हिंदी साहित्य वैभव

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रविवार, 28 जून 2020

11:49 pm

फिल्म - बुलबुल दो शब्द

फ़िल्म का नाम है bulbhul(बुलबुल)। इसे देखकर अगर मैं दो शब्दों की इसकी व्याख्या करूँ तो मैं इसे "हृदय विदारक" कहूंगी ।
एक बंगाली बच्ची जो बड़ी बहू बनकर ठाकुरों की हवेली में आती है और इस कदर दर्द भरा जीवन जीती है जिसे देखकर "मैली इच्छाएं" कहानी की याद आ गयी ।
एक वयस्क कहानी जो मैंने कुछ महीनों पहले लिखी और किंडल में डाली थी ।
उसकी राजकिशोरी और इसकी बुलबुल एक जैसे ही तो हैं ।
बुलबुल के चेहरे पर सदा मुस्कान चिपकी रहती है और आँखो में दिखता है मुस्कान के पीछे छिपा अथाह दर्द जिसे सत्या( नायक) बुलबुल का देवर , समझ ही नहीं पाता ।
इसमे एक दूसरी बच्ची अपने बाप की मौत पर कहती है " काली मां ने मारा है " ।
चुड़ैल ने नहीं ।
दिल को झझकोर देने वाला कथन था ।
चांद का लाल होना कहानी की जान है और फ़िल्म में नायिका का किरदार 100 में से 101 का हकदार है । वैसे मुझे उसमे(नायिका में ) श्रद्धा कपूर की छवि लगी ।
बड़ी हवेली के बड़े राज दफन रखने वाली कहानी है । देखना न देखना आपकी इच्छा है । ❤️❤️❤️

सुरभी सहगल 

सोमवार, 8 जून 2020

8:55 pm

रेगिस्तान की कविताएं - कमल सिंह सुल्ताना

1.
           ◆◆ आक का दोना ◆◆
_______________________________________
खेत में बने झोंपड़े के पास
आकड़े की छांव में 
निहारता हुआ फसल को
मैं बैठा रहता हूँ देर तक अकेला
कुछ ही समय पश्चात
देखता हूँ कि 
हुकमिंग आ रहे है यहीं
कंधे पर तार बंधी 
गहरी छीली हुई लकड़ी उठाये
हाथ में लटकाए बोतल
एक भरी पूरी एवडजात के साथ ।

उन्होंने इच्छा प्रकट की
हालांकि सारी इच्छाएं है छलनाएँ
क्या की जाए दो बातें
पहली अपने मे रमती हुई
दूसरी जनतंत्र की जाजम की
जो झुलस रहा है भीड़तंत्र बना  ।
बेपर्दा आकड़ो के पास
अग्नि चेतन करते समय 
उन्होंने बना ही दी चाय ।

एक गंभीर समस्या उभरी
कि पान कैसे करें?
वे बर्तन गवाड़ी भूल आये 
मेरी सहयोग की मन में नही है 
पास की आकड़ा हिल - डुला कर
मौन आमंत्रण देता है 
बनाया जाता है तत्काल दोना
और पान किया जाता है
षट - रसों से सिरमौड़
त्रिलोकी पसरा प्रेम का ।

_________________________________________
2.
        ◆◆ ये वह रेत नही ◆◆

ये रेत तो है
किंतु वैसी न रही
इसके होने में अहसास नहीं
उभर आई है कृत्रिमता
मुंह उठाकर देखता हूँ तो 
ठूंठ थे जहां कभी
उग आए है वहां
कई - कई हाथ लंबे खंभे
जो घूमते रहते है वर्तुलाकार
लगातार कई कई दिन रात 
सोख लेते है जो 
मेरी जमीं की सारी पवन ।

पिछले बरस की ही बात है कोई
हुआ है अघोषित बंद का एलान
सब मनाही हुई है 
उन पवन चक्कियों की ओर जाने की
बच्चे नही जा सकते वहां
पाका, पीलू और सांगरी के बहाने ।
लगा दी गई है लंबी रोक
तमाम नासेटों की
अब जिनावर खोते नहीं
चुरा लिए जाते है
आदम - जानवरों के द्वारा ।

एक गहरा लाल बिंदु
पळपळा रहा है अनवरत
क्षणिक दिखता है क्षणिक ओझल
दूर ऊंचे आकाश में
तारों के ही पास
निहारा जा सकता है उसे
उपेक्षित दृष्टिकोण से ।
रात के सन्नाटे में
अध-खुली सी आंखों से ।

ढाणी के ठीक बीचो- बीच
बिछा रखी है कई तारें
जिनमे चलता है करंट
भागती है बिजलियाँ
आवागमन करती है 
तकनीक ढाणी की तरफ ।
पर्दा ओढ़े मां को
खाया जाता है एक डर
सहम जाती है कल्पना से
कहीं ,कभी न कभी
नंगे पांव जमीं नापता
नन्हा धूड़ा चला  न जाये
उस करंट से क्रीड़ा करने ।
  ________________________________
3.
          ◆◆मूमल के देश ◆◆

दूर तक फैले
अपने असीम और दिंगत फैलाव के साथ
ये रेतीले धोरे
इस जहां के नही है 
इन्हें यहां लाया भी न गया
हवाओ के साथ हुई संधि के बाद ।
ये स्वतः उड़ आये है
सरहद पार से
महेंद्रा के देश से ।

इस धोरों में कुछ भी
नयापन जैसा नहीं है 
एक स्वर है
कलकल है,निनाद है
मुस्कुराहट है चिर परिचित सी
कोई वैरागी राग है
किसी एक ही स्वर से उलझा
शायद वो संबोधन है कोई
अरे हां, मूमल ।

मैंने सुना था 
किसी के मुख से कि
धोरे निर्जीव होते है 
अफसोस ! गहरा अफसोस !!
कि मैं सुन न सका
बरसों बीत जाने बाद भी
सांय सांय के सरणाटे संग
घूमते फिरते है जीव
मूमल - महेंद्रा के नाम बांचते। 

__________________________________
4.
        ◆◆हृदयंगम◆◆
____________________________
कि घने बरसों तक 
उलझनों से उलझकर
मैं कर न सका हृदयंगम ।
द्रुत गति से दौड़ती
मोटर- गाड़ियां और रेल
जैसे सब के सब 
मेरे ही तो थे कभी
और फिर छीने गए मुझसे ही
उड़ती धूल के पीछे
पेट की भूख को मैंने
सहजता से किया हृदयंगम ।

कभी देखता हूँ
तेज हवा का एक झोंका
कारी लगे मेरे वस्त्रों से
हो जाता है आर - पार
मानो ! मुझसे पूछता है 
प्रगति का सेहरा बांधे
इस नई - नवेली दुल्हन की
कहां आवश्यकता हुई 
मुंह - दिखाई में में ही जिसके
छीन लिया संस्कृति का मूल
आखिर कब तक बचाओगे ब्याज ।

थोड़ी दूर चलकर सोचता हूँ
मेरे बापू की झुर्रियों के विषय में
लिपटा पड़ा जिससे संतोष
भीषण लू के थपेड़ों
उजड़ आंधियो के सौतेले व्यवहार
और तो और
तपती रेत से हींये के बाद ।
जिस घर को बचाया
वो तो नवीन सभ्यता के
एक हल्के से झोंके भर से
उड़ गया बहुत दूर,बहुत दूर ।

घर मे रखी हुई है
पिछले बरस की धान की बोरी
सवालात करती है मुझसे
आखिर कब तक रखोगे मुझे 
दामों के इंतजार में
बेच क्यों नही देते अब ।
भावनाओ से उलझकर
मानवीय मूल्यों का क्या करोगे
ये छीन लेंगे बहुत जल्द
तुम्हारे सिर की पगड़ी
इससे पहले की धान के भाव गिरे
मुझे बेच डालो 
हां, मुझे बेच डालो तुम ।
         ----- कमल सिंह सुल्ताना
 ______________________________________
डाक पता - ग्राम / पोस्ट -: सुल्ताना
 जिला -: जैसलमेर  ( राजस्थान)
पिन कोड - 345001
संपर्क सूत्र - 9929767689

6:38 am

Fresh feeling. ..hr koi Akeld. ..

मान्यवर  मित्रों , 04.06.2020

दिल  पर  मत  लेना ...


हर  कोई  यहां  अकेला .....

जीवन हर  किसी  को   प्यारा 
बचपन  सबका  राज  दुलारा 
अपराध जीवन में  एक बार
एक  को  दूसरे से  प्यार 
सामाजिक  ज़िम्मेवारिंयों का  पहाड़ 
सारी उम्र  फिर धोबी पछाड़ 
किलकारियां  की  चौतर्फा बहार 
हर  समय  गले  का  हार 
उम्र  संग  कई  मेले 
ज़िन्दगी में कुछ  झमेले 
सोच  बराबर  बदलती  जाये 
कुछ  चीजे संभलती  जाये 
फिर  सब  छूट  जाये 
खाली  हाथ  रह  जाये 
यही  चक्र  हैं  अलबेला 
हर  कोई  यहां  अकेला 

आपका अपना 
वीरेन्द्र  कौशल

गुरुवार, 4 जून 2020

11:47 pm

प्रकाशन हेतु स्वरचित रचना

सपना

विरह के आग़ में जलते जलते
उस दिन मैं काफ़ी दूर आ गया था
वो वीरान और ख़तरनाक जंगल था
वहां मैं कब कैसे पहुंचा मुझे खबर नहीं 
जहां सिंह की दहाड़ और झिंगुरों की कर्कश आवाज थीं
दिन में भी घनघोर अंधेरा और हो रहीं तेज़ बारिश थीं
मैंने प्रकृति के इस रूप का अभिवादन किया
प्रकृति भी ख़ुश हो कर मुझ पर पुष्प वर्षा कर रही थी
मैं ख़ामोश हो कर ये सब चमत्कार देखता रहा
कोयल कोई गीत गा रही थी मयूर नृत्य कर रहे थे 
तभी एक तेज़ रोशनी मेरे आंखों से टकराई
ओह ये क्या मेरी आंखें ये सब सपने में देख रही थी


शिवम् मिश्रा "गोविंद"
मुंबई महाराष्ट्र


मैं शिवम् मिश्रा "गोविंद" घोषणा करता हूं कि ये रचना मेरे द्वारा स्वरचित है।किसी भी तरह के कॉपी राईट उलंघन के मामले में मैं स्वयं जिम्मेदार रहूंगा, प्रकाशक मंडली नहीं।

मंगलवार, 2 जून 2020

5:00 am

प्रकाशन हेतु स्वरचित रचना


विषय - आईना

दर्पण उस रोज़ ख़ामोश था
मैंने उससे पूछा क्या हुआ
बड़े दुःखी मन से वो बोला
सच सबका जो मैं दिखलाता
उलाहने उन सबकी मैं ही पाता
इल्ज़ाम मुझ पर इतना सब आता
फ़िर भी मैं जो जैसा उसको वैसा बतलाता
नाराज़गी फ़िर मैंने आईने का ऐसे दूर किया
देख अपना अक्स उसमें ज़रा सा मुस्कुरा दिया
मुझे यूं मुस्कुराता देख दर्पण भी ख़ुश हुआ
अपनी सारी शिकायतें भूल मेरे संग मुस्कुरा दिया

शिवम् मिश्रा "गोविंद"
मुंबई महाराष्ट्र



मैं शिवम् मिश्रा "गोविंद" घोषणा करता हूं कि प्रस्तुत रचना मेरे द्वारा रचित है। किसी भी तरह के कॉपी राईट के उलंघन के मामले में सिर्फ़ मैं जिम्मेदार रहूंगा ,संपादक मंडली का इसमें किसी भी तरह का दोष नहीं होगा।

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