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मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

उसकी जुल्फो में एक शाम

जब मेरे खत पढ किताब मे रख कुछ होंटो पर गुनगुना रही थी,
सोचकर रातों को यादो मे सुन्दर सपने सजा रही थी ।
छत पर बैठी मेरा ज़िक्र कर,मुस्कुरा रही थी
ये हिचकी शाम से, यूँ ही तो नहीं आ रही थी ।।
दीवार-ए-आईना मे जुल्फो को हटा रही थी,
माँ से नजर बचाकर मुझसे मिलने आ रही थी ।
मेरे सामने वो बैठकर नजरें छुपा रही थी,
हम जानते थे कि रस्म-ए-उल्फ़त भी यूँ निभा रही थी ।।
उसके रूखसार पे तिल भी गजब ढा रहा था,
आँखो में काजल लगाकर मुझपर नजरो से पिलायें रही थी ।
उसकी आँखो में देखता रहा मैं और सुबह से सहर हो गयी,
फिर शाम को अपनी गली में मुझे खिडकी से देख रही थी ।।
ऐसी लडकी थी उसकी जुल्फो मे शबनम शाम थी,
जब गाँव लौटे तो मालुम पडा मोहब्बत किसी गैर की हो गयी ।
अचानक रास्ते मे मिली नजरे फेर ली उसने,
आज उसकी याद विकास दिले-नाशाद कर रही थी ।।

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