नीतेन्द्र सिंह परमार 'भारत'
2:25 am
मुहब्बत ग़ज़ल संग्रह में नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत" की कुछ ग़ज़लें
ग़ज़ल 1
वज्न - 212 212 212 212
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ - चाहिए।
शब्द बोलो मगर तौलना चाहिए ।
तौल करके सदा बोलना चाहिए ।।
होश आता नहीं शाम होते यहाँ ।
जाम पीकर नहीं झूमना चाहिए ।।
नैन उनके मुझे देखते हैं अभी ।
आस करके जिया खोलना चाहिए ।।
पाक मिट्टी मिली आज हमको यहाँ ।
हाथ लेकर इसे चूमना चाहिए ।।
दोस्ती के सफ़र में मिली जो दुआ ।
साथ उसको लिये पूजना चाहिए ।।
रोज जिनके यहां खेलते थे कभी।
पास जाकर वहां घूमना चाहिए।।
दर्द होगा उसे दूर जाये कही ।
राज की बात हैं सोचना चाहिए ।।
भौह तिरछी किये पास थी वो खङी ।
नैन भी तो नही मोङना चाहिए ।।
प्रीत करता रहा रात दिन में उसे ।
इस तरह से नही छोड़ना चाहिए ।।
वो किताबी मजे याद आते हमें ।
लेख लिखकर सदा जाँचना चाहिए ।।
राह कांटो भरी जो मिलेगी कभी।
अश्क आँखो लगे पोछना चाहिए ।।
नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
गजल 2
वज्न - 122 122 122 122
काफिया - आ
रदीफ - नही है
हमारे हृदय का किनारा नही है ।
किसी की नज़र का इशारा नही है ।।
दिखी जो जहाँ में पड़ा आज पीछे ।
जमाना दिखाये नजारा नही है ।।
करूं बात सारी नदी की लहर सें ।
बहाये सभी को गवारा नही है ।।
भले रूठ जाये हमारी मुहब्बत ।
जमीं पर मिले वो सितारा नही है ।।
चले चाल सीधी मिले अजनबी भी ।
खुमारी चढ़ी पर पुकारा नही है ।।
कहो आज मनसे जहां में जहाँ पर ।
किया काम ऐसा सुधारा नही हैं ।।
नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
ग़ज़ल 3
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - अन
रद़ीफ - की
सुनाओ उसी को सुने बात मन की ।
दिखाओ जहाँ में रहे आस धन की ।।
खिलौना बना हैं मुसाफिर यहां का।
न ठहरो वहां पर हिफाजत न तन की।।
हरी डाल तोङे उसी को सजा दो ।
मिले नेक छाया जहाँ छाँव वन की ।।
निकालो न पाती लिखी थी जुवां से।
सिखाओ पढ़ा कर गुने सोच जन की।।
किनारे किनारे चला आज उससे ।
कहू आज भारत तमन्ना गगन की ।।
तपन में जलेगें मुहब्बत करेगें ।
करूं आज बाते सुहाने चमन की ।।
उठूँगा गिरूँगा चलूँगा जहाँ में ।
करूंगा हिफाजत यहां पर वतन की।।
लडाई करो दूर मेरा शहर हैं ।
दुआ अब करो आज न्यारे अमन की ।।
- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
ग़ज़ल 4
बह्र- 1222 1222 1222 1222
रद़ीफ - को
काफ़िया - ये
कही कोई नही होता सफर में साथ चलने को ।
मिले दुश्मन यहाँ हैं सब नहीं कोई पिघलने को ।।
उसी ने जान दी अपनी मगर सोचा नही हैं कुछ ।
हथेली पर रखा हैं दिल चला मैंखाने पलने को ।।
भरोसा कर लिया मैंने उसे अपना समझ कर ही ।
यहाँ सीधे चलाये तीर मेरी जान खलने को ।।
करूं सेवा उसी की रात दिन राही मिले जो हैं ।
लगी जो चोट सीने में वही पर तेज मलने को ।।
सिफारिश हो गई हैं तो जमाना प्यार करता है ।
करूं फरियाद में रब से जरा सा और फलने को।।
सिखाया पाठ जो हमको वही में आज बतलाता।
सड़क की मोड़ पर बैठे सभी अब आज पलने को।।
- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
गज़ल 5
वज्न - 1222 1222 122
रदीफ - हरदम।
काफ़िया - आ।
जमाने ने दिखाये रंग हरदम ।
रहा में भी उसी के संग हरदम।।
बताई थी बहुत बाते सफर में ।
मगर में था परेशां तंग हरदम ।।
नयी तकनीक खोजी है जहां में ।
बहुत ढूँढ़े हुआ वो दंग हरदम ।।
डराते हैं मुझे अंगार से वो ।
लडे हैं हम सदा ही जंग हरदम ।।
नमक डाले कभी वो रोज यारो ।
जले थे जो हमारे अंग हरदम ।।
- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
ग़ज़ल 6
वज्न - 122 122 122 122
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ - हुआ हैं
दिले इश्क को तो कमाया हुआ है ।
ये दिल रात दिन भर जलाया हुआ है ।।
मुझे क्या पता था हुई पीर भारी ।
नरम हाथ से खिल खिलाया हुआ है ।।
जमाना सुने आज मेरी कहानी ।
दिवाना वही फिर सुलाया हुआ है ।।
मुझे आज तो वो बुराई सताये ।
उसी दिल लगी को भुलाया हुआ है ।।
उसी से कहूँ राज दिल खोलके मैं ।
बिना पैर के भी चलाया हुआ है ।।
हमारा कहा आप गर मान लेते ।
यहा आँख से गम पिलाया हुआ है ।।
खड़ी दूर मुझसे जरा पास आओ ।
हमे रात मे भी बुलाया हुआ है ।।
- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
ग़ज़ल 7
बह्र - 1222 1222 122
रद़ीफ - आया
काफ़िया - आम।
यहाँ पर आज कैसा नाम आया ।
कही कोई नही अब काम आया ।।
सभी बैठे यहाँ पर मुँह फुलाये ।
नही जब हाथ में तो दाम आया ।।
नशे से हो गये मशहूर जो भी ।
पिये वो भी यहाँ पर जाम आया।।
कही जोगी कही भोगी मिले हैं ।
बहुत भटके यहाँ पर धाम आया ।।
हुकूमत छोड़ दी हमने जहां की।
वही सब मोड़ करके थाम आया।।
नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
ग़ज़ल 8
बह्र :- 1222 1222 1222
काफ़िया:- ए
रद़ीफ:- को
मिले हमको यहाँ सब साथ चलने को ।
यही बाते सुनी हैं रोज खलने को ।।
हमारा तो मुकद्दर बोलता है जो ।
किसी के रास्ते में नेक मिलने को ।।
सुमन मन से मिले वो बाग बन कर भी ।
गुलाबी रंग की बौछार फलने को ।।
कभी उससे किया वादा निभाया है ।
नई सी पंख की डाली न खिलने को ।।
गनीमत हैं जहाँ वालो अभी तो ये ।
कहो मत हाथ में भी हाथ मलने को ।।
यहाँ रोका नही तुमको शराफत हैं ।
चले आओ समय के साथ ढलने को ।।
-नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
छतरपुर ( मध्यप्रदेश )
वज्न - 212 212 212 212
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ - चाहिए।
शब्द बोलो मगर तौलना चाहिए ।
तौल करके सदा बोलना चाहिए ।।
होश आता नहीं शाम होते यहाँ ।
जाम पीकर नहीं झूमना चाहिए ।।
नैन उनके मुझे देखते हैं अभी ।
आस करके जिया खोलना चाहिए ।।
पाक मिट्टी मिली आज हमको यहाँ ।
हाथ लेकर इसे चूमना चाहिए ।।
दोस्ती के सफ़र में मिली जो दुआ ।
साथ उसको लिये पूजना चाहिए ।।
रोज जिनके यहां खेलते थे कभी।
पास जाकर वहां घूमना चाहिए।।
दर्द होगा उसे दूर जाये कही ।
राज की बात हैं सोचना चाहिए ।।
भौह तिरछी किये पास थी वो खङी ।
नैन भी तो नही मोङना चाहिए ।।
प्रीत करता रहा रात दिन में उसे ।
इस तरह से नही छोड़ना चाहिए ।।
वो किताबी मजे याद आते हमें ।
लेख लिखकर सदा जाँचना चाहिए ।।
राह कांटो भरी जो मिलेगी कभी।
अश्क आँखो लगे पोछना चाहिए ।।
नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
गजल 2
वज्न - 122 122 122 122
काफिया - आ
रदीफ - नही है
हमारे हृदय का किनारा नही है ।
किसी की नज़र का इशारा नही है ।।
दिखी जो जहाँ में पड़ा आज पीछे ।
जमाना दिखाये नजारा नही है ।।
करूं बात सारी नदी की लहर सें ।
बहाये सभी को गवारा नही है ।।
भले रूठ जाये हमारी मुहब्बत ।
जमीं पर मिले वो सितारा नही है ।।
चले चाल सीधी मिले अजनबी भी ।
खुमारी चढ़ी पर पुकारा नही है ।।
कहो आज मनसे जहां में जहाँ पर ।
किया काम ऐसा सुधारा नही हैं ।।
नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
ग़ज़ल 3
बह्र - 122 122 122 122
काफ़िया - अन
रद़ीफ - की
सुनाओ उसी को सुने बात मन की ।
दिखाओ जहाँ में रहे आस धन की ।।
खिलौना बना हैं मुसाफिर यहां का।
न ठहरो वहां पर हिफाजत न तन की।।
हरी डाल तोङे उसी को सजा दो ।
मिले नेक छाया जहाँ छाँव वन की ।।
निकालो न पाती लिखी थी जुवां से।
सिखाओ पढ़ा कर गुने सोच जन की।।
किनारे किनारे चला आज उससे ।
कहू आज भारत तमन्ना गगन की ।।
तपन में जलेगें मुहब्बत करेगें ।
करूं आज बाते सुहाने चमन की ।।
उठूँगा गिरूँगा चलूँगा जहाँ में ।
करूंगा हिफाजत यहां पर वतन की।।
लडाई करो दूर मेरा शहर हैं ।
दुआ अब करो आज न्यारे अमन की ।।
- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
ग़ज़ल 4
बह्र- 1222 1222 1222 1222
रद़ीफ - को
काफ़िया - ये
कही कोई नही होता सफर में साथ चलने को ।
मिले दुश्मन यहाँ हैं सब नहीं कोई पिघलने को ।।
उसी ने जान दी अपनी मगर सोचा नही हैं कुछ ।
हथेली पर रखा हैं दिल चला मैंखाने पलने को ।।
भरोसा कर लिया मैंने उसे अपना समझ कर ही ।
यहाँ सीधे चलाये तीर मेरी जान खलने को ।।
करूं सेवा उसी की रात दिन राही मिले जो हैं ।
लगी जो चोट सीने में वही पर तेज मलने को ।।
सिफारिश हो गई हैं तो जमाना प्यार करता है ।
करूं फरियाद में रब से जरा सा और फलने को।।
सिखाया पाठ जो हमको वही में आज बतलाता।
सड़क की मोड़ पर बैठे सभी अब आज पलने को।।
- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
गज़ल 5
वज्न - 1222 1222 122
रदीफ - हरदम।
काफ़िया - आ।
जमाने ने दिखाये रंग हरदम ।
रहा में भी उसी के संग हरदम।।
बताई थी बहुत बाते सफर में ।
मगर में था परेशां तंग हरदम ।।
नयी तकनीक खोजी है जहां में ।
बहुत ढूँढ़े हुआ वो दंग हरदम ।।
डराते हैं मुझे अंगार से वो ।
लडे हैं हम सदा ही जंग हरदम ।।
नमक डाले कभी वो रोज यारो ।
जले थे जो हमारे अंग हरदम ।।
- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
ग़ज़ल 6
वज्न - 122 122 122 122
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ - हुआ हैं
दिले इश्क को तो कमाया हुआ है ।
ये दिल रात दिन भर जलाया हुआ है ।।
मुझे क्या पता था हुई पीर भारी ।
नरम हाथ से खिल खिलाया हुआ है ।।
जमाना सुने आज मेरी कहानी ।
दिवाना वही फिर सुलाया हुआ है ।।
मुझे आज तो वो बुराई सताये ।
उसी दिल लगी को भुलाया हुआ है ।।
उसी से कहूँ राज दिल खोलके मैं ।
बिना पैर के भी चलाया हुआ है ।।
हमारा कहा आप गर मान लेते ।
यहा आँख से गम पिलाया हुआ है ।।
खड़ी दूर मुझसे जरा पास आओ ।
हमे रात मे भी बुलाया हुआ है ।।
- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
ग़ज़ल 7
बह्र - 1222 1222 122
रद़ीफ - आया
काफ़िया - आम।
यहाँ पर आज कैसा नाम आया ।
कही कोई नही अब काम आया ।।
सभी बैठे यहाँ पर मुँह फुलाये ।
नही जब हाथ में तो दाम आया ।।
नशे से हो गये मशहूर जो भी ।
पिये वो भी यहाँ पर जाम आया।।
कही जोगी कही भोगी मिले हैं ।
बहुत भटके यहाँ पर धाम आया ।।
हुकूमत छोड़ दी हमने जहां की।
वही सब मोड़ करके थाम आया।।
नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "
ग़ज़ल 8
बह्र :- 1222 1222 1222
काफ़िया:- ए
रद़ीफ:- को
मिले हमको यहाँ सब साथ चलने को ।
यही बाते सुनी हैं रोज खलने को ।।
हमारा तो मुकद्दर बोलता है जो ।
किसी के रास्ते में नेक मिलने को ।।
सुमन मन से मिले वो बाग बन कर भी ।
गुलाबी रंग की बौछार फलने को ।।
कभी उससे किया वादा निभाया है ।
नई सी पंख की डाली न खिलने को ।।
गनीमत हैं जहाँ वालो अभी तो ये ।
कहो मत हाथ में भी हाथ मलने को ।।
यहाँ रोका नही तुमको शराफत हैं ।
चले आओ समय के साथ ढलने को ।।
-नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
छतरपुर ( मध्यप्रदेश )