज़लों में सामाजिक सम्बन्धों की न सिर्फ़ तस्वीर नज़र आती है बल्कि इन्सानी जज़्बात भी उभरते हैं।
उनकी चन्द ग़ज़लें और शे'र समआत फ़रमाये ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

रिश्तों की भीड़ में भी वो तन्हा खड़ा रहा
नदियाँ थी उसके पास वो प्यासा खड़ा रहा

सब उसको देख देख के बाहर चले गए
वो आईना था घर में अकेला खड़ा रहा

इस दौर में उस शख्स की हिम्मत तो देखिये
अपनों के बीच रहके भी ज़िन्दा खड़ा रहा

मेरे पिता की उम्र से कम थी न उसकी उम्र
वो गिर रहा था और मैं हँसता खड़ा रहा

बारिश हुई तो लोग सभी घर में छुप गए
वो घर की छत था इसलिए भीगा खड़ा रहा

/ 02 /

अब बुज़ुर्गों के फ़साने नहीं अच्छे लगते
मेरे बच्चों को ये ताने नहीं अच्छे लगते

बेटियाँ जब से बड़ी होने लगी हैं मेरी,
मुझको इस दौर के गाने नहीं अच्छे लगते

उम्र कम दिखने के नुस्खे तो कई हैं लेकिन,
आइनों को ये बहाने नहीं अच्छे लगते

अब वो मँहगाई को फैशन की तरह लेता है,
अब उसे सस्ते ज़माने नहीं अच्छे लगते

अपने ही शोर में डूबा हुआ हूँ मैं इतना
अब मुझे मीठे तराने नहीं अच्छे लगते

/ 03 /

पूरी हिम्मत के साथ बोलेंगे
जो सही है वो बात बोलेंगे

साहिबों,हम क़लम के बेटे हैं
कैसे हम दिन को रात बोलेंगे

पेड़ के पास आँधियाँ रख दो
पेड़ के पात पात बोलेंगे

'ताज' को मेरी नज़र से देखो
जो कटे थे वो हाथ बोलेंगे

उनको कुर्सी पे बैठने तो दो
वो भी फिर वाहियात बोलेंगे

#चन्द_शेर_और_देखिए

बेवजह दिल पे कोई बोझ न भारी रखिये
ज़िन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिये

वो जिसका तीर चुपके से जिगर के पास होता है
वो कोई ग़ैर क्या अपना ही रिश्तेदार होता है

तू इन बूढ़े दरख्तों की हवाएँ साथ रख लेना
सफ़र में काम आयेंगी दुआएँ साथ रख लेना

चोट मौसम ने दी कुछ इस तरह गहरी हमको।
अब तो हर सुबह भी लगती है दुपहरी हमको।।

परिन्दों के यहाँ फ़िरकापरस्ती क्यों नहीं होती
कभी मन्दिर पे जा बैठे कभी मस्जिद पे जा बैठे

किसी से अपने दिल की बात कहना तुम न भूले से
यहाँ ख़त भी ज़रा सी देर में अखबार होता है

कितने दिन ज़िन्दा रहे इसको न गिनिये साहिब
किस तरह ज़िन्दा रहे इसकी शुमारी रखिये

देख कर बच्चों का फैशन वो भी नंगा हो गया
ये इज़ाफ़ा भी हुआ इस दौर की रफ़्तार में

मेरी टाँगे मांग कर मेरे बराबर हो गये,
यानी मेरे शेर पढ कर वो भी शायर हो गये

अपनी शादी पे छपाए उसने अंग्रेज़ी में कार्ड
वो जो हिन्दी बोलता था रोज़ के व्यवहार में

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

4:13 pm

राहत_इन्दौरी साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...प्रस्तुति #डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। हमें खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज हाज़िर है #राहत_इन्दौरी साहब की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
डॉ राहत इंदौरी साहब का उर्दू-अदब में खास मक़ाम है। उनकी ज़्यादातर शायरी आसान हिंदुस्तानी-ज़बान में है।
उनका शे'र कहने का अपना एक अलग अंदाज़ है जिसे दुनिया भर में पसन्द किया जाता है। उनकी शायरी में दौरे-हाज़िर की तस्वीर भी है और मुहब्बत की रवायत भी।
यही कारण है कि उनके शे'र हर प्रोफेशन का व्यक्ति कोड करता है।
तो आइये समाआत फ़रमाते हैं डॉ राहत इन्दौरी साहब की हिंदुस्तानी  ग़ज़लें ...

#ग़ज़लें

/ 01 /

दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए

मौत का ज़हर है फ़ज़ाओं में
अब कहाँ जा के साँस ली जाए

बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ
ये नदी कैसे पार की जाए

अगले वक़्तों के ज़ख़्म भरने लगे
आज फिर कोई भूल की जाए

लफ़्ज़ धरती पे सर पटकते हैं
गुम्बदों में सदा न दी जाए

/ 02 /

हौसले ज़िंदगी के देखते हैं
चलिए कुछ रोज़ जी के देखते हैं

नींद पिछली सदी की ज़ख़्मी है
ख़्वाब अगली सदी के देखते हैं

रोज़ हम इक अँधेरी धुँद के पार
क़ाफ़िले रौशनी के देखते हैं

धूप इतनी कराहती क्यूँ है
छाँव के ज़ख़्म सी के देखते हैं

टुकटुकी बाँध ली है आँखों ने
रास्ते वापसी के देखते हैं

/ 03 /

पुराने शहरों के मंज़र निकलने लगते हैं
ज़मीं जहाँ भी खुले घर निकलने लगते हैं

मैं खोलता हूँ सदफ़ मोतियों के चक्कर में
मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते हैं

हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मंज़र
सितारे धूप पहनकर निकलने लगते हैं

बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला
क़रीबी दोस्त भी बचकर निकलने लगते हैं

बुलन्दियों का तसव्वुर भी ख़ूब होता है
कभी कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं

#चन्द_शेर_समआत_फ़रमाइये


न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा

तूफ़ानों से आँख मिलाओ सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो तैर के दरिया पार करो

जुबां तो खोल, नजर तो मिला, जवाब तो दे
मैं कितनी बार लुटा हूँ, हिसाब तो दे

ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था

मेरा नसीब, मेरे हाथ कट गए वरना
मैं तेरी माँग में सिन्दूर भरने वाला था

दो गज सही ये मेरी मिलकियत तो हैं
ऐ मौत तूने मुझे ज़मीदार कर दिया

रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

नींद से मेरा ताल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख़्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यूं हैं

एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे
वो अलग हट गया आँधी को इशारा कर के

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो

अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

4:30 pm

कुँअर_बेचैन जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...डॉ_निशान्त_असीम

#हिंदुस्तानी_ग़ज़ल  #ہندوستانی_غزل
की ये सीरीज फेसबुक अकाउन्ट पर जारी है। जिसमें शायरों/ग़ज़लकारों की आसान हिन्दुस्तानी ज़बान में कही गयीं, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें और शे'र हाज़िर हैं। ताकि वे एक आम हिन्दुस्तानी तक आराम से पहुँच सकें। हमें खुशी है कि यह कोशिश आपको पसन्द आ रही है।
आज लेकर आये हैं #कुँअर_बेचैन जी की हिंदुस्तानी ज़बान वाली शायरी ...
डॉ बेचैन मूलतः हिन्दी के कवि हैं और आजकल ग़ाज़ियाबाद में रहते हैं। यूँ तो उन्हें एक गीतकर के रूप में सारी दुनिया जानती है लेकिन उनकी हिन्दुस्तानी-ग़ज़लें भी खासी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपनी गज़लों में नई सोच के साथ नये प्रतीकों का प्रयोग करने में कभी संकोच नहीं किया।
 ...तो आइये पढ़ते हैं उनकी हिन्दुस्तानी-ज़बान वाली शायरी ....

#ग़ज़लें

/ 01 /

औरों के भी ग़म में ज़रा रो लूँ तो सुबह हो
दामन पे लगे दाग़ों को धो लूँ तो सुबह हो

कुछ दिन से मेरे दिल में नई चाह जगी है
सर रख के तेरी गोद में सो लूँ तो सुबह हो

पर बाँध के बैठा हूँ नशेमन में अभी तक
आँखों के साथ पंख भी खोलूँ तो सुबह हो

लफ़्ज़ों में छुपा रहता है इक नूर का आलम
यह सोच के हर लफ़्ज़ को बोलूँ तो सुबह हो

जो दिल के समुन्दर में है अंधियार की कश्ती
अंधियार की कश्ती को डुबो लूँ तो सुबह हो

खुश्बू की तरह रहती है जो जिस्म के भीतर
उस गन्ध को साँसों में समो लूँ तो सुबह हो

दुनिया में मुहब्बत-सा 'कुँअर' कुछ भी नहीं है
हर दिल में इसी रंग को घोलूँ तो सुबह हो

/ 02 /

हम कहाँ रुस्वा हुए रुसवाइयों को क्या ख़बर
डूबकर उबरे न क्यूँ गहराइयों को क्या ख़बर

ज़ख़्म क्यों गहरे हुए होते रहे होते गए
जिस्म से बिछुड़ी हुई परछाइयों को क्या ख़बर

क्यों तड़पती ही रहीं दिल में हमारे बिजलियाँ
क्यों ये दिल बादल बना अंगड़ाइयों को क्या ख़बर

कौन सी पागल धुनें पागल बनातीं हैं हमें
होंठ से लिपटी हुई शहनाइयों को क्या ख़बर

किस क़दर तन्हा हुए हम शहर की इस भीड़ में
यह भटकती भीड़ की तन्हाइयों को क्या ख़बर

कब कहाँ घायल हुईं पागल नदी की उँगलियाँ
बर्फ़ में ठहरी हुई ऊँचाइयों को क्या ख़बर

क्यों पुराना दर्द उठ्ठा है किसी दिल में कुँअर
यह ग़ज़ल गाती हुई पुरवाइयों को क्या ख़बर

/ 03 /

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया

जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया

सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया

आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया

आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया

अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया

ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया

अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ जाने का शुक्रिया

#चन्द_शेर_समात_फ़रमाइये

दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना

ये लफ़्ज़ आईने हैं मत इन्हें उछाल के चल
अदब की राह मिली है तो देखभाल के चल

तुम जिन को कह रहे हो मिरे क़दमों के निशाँ
वो सब तो मेरे पाँव के छालों के दाग़ हैं

हो के मायूस न यूँ शाम से ढलते रहिए
ज़िंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए

इस वक़्त अपने तेवर पूरे शबाब पर हैं
सारे जहाँ से कह दो हम इंक़लाब पर हैं

कोई नहीं है देखने वाला तो क्या हुआ
तेरी तरफ़ नहीं है उजाला तो क्या हुआ

उस ने फेंका मुझ पे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊँचा और ऊँचा और ऊँचा हो गया

प्रस्तुति
#डॉ_निशान्त_असीम

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