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बुधवार, 11 अप्रैल 2018

ग़ज़ल


इंसाँ    छोड़   जाता'   है   निशानियाँ   कभी   कभी।

ख़त्म  शो  हो'  खूब  बजती'  तालियाँ  कभी  कभी ।।


कुछ  अलग  करो  तो  हट  के  बनती  हैं  हमेशा  ही ।

कुछ   ही   लोगों'  की   नई  कहानियाँ  कभी  कभी ।।


धर्म   के   ही'   नाम   पर   शहर   में'   हो   रहे   दंगे ।

तब   इंसानों   की'   होती'   तबाहियाँ   कभी  कभी ।।


अब    गली    में'   शोर   होता'   ही  नही  पढाई'  के ।

बोझ   से   बच्चों   की   खत्म   छुट्टीयाँ  कभी  कभी ।।


जिंदगी  में'  लगता'  है  यहाँ  आ'  के  खो'  ही  जाये ।

यूँ   ही   मिलती   है   हसीन   वादियाँ   कभी   कभी ।।


पहले'  होता  इंतजार  फोन  का  यूँ'  अब  तो'  बस ।

मेरे'  घर   आती  हैं'  उसकी'  चिठ्ठियाँ  कभी  कभी ।।


"अक़्स"  उसका   कोई'  भी  पता  नही  लगा  अभी ।

बंद  रहती' उसके'  घर  की' खिड़कियाँ  कभी कभी ।।


© विकास भारद्वाज

9627193400

बदायूं (उ०प्र०)

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